भाग…1
ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकते। लेकिन चाहो तो स्वयं ईश्वर अवश्य हो सकते हो। ईश्वर को पाने और जानने की खोज बिलकुल ही अर्थहीन है। जिसे खोया ही नहीं है, उसे पाओगे कैसे? जो तुम स्वयं ही हो, उसे जानोगे कैसे?
वस्तुत: जिसे हम देख सकते हैं, वह हमारा स्वरूप नहीं हो सकता। दृश्य बन जाने के कारण ही वह हमसे बाहर और पर हो जाता है। परमात्मा है हमारा स्वरूप और इसलिए उसका दर्शन असंभव है। वास्तव में, परमात्मा के नाम से जो दर्शन होते हैं, वे हमारी ही कल्पनाएं है।
मनुष्य का मन किसी भी कल्पना को आकार देने में समर्थ है। किन्तु इन कल्पनाओं में खो जाना सत्य से भटक जाना है। सत्य को जानने के पूर्व स्वयं को जानना तो अनिवार्य ही है। और स्वयं को जानते ही जाना जाता है कि अब कुछ और जानने को शेष नहीं है।
आत्मज्ञान की कुंजी के पाते ही सत्य का ताला खुल जाता है। सत्य तो सब जगह है। समग्र सत्ता में वही है। किन्तु उस तक पहुंचने का निकटतम मार्ग स्वयं में ही है। स्वयं की सत्ता ही चूंकि स्वयं के सर्वाधिक निकट है, इसलिए उसमें खोजने से ही खोज होनी सम्भव है।
और जो स्वयं में ही खोजने मेंअसमर्थ है, जो निकट ही नहीं खोज पाता है तो दूर कैसे खोज पाएगा? दूर की खोज का विचार.. निकट की खोज से बचने का एक उपाय भी हो सकता है। संसार की खोज चलती है ताकि स्वयं से बचा जा सके और फिर ईश्वर की खोज चलते लगती है।
क्या स्वयं के अतिरिक्त शेष सब खोजें स्वयं से पलायन की ही विधियां नहीं है? भीतर देखें कि वहां क्या दिखता है …अंधकार, अकेलापन, रिक्तता? क्या इस अंधकार, इस अकेलेपन, इस रिक्तता से भागकर ही हम कहीं शरण लेने को नहीं भागते रहते हैं?
किन्तु इस भांति के भगोड़ेपन से दुख के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ नहीं लगता है। स्वयं से भागे हुए के लिए विफलता ही भाग्य है। क्योंकि जो खोज स्वयं से पलायन है, वह कहीं भी नहीं ले जा सकती है। और दो ही विकल्प हैं : स्वयं से भागो या स्वयं में जागो।
भागने के लिए बाहर लक्ष्य होना चाहिए और जानने के लिए बाहर के सभी लक्ष्यों की सार्थकता का श्रम—भंग। ईश्वर जब तक बाहर है, तब तक वह भी संसार है, वह भी माया है, वह भी मूर्च्छा है। उसका आविष्कार भी मनुष्य ने स्वयं से बचने और भागने के लिए ही किया है।
इसलिए ईश्वर, सत्य, निर्वाण, मोक्ष—यह सब न खोजें। खोजें उसे जो सब खोज रहा है। उसकी खोज ही अन्ततः ईश्वर की, सत्य की और निर्वाण की खोज सिद्ध होती है। ज्ञान की पूर्ण शुद्धावस्था का नाम ही है आत्मज्ञान। और भी उचित है कि हम उसे ज्ञान ही कहें।
क्योंकि वहां न कोई आत्म है और न अनात्म। आत्मानुसंधान के अतिरिक्त और कोई खोज धार्मिक खोज नहीं है। लेकिन, ‘आत्म ज्ञान’, ‘आत्म दर्शन’, आदि शब्द बड़े भ्रामक हैं। क्योंकि, स्वयं का जान कैसे हो सकता है? ज्ञान के लिए द्वैत चाहिए, जहां दो नहीं हैं, वहां ज्ञान कैसे होगा?
दर्शन कैसे होगा? वास्तव में, ज्ञान, दर्शनादि सभी शब्द द्वैत के जगत के हैं। और जहां अद्वैत है, जहां एक ही है, वहां वे एकदम अर्थहीन हो जाते हों तो कोई आश्रर्य नहीं। कहि न कही , ‘आत्म दर्शन’ शब्द ही असंगत है। जो जाना जा सकता है, वह स्व कैसे होगा?
वह तो पर ही हो सकता है। जानना तो पर का ही हो सकता है। स्व तो वह है जो जानता है। जहां ज्ञान है, वहां कोई ज्ञाता है, कुछ ज्ञेय है। स्व अनिवार्य रूप से ज्ञाता है। उसे किसी भी उपाय से ज्ञेय नहीं बनाया जा सकता। हम सबको जान सकते है लेकिन उसी भांति स्वयं को नहीं।
शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी सरल घटना कठिन और दुरूह बनी रहती है। फिर इस ज्ञान को पाने की विधि ,मार्ग क्या है ? उदाहरण के लिए एक घर तो बड़ा था, किन्तु सामान की अधिकता से बिलकुल छोटा हो गया था। वहां सामान ही सामान था और घर था नहीं।
क्योंकि घर तो दीवारों से घिरे रिक्त स्थान का ही नाम है। गृहपति कहता है कि ‘घर में जगह बिलकुल नहीं है, लेकिन जगह लाएं भी कहां से। वास्तव में, रिक्त स्थान घर में पर्याप्त है। वह यहीं है, और कहीं गया नहीं, केवल सामान से आपने उसे ढांक लिया है।
सामान हटावें और वह अभी और यहीं है। आत्म- ज्ञान की विधि भी यही है।सोते -जागते, उठते -बैठते, सुख में, दुख में …मैं तो हूं ही। ज्ञान हो, अज्ञान हो, मैं तो हूं ही। मेरा यह होना असंदिग्ध है। सब पर संदेह किया जा सके, लेकिन स्वयं पर तो संदेह नहीं किया जा सकता है।
मेरा होना ,मेरा अस्तित्व और मेरी जानने की क्षमता ,मुझमें ज्ञान का होना, इन दोनों के आधार पर ही मार्ग खोजा जा सकता है। मैं हूं लेकिन ज्ञात नहीं कौन हूं? अब क्या करूं? ज्ञान जो कि क्षमता है, ज्ञान जो कि शक्ति है, उसमें झांकूं, और खोजूं। इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प ही कहां है?
ज्ञान की शक्ति है, लेकिन वह ज्ञेय से,विषयों से ढंकी है। एक विषय हटता है, तो दूसरा आ जाता है। एक विचार जाता है तो दूसरे का आगमन हो जाता है। ज्ञान एक विषय से मुक्त होता है तो दूसरे से बंध जाता है, लेकिन रिक्त नहीं हो पाता। ज्ञान जहां ज्ञेय से ,विषय से मुक्त है, वहीं वह शुद्ध है।
और वह शुद्धता ,शून्यता ही आत्मज्ञान है। चेतना जहां निर्विषय है, निर्विचार है, निर्विकल्प है, वहीं जो अनुभूति है, वही स्वयं का साक्षात्कार है। किंतु यहां इस साक्षात्कार में न तो कोई ज्ञाता है, न ज्ञेय है। यह अनुभूति अभूतपूर्व है। उसके लिए शब्द असम्भव है।
वास्तव में सत्य के संबंध में जो भी कहो, वह कहने से ही असत्य हो जाता है। ज्ञान है शब्दातीत। किन्तु सत्य के संबंध में किए गए अधूरे इंगितों को पकड़ लेने से बडी भ्रांति हो जाती है। आत्मज्ञान की खोज में जो व्यक्ति आत्मा को एक ज्ञेय पदार्थ की भांति खोजने निकल पड़ता है।
वह प्रथम चरण में ही गलत दिशा में चल पड़ता है। आत्मा ज्ञेय नहीं है और न ही उसे किसी आकांक्षा का लक्ष्य ही बनाया जा सकता है, क्योंकि वह विषय भी नहीं है। वस्तुत: उसे खोजा भी नहीं जा सकता क्योंकि यह खोजनेवाले का ही स्वरूप है।