भव’ का तात्पर्य

प्रिय शंकर ने एक और प्रश्न पूछा कि तृष्णा के बाद यह ‘उपादान’ और यह ‘भव’ क्या होता है?आज की हिंदी में भव ‘संसार’ को कहते हैं। जैसे भव-सागर माने संसार-सागर । यह अर्थ प्राचीन पालि के अर्थ से बहुत दूर नहीं है फिर भी ‘भव’ यहां कर्म के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसे समझें, प्रतीत्य-समुत्पाद की एक-एक कड़ी का निरीक्षण करते हुए हम देखते हैं कि षडायतन यानी छ: इंद्रियों द्वारा अपने-अपने विषयों से ‘फस्स’ यानी स्पर्श होने पर वेदना यानी सुखद या दुःखद संवेदना उत्पन्न होती है। यहां तक कोई कर्म नहीं हुआ। अधिक से अधिक किसी पूर्व कर्म का फल पक कर तैयार हुआ और उसके कारण ऐसी परिस्थितियों का बनाव बना और छहों इंद्रियों के सम्मुख ऐसे विषय उत्पन्न हुए कि उनके संसर्ग से जिस संवेदना की अनुभूति हुई वह अच्छे कर्म की उपज होने पर सुख-वेदना के रूप में प्रकट हुई और बुरे कर्म की उपज होने पर दुःख-वेदना के रूप में प्रकट हुई।

अब इस वेदना के तुरंत बाद जो तृष्णा जगी, वह सुख-वेदना हो तो उसे चाहने लगा । उस तृष्णा के उत्पन्न होते ही नये कर्मों का चक्र आरंभ हुआ। वही तृष्णा तीव्रता को प्राप्त हुई तो उपादान हुआ, यानी, चित्त में गहरी लालसा उत्पन्न हुई, जिसे अंग्रेजी में ‘Craving’ कहते हैं। चित्त की ऐसी अवस्था पर कर्म का संपादन होना अनिवार्य हो जाता है – चैतसिक
कर्म, वाणी के कर्म, और काया के कर्म भी । इन कर्मों को ही भव अथवा कर्म-भव कहते हैं और संक्षेप में केवल भव भी कह देते हैं।

भव क्यों कहते हैं?
क्योंकि तृष्णा और उपादान से उत्पन्न हुआ यह कर्म ही हमारे लिए एक नया भव तैयार करता है, एक ऐसा संस्कार जो जीवन-मरण का चक्र तैयार करता है । मैं इस समय जो भी हूं, मेरे अपने कर्म का ही विपाक फल हूं। इसलिए मेरा कर्म ही मेरा भव है। अतः कर्म को भव का पर्यायवाची कहना गलत नहीं है। हर प्राणी अपने-अपने कर्म के अनुसार अपने- अपने मन के बंधन में उलझा हुआ है। सचमुच, यह भव-सागर अत्यंत विस्तृत है, अत्यंत गहन है। इसका कहीं कोई ओर-छोर नहीं दीखता। इसका कहीं तल- स्पर्श नहीं किया जा सकता। हर प्राणी का भव उसके कर्मानुसार, उसकी अपनी कर्म-सीमाओं में ही आबद्ध है। पाखाने के मल में कुलबुलाता हुआ एक कीड़ा उसी मैले में जनमता है, उसी में इधर-उधर रेंग कर कुछ समय पश्चात मर जाता है। उसके लिए ये अनंत कोटि सूरज, चांद, सितारे, यह पृथ्वी, यह आसमान कोई मायने नहीं रखते । उसका क्षुद्र भव उस पाखाने की छोटी-सी गंदगी तक ही सीमित है।

इसी प्रकार हरेक प्राणी का भव उसके अपने कर्मों के अनुसार सीमित ही तो है। हम मनुष्य हैं, प्राणियों में अत्यंत उच्च कोटि के प्राणी, लेकिन हमारा भव भी तो आखिर सीमित ही है। ये अनंत कोटि सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, नीहारिकाएं हमारे किस काम की हैं? केवल उनकी मानसिक कल्पना भर भले कर लें। लेकिन फिर भी प्रत्येक प्राणी इस असीम भवसागर में जिसका कहीं ओर है न छोर, अपने कर्मों के कारण कहां से कहां पहुँचते रहता है और जन्म धारण करते रहता है। हमारे कर्मों के अनुरूप बना हुआ यह भव हमारे अगले जन्म का कारण बनता है और जन्म होता है तो बुढ़ापा होता है, बीमारी होती है, मृत्यु होती है और नाना प्रकार के दुःख-संताप उठ खड़े होते हैं। यही प्रतीत्य-समुत्पाद है।

‘वेदना’ के बाद उठने वाली तृष्णा को रोकते ही उपादान अपने आप रुक जाता है और उपादान रुकते ही कर्मभव रुक जाता है। और जिसके लिए कोई भव नहीं उसका कर्म जन्म देने वाला कर्म नहीं होता। यानी, जिसके चित्त से तृष्णा और अविद्या का समूल नाश हो गया, उसके कर्म अरहंत के कर्म हैं, जो संस्कारहीन हैं और फलहीन हैं, अच्छे या बुरे फल देने वाले नहीं हैं । इसीलिए भव उत्पन्न करने वाले नहीं हैं। उसके लिए कोई संसार नहीं है, कोई जन्म, जरा, व्याधि, मृत्यु, दुःख, संताप, दौर्मनस्य और रोना-पीटना नहीं है, यही निर्वाण की अवस्था है।

इसी बात की गहराई को समझ कर सद्धर्म को समझने वाला एक व्यक्ति कहता है कि इस अनंत सृष्टि का रचयिता और संचालन कर्त्ता कोई एक देव, ब्रह्म या ईश्वर नहीं है और यदि कहीं कोई हो भी तो हमारा उससे कोई लेन-देन नहीं है। उसके होने न होने से हमारा कोई हानि-लाभ नहीं है क्योंकि हम उसके कारण नहीं, बल्कि अपने कर्म-भव के कारण दुःख-सुख के भागी होते हैं। अपने कर्मों के कारण ही प्राणी स्वयं अपना भव निर्माण करता है और अपने कर्मों का निरोध करके अपने भव को निरुद्ध कर लेता है। इसलिए हम स्वयं ही अपने आपको बंधनमुक्त करने वाले हैं। कोई बेचारा सृष्टि का रचयिता ब्रह्म अथवा तारक ब्रह्म इसमें क्या करेगा?

यदि कोई अपने आप को तारक कहने का दम्भ रखे तो वह सचमुच मिथ्यादृष्टि से ही आबद्ध है । कोई महापुरुष अधिक से अधिक प्राणियों का मार्ग-निर्देशक मात्र हो सकता है। वह सही मार्ग प्रकाशित कर दे, इतनी ही अनुकंपा कर सकता है
और इतने अर्थों में ही तारक कहा जा सकता है, इससे अधिक नहीं। कोई मुझे रंगून से मांडले जाने तक का मार्ग बता दे, समझा दे और मुझे अच्छी तरह समझ में भी आ जाय, परंतु जब तक मैं स्वयं उस मार्ग पर एक कदम चलूं नहीं, तब तक मांडले मुझसे उतना ही दूर है, जितना कि पहले था। उस तारक के संपर्क में आकर भी मैं रंगून से एक कदम आगे नहीं बढ़ सकता । तो सही माने में अपना तारक तो मैं स्वयं हुआ न । मार्ग-निर्देशक कोई दूसरा अवश्य हो
सकता है, पर तारक नहीं।

ऐसा है यह भव, ऐसी है इस भव की उत्पत्ति और ऐसा है इस भव का निरोध । जिसने इस भव-निरोध के रास्ते को भली-भांति समझ लिया और स्वयं उस पर भली-भांति चल कर सचमुच अपने भव का निरोध कर लिया, वही वस्तुतः मुक्त है, अन्य सभी भ्रमग्रस्त हैं।

अतः आओ, इस मोह-बंधन तथा भव-बंधन से छुटकारा पाने के लिए शील, समाधि और प्रज्ञा का नियमित रूप से अभ्यास करते हुए धर्म में पुष्ट हों और सभी बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर लें। इसी में हम सब का मंगल-कल्याण समाया हुआ है

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