कर्म की गति बड़ी गहन है

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आज की अमृत कथा

अहमदाबाद में वासणा नामक एक इलाका है। वहाँ एक कार्यपालक इंजीनियर रहता था जो नहर का कार्यभार सँभालता था। वही आदेश देता था कि किस क्षेत्र में पानी देना है।

एक बार एक बड़े किसान ने उसे 100-100 रूपयों की दस नोटें एक लिफाफे में देते हुए कहाः “साहब ! कुछ भी हो, पर फलाने व्यक्ति को पानी न मिले। मेरा इतना काम आप कर दीजिये।”

साहब ने सोचा किः “हजार रूपये मेरे भाग्य में आने वाले हैं इसीलिए यह दे रहा है। किन्तु गलत ढंग से रुपये लेकर मैं क्यों कर्मबन्धन में पड़ूँ ? हजार रुपये आने वाले होंगे तो कैसे भी करके आ जायेंगे। मैं गलत कर्म करके हजार रूपये क्यों लूँ ? मेरे अच्छे कर्मों से अपने-आप रूपये आ जायेंगे।ʹ अतः उसने हजार रूपये उस किसान को लौटा दिये।

कुछ दिनों के बाद इंजीनियर एक बार मुंबई से लौट रहा था। मुंबई से एक व्यापारी का लड़का भी उसके साथ बैठा। वह लड़का सूरत आकर जल्दबाजी में उतर गया और अपनी अटैची गाड़ी में ही भूल गया। वह इंजीनियर समझ गया कि अटैची उसी लड़के की है। अहमदाबाद रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रूकी। अटैची पड़ी थी लावारिस… उस इंजीनियर ने अटैची उठा ली और घर ले जाकर खोली। उसमें से पता और टैलिफोन नंबर लिया।

इधर सूरत में व्यापारी का लड़का बड़ा परेशान हो रहा था किः “हीरे के व्यापारी के इतने रूपये थे, इतने लाख का कच्चा माल भी था। किसको बतायें ? बतायेंगे तब भी मुसीबत होगी।” दूसरे दिन सुबह-सुबह फोन आया किः “आपकी अटैची ट्रेन में रह गयी थी जिसे मैं ले आया हूँ और मेरा यह पता है, आप इसे ले जाइये।”

बाप-बेटे गाड़ी लेकर वासणा पहुँचे और साहब के बँगले पर पहुँचकर उन्होंने पूछाः “साहब ! आपका फोन आया था ?”

साहबः “आप तसल्ली रखें। आपके सभी सामान सुरक्षित हैं।”

साहब ने अटैची दी। व्यापारी ने देखा कि अंदर सभी माल-सामान एवं रुपये ज्यों-के-त्यों हैं। ʹये साहब नहीं, भगवान हैं….ʹ ऐसा सोचकर उसकी आँखों में आँसू आ गये, उसका दिल भर आया। उसने कोरे लिफाफे में कुछ रुपये रखे और साहब के पैरों पर रखकर हाथ जोड़ते हुए बोलाः

“साहब ! फूल नहीं तो फूल की पंखुड़ी ही सही, हमारी इतनी सेवा जरूर स्वीकार करना।”

साहबः “एक हजार रूपये रखे हैं न ?”

व्यापारीः “साहब ! आपको कैसे पता चला कि एक हजार रूपये हैं ?”

साहबः “एक हजार रूपये मुझे मिल रहे थे बुरा कर्म करने के लिए। किन्तु मैंने वह बुरा कार्य नहीं किया यह सोचकर कि यदि हजार रूपये मेरे भाग्य में होंगे तो कैसे भी करके आयेंगे।”

व्यापारीः “साहब ! आप ठीक कहते हैं। इसमें हजार रूपये ही हैं।”

जो लोग टेढ़े-मेढ़े रास्ते से कुछ लेते हैं वे तो दुष्कर्म कर पाप कमा लेते हैं लेकिन जो धीरज रखते हैं वे ईमानादारी से उतना ही पा लेते हैं जितना उनके भाग्य में होता है।

श्रीकृष्ण कहते हैं- गहना कर्मणो गतिः।

जब-जब हम कर्म करें तो कर्म का फल ईश्वर को अर्पित कर दें अथवा कर्म में से कर्त्तापन हटा दें तो कर्म करते हुए भी हो गया सुकर्म। कर्म तो किये लेकिन कर्म का बंधन नहीं रहा।

संसारी आदमी कर्म को बंधनकारक बना देता है, साधक कर्म को सुकर्म बनाता है लेकिन सिद्ध पुरुष कर्म को अकर्म बना देते हैं। आप भी कर्म करें तो अकर्ता होकर करें, न कि कर्त्ता होकर। कर्त्ता भाव से किया गया कर्म बंधन में डाल देता है एवं उसका फल भोगना ही पड़ता है।

तुलसीदास जी कहते हैं-

करम प्रधान बिस्व करि राखा।
जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।
बुरा कर्म करते समय तो आदमी कर डालता है लेकिन बाद में उसका कितना भयंकर परिणाम आता है इसका पता ही नहीं चलता। अतः कर्म करते हुए परमात्मा का ध्यान रखें।कर्मयोगी बने एक तो कर्म सुकर्म,श्रेष्ठ कर्म बन जाएगा।

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