विलक्षण महारास लीला

वृन्दावन की गोपियों से लेकर दर्द दीवानी मीरा तक, इस सांवरी सलोनी सूरत के अनेक प्रेमी हुए हैं और हर प्रेमी का भाव इतना विलक्षण होता है कि चर्चा करते करते ज़िन्दगी छोटी लगने लगती है। हर प्रेमी अपने अलग ढंग से अपने ठाकुर को रिझाता है और अपने अनोखे भाव ठाकुर के चरणों में समर्पित करता है। कोई सकाम भक्ति करता है तो कोई निष्काम भक्ति करता है।

कोई उनसे कुछ नहीं चाहता तो कोई उनसे सब कुछ चाहता है। हर भक्त उनके अलग अलग रूप की पूजा करता है, कोई बांके बिहारी को मानता है,

कोई राधा रमण को, कोई राधा वल्लभ को, कोई द्वारिकाधीश को तो कोई श्री नाथ जी को। परन्तु कन्हैया के हर प्रेमी के ह्रदय में एक समानता होती है, उनका हर भक्त उनके साथ रास करना चाहता है। ये इच्छा हर साधक के मन में होती है की प्रभु उसे भी अपने उस दिव्य महारास का दर्शन कराएं। यह महारास लीला कोई साधारण लीला नहीं है। उन पर दया आती है जो इस अद्भुत लीला को संदेह की निगाह से देखते है।

बड़े बड़े योगी और स्वयं योगेश्वर भगवन शिव अपने ध्यान में इसी महारास का चिंतन करते हैं और उन्हें भी इसके दर्शन नहीं हो पाते। श्रीमद्भागवत जैसे परम विशाल ग्रन्थ में भी महारास का विस्तृत वर्णन नहीं मिलता। श्री शुकदेव जी महाराज भी इस लीला के रहस्य को राजा परीक्षित से छुपा गए क्योंकी इस महारास का वर्णन कोई कर ही नहीं सकता, इसका तो केवल दर्शन हो सकता है। इसका वर्णन कौन करेगा? और इसका दर्शन भी और कोई नहीं स्वयं किशोरी जी अपने कृपा पात्रों को कराती है।

ये महारास की लीला भगवान् ने द्वापर युग में रचाई थी और आज से साढ़े पांच हज़ार वर्ष पूर्व इस लीला का विश्राम भी हो गया था,

आज से 500 वर्ष पूर्व जब अनन्य रसिक नृपति स्वामी श्री हरिदास जी महराज जब वृन्दावन पधारे तो निधिवन के कुंजो में उन्होंने पुनः इस महारास की दिव्य लीला का प्रारंभ करवाया और यह परंपरा आज तक निधिवन में प्रतिदिन होती है, हर रात वहां रास होता है। और इस निकुंज की लीला का वर्णन स्वामी जी ने अपने पदों में किया है। स्वामी जी ने रास में कितना सुंदर लिखा है:

सुन धुन मुरली वन बाजे हरी रास रचो
कुञ्ज कुञ्ज द्रुम बेली प्रफुल्लित, मंडल कंचन मणिन खचो
निरखत जुगल किशोर जुबती जन, मन मेरे राग केदारो मचो
श्री हरिदास के स्वामी श्यामा, नीके री आज प्यारो लाल नचो

इस महारास का एक अटूट अंग गोपी गीत भी है। गोपी गीत के बारे में तो किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। भागवत पुराण के प्राण बसते हैं गोपी गीत में। और गोपी गीत का कारण भी हमें ज्ञात ही है। जब भगवान् गोपियों के अहंकार को दूर करने के लिए उनके सामने से अदृश्य हुए थे तो गोपियों ने करुण स्वर में रुदन किया था और इस गोपी गीत को गया था। गोपियाँ यमुना से पूछती थी, कभी निधिवन से पूछती थी, कभी तुलसी से पूछती थी और जब भगवान् नहीं मिले तो गोपियों ने ढूंढना बंद कर दिया और फिर वो प्रभु के प्रेम में खो गयी।

वास्तविकता में गोपी और महारास के भावों का वर्णन करना तो इस लेख की सीमाओं से परे है और ये तुच्छ बुद्धि भी इस लायक नहीं है की निकुंज लीला के एक कण की भी चर्चा कर सके। यह महारास लीला अश्विन पूर्णिमा के दिन ही हुई थी जिसे हम शरद पूर्णिमा के रूप में जानते हैं। शरद पूर्णिमा के दिन तो वृन्दावन के दर्शनों का अति विशेष महत्व है। अपने देखा होगा की ठाकुर श्री बांके बिहारी जी कभी अपने हाथ में मुरली नहीं रखते, परन्तु शरद पूर्णिमा के संध्या कालीन दर्शनों में बिहारी जी के हाथ में मुरली, कटी काछनी और सर पर मोर-मुकुट का श्रृंगार होता है। बिहारी जी अपने कक्ष से बाहर भक्तों के समीप आ जाते है। मंदिर के प्रांगण को एक वन का रूप दिया जाता है जिसमे एक चांदी के घरोंदे में प्रभु आसीन होते हैं। सांवली सूरत पे पूर्ण श्वेत पोशाक इस प्रकार सुशोभित होती है जैसे अँधेरे आकाश में चन्द्रमा।

इस दिन तो चन्द्रमा के भी भाग्य उदय हो जाते हैं क्योंकि इस दिन मंदिर के द्वार उस समय तक खुले रहते हैं जब तक चन्द्रमा बिहारी जी के चरणों को स्पर्श ना कर ले।

आप सब जानते होंगे की बिहारी जी पश्चिम दिशा में पूर्व की और मुख करके खड़े हुए हैं और शरद पूर्णिमा पर चन्द्रमा भी ठीक पूर्व से ही उदय होता है। इसलिए शरद पूर्णिमा पर मंदिर के सामने वाली खिड़की और रोशनदान खोल दिए जाते हैं जिससे चन्द्रमा बिहारी जी दर्शन के पा सके और चन्द्रमा की किरणे बिहारी जी के चरणों को स्पर्श कर सकें।

बिहारी जी के श्रृंगार यूँ तो अनंत हैं, पर फिर मै यहीं अपने शब्दों को विराम देता हूँ और यही प्रार्थना करता हूँ की सभी भक्तों का प्रभु के चरणों का अनुराग इसी प्रकार बना रहे और हमें भी वो मुरली वाला एक दिन गोपी बनाकर अपने साथ रास में ले चले।

हरे कृष्णा
जय जय श्रीराधे

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