माया जीव को सदैव भ्रम में रखती है। जो अपना है नहीं उसे अपना समझना ही तो भ्रम कहलाता है। माया अवेद्य है, वह जाल पर जाल बुनती रहती है। इसके मोहक चित्रों का कोई अंत नहीं है। यह ऐसी जादूगरनी है, कि कई-कई बार धोखा खाया जीव पुनः इसके जाल में फँस ही जाता है।परमात्मा जिसने सारा संसार रचा, हमें जीवन दिया, सहारा दिया इसके प्रभाव के कारण ही जीव को वह भी पराया लगने लगता है। यह जानने के बाद भी कि सब कुछ यहीं छूट जाना है, कुछ भी साथ नहीं जाने वाला फिर भी मनुष्य मूढ़ों की तरह धन, संपत्ति, पद इत्यादि के पीछे पड़कर जीवन व्यर्थ गवां रहा है।
सत्संग के आश्रय से ही प्रज्ञा चक्षु खुल सकते हैं और जीव के अंतः चक्षुओं से ये भ्रम का पर्दा हट सकता है। माया के ज्यादा चिंतन के कारण ही जीव दुःख पा रहा है। माया नहीं मायापति का आश्रय करो। लक्ष्मी नहीं लक्ष्मी नारायण के दास बनो, तो ये लोक भी सुधर जायेगा और परलोक भी !
जय जय श्री राधे कृष्णा जी।श्री हरि आपका कल्याण करें … 🙏🏻🪷
प्रभु संकीर्तन 8
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