।। श्रीहरि: ।।
तस्मात् सर्वेषु भूतेषु दयां कुरुत सौहृदम्।
भावमासुरमुन्मुच्य यया तुष्यत्यधोक्षज:।।
तुष्टे च तत्र किमलभ्यमनन्त आद्ये
किं तैर् गुण व्यतिकरादिह ये स्वसिद्धा:।
धर्मादय: किमगुणेन च काङ्क्षितेन
सारं जुषां चरणयोरुपगायतां न:।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण- ७ / ६)
अर्थ-
प्रहलादजी बालकों से कहते हैं- तुम लोग अपने दैत्यपन का, आसुरी सम्पत्ति का त्याग करके समस्त प्राणियों पर दया करो। प्रेम से उनकी भलाई करो। इसी से भगवान् प्रसन्न होते हैं।
आदि नारायण अनन्त भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो नहीं मिल जाती? लोक और परलोक के लिये जिन धर्म, अर्थ आदि की आवश्यकता बतलायी जाती है- वे तो गुणों के परिणाम से बिना प्रयास के स्वयं ही मिलने वाले हैं।
जब हम श्रीभगवान् के चरणामृत का सेवन करने (चरणों में मन को समर्पित करने) और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने में लगे हैं, तब हमें मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है।
वद्मा हि सूनो अस्यद्मसद्वा चक्रे अग्निर्जनुषाज्मान्नम्।
स त्वं न ऊर्जसन ऊर्जे धा राजेव जेरवृके क्षेष्यन्तः।।
(ऋग्वेद- ६ / ४ / ४)
अर्थ-
हे सम्पूर्ण जगत् के रचनेवाले, कहनेवाले और भोग्य पदार्थों मे प्राप्त रहनेवाले परमेश्वर! आप पवित्र रहकर हमे जन्म से ही प्राप्त रहनेवाले और खाने योग्य पदार्थों मे प्राप्त रहनेवाले, निश्चय ही आप हम लोगो़ के लिए पराक्रम का प्रक्षेपण करनेवाले हो। जिस प्रकार राजा प्रकाशमान् होता है, वैसे ही हमे भी प्रकाशित करिए, तथा चौरादिकों के मध्य से हमे दूर कर अपने समीप निवास योग्य बनाइए।
त्वदज्रिमुद्दिश्य कदापि केनचिद्यथा तथा वापि सकृत्कृतोऽञ्जलिः।
तदैव मुष्णात्यशुभान्यशेषतः शुभानि पुष्णाति न जातु हीयते।।
अर्थ-
आपके चरणों के उद्देश्य से, किसी भी समय में, किसी ने भी, जैसे-तैसे एक बार भी हाथ जोड़ दिया तो वह (नमस्कार) उसके समस्त पापों को हर लेता है, पुण्य राशि की पुष्टि करता है और उसका फिर कभी नाश नहीं होता।
।। ॐ नमो नारायणाय ।।