श्रीमहादेवजी कहते हैं:– हे प्रिय! अब मैं संसार-बन्धन से छुटकारा पाने के लिये चौदहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो! सिंहल द्वीप में विक्रम बैताल नामक एक राजा थे, जो सिंह के समान पराक्रमी और कलाओं के भण्डार थे, एक दिन वे शिकार खेलने के लिए उत्सुक होकर राजकुमारों सहित दो कुतियों को साथ लिए वन में गये, वहाँ पहुँचने पर उन्होंने तीव्र गति से भागते हुए खरगोश के पीछे अपनी कुतिया छोड़ दी, उस समय सब प्राणियों के सामने भागता हुआ खरगोश इस प्रकार आँखो से ओझल हो गया मानो कहीं उड़ गया हो।
दौड़ते-दौड़ते बहुत थक जाने के कारण वह एक कीचड़-युक्त गड्डे में गिर गया था, गड्डे में गिरने से वह खरगोश कुतिया की पकड़ में नहीं आ पाया और ऎसे स्थान पर जा पहुँचा जहाँ का वातावरण बहुत ही शान्त था, वहाँ हिरण निर्भय होकर सभी ओर वृक्षों की छाया में बैठे रहते थे, बंदर भी अपने आप टूट कर गिरे हुए नारियल के फलों और पके हुए आमों से पूर्ण तृप्त रहते थे, वहाँ सिंह हाथी के बच्चों के साथ खेलते और साँप निडर होकर मोर के पंखो में घुस जाते थे।
राजा जहाँ शिकार खेलने गया था उस स्थान पर एक आश्रम के भीतर वत्स नामक मुनि रहते थे, जो जितेन्द्रिय और शान्त-भाव से निरन्तर गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ किया करते थे, आश्रम के पास ही वत्स मुनि के किसी शिष्यों ने अपने पैर धोये थे वह भी नित्य गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ किया करते थे, पैर धोने वाले जल से वहाँ की मिट्टी गीली हो गयी थी, खरगोश का जीवन कुछ शेष था, वह थककर उसी कीचड़ में गिर गया था।
उस कीचड़ के स्पर्श मात्र से ही खरगोश दिव्य विमान पर बैठकर स्वर्ग-लोक को चला गया फिर कुतिया भी उसका पीछा करती हुई आयी तो वहाँ उसके शरीर में भी कीचड़ के कुछ छींटे लग गये जिस के कारण कुतिया भी अपना रूप त्यागकर एक दिव्यांगना का मनोहर रूप धारण करके गन्धर्वों से सुशोभित दिव्य विमान पर सवार होकर वह भी स्वर्गलोक को चली गयी, यह देखकर मुनि के शिष्य हँसने लगे, उन दोनों के पूर्वजन्म के वैर का कारण सोचकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ था, उस समय राजा भी आश्चर्य से चकित हो उठा।
आश्चर्य-चकित होकर राजा ने पूछा:- ‘विप्रवर ! नीच योनि में पड़े हुए दोनों कुतिया और खरगोश ज्ञानहीन होते हुए भी जो स्वर्ग में चले गये, इसका क्या कारण है? इसकी कथा सुनाइये।’
एक शिष्य ने कहाः- राजन! इस वन में वत्स नामक ब्राह्मण रहते थे, वे बड़े जितेन्द्रिय महात्मा थे, गीता के चौदहवें अध्याय का सदा जप किया करते हैं, मैं उन्हीं का शिष्य हूँ, मैंने भी ब्रह्म-विद्या में विशेषज्ञता प्राप्त की है, गुरुजी की ही भाँति मैं भी चौदहवें अध्याय का प्रतिदिन जप करता हूँ, मेरे पैर धोने के जल के स्पर्श होने के कारण खरगोश को कुतिया के साथ स्वर्ग-लोक की प्राप्ति हुई है, अब मैं अपने हँसने का कारण बताता हूँ।
महाराष्ट्र में प्रत्युदक नामक महान नगर है, वहाँ केशव नामक एक ब्राह्मण रहता था, जो के मनुष्यों में कपटी स्वभाव का था, उसकी पत्नी का नाम विलोभना था, विलोभना स्वछन्द विहार करने वाली स्त्री थी, एक दिन क्रोध में आकर जन्म भर की दुश्मनी को याद करके ब्राह्मण ने अपनी स्त्री का वध कर डाला और उसी पाप से उसको खरगोश की योनि में जन्म मिला था, ब्राह्मणी भी अपने पाप के कारण कुतिया योनि को प्राप्त हुई, हे राजन्! चौदहवें अध्याय के पाठ करने के कारण ही ऎसा संभव हो सका है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
श्रीमहादेवजी कहते हैं:– यह सारी कथा सुनकर श्रद्धालु राजा ने गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ आरम्भ कर दिया, जिससे उसे भी परम-गति की प्राप्ति हुई।
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥