पुरी के पास एक छोटा-सा गाँव था — वहाँ एक गरीब लेकिन परम भक्त बालक रहता था, नाम था माधव।
वो रोज़ अपने छोटे से घर के बाहर बैठकर, भगवान जगन्नाथ का नाम जपता
जय जगन्नाथ! जय जगन्नाथ!
उसके पास न अच्छे कपड़े थे, न खाना ढंग का… पर उसका हृदय प्रेम से भरा था।
हर दिन मंदिर से थोड़ा-सा महाप्रसाद लाकर, वो मिट्टी के दीए के सामने रखता और कहता —
पहले आप खाइए प्रभु, फिर मैं खाऊँगा।
एक दिन बहुत तेज़ बारिश हुई। मंदिर बंद था। माधव को कोई प्रसाद नहीं मिला।
वो उदास होकर बोला,
आज भी आप बिना खाए रहेंगे, प्रभु…? मैं कैसे खाऊँ?
उसी रात बिजली चमकी, और माधव की झोपड़ी के अंदर एक उजाला फैला —
वो चौंक गया!
देखता क्या है — स्वयं भगवान जगन्नाथ वहाँ खड़े हैं!
बड़ी मुस्कान, गोल-गोल आँखें, और हाथ में लड्डू!
प्रभु बोले ….
माधव ! तू रोज़ मुझे खिलाता है, आज मैं तुझे खिलाने आया हूँ।
इंदुली की आँखों से आँसू बह निकले।
वो काँपते हुए बोला,
प्रभु… आप मेरे घर में?
भगवान हँसते हुए बोले ….
भक्त का घर ही तो मेरा असली मंदिर है।
दोनों साथ बैठ गए — भगवान ने माधव को एक लड्डू खिलाया, और खुद एक लिया।
वो लड्डू सिर्फ मीठा नहीं था — उसमें प्रेम, आस्था और भक्ति का स्वाद था।
अगले दिन सुबह जब गाँववाले आए, उन्होंने देखा —
माधव के चेहरे पर दिव्य तेज था, और उसके सामने रखे प्रसाद के बीच एक सुनहरा लड्डू चमक रहा था।
लोगों ने समझ लिया ….
“जहाँ सच्ची भक्ति होती है, वहाँ भगवान स्वयं प्रसाद बाँटने आते हैं।
भक्ति है — प्रेम से पुकारना, बिना किसी लोभ के।
भगवान को सोने-चाँदी नहीं चाहिए, उन्हें बस एक सच्चा हृदय चाहिए।
जय जगन्नाथ प्रभुजी











