“धन्ना जाट”

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        एक गांव में भागवत कथा का आयोजन किया गया, पंडित जी भागवत कथा सुनाने आए। पूरे सप्ताह कथा वाचन चला। पूर्णाहुति पर दान दक्षिणा की सामग्री इक्ट्ठा कर घोडे पर बैठकर पंडितजी रवाना होने लगे। उसी गांव में एक सीधा-साधा गरीब किसान भी रहता था जिसका नाम था धन्ना जाट। धन्ना जाट ने उनके पांव पकड लिए। वह बोला- “पंडितजी महाराज ! आपने कहा था, कि जो ठाकुरजी की सेवा करता है उसका बेडा पार हो जाता है। आप तो जा रहे है। मेरे पास न तो ठाकुरजी हैं, न ही मैं उनकी सेवा पूजा की विधि जानता हूँ। इसलिए आप मुझे ठाकुरजी देकर पधारें।” पंडित जी ने कहा- “चौधरी ! तुम्हीं ले आना।” धन्ना जाट ने कहा – “मैंने तो कभी ठाकुर जी देखे नहीं, लाऊंगा कैसे ?” पंडित जी को घर जाने की जल्दी थी। उन्होंने पिण्ड छुडाने को अपना भंग घोटने का सिलबट्टा उसे दिया और बोले- “ये ठाकुरजी हैं ! इनकी सेवा पूजा करना।’ धन्ना जाट ने कहा – “महाराज ! में सेवा पूजा का तरीका भी नहीं जानता, आप ही बताएं ? पंडित जी ने कहा – “पहले खुद नहाना फिर ठाकुरजी को नहलाना। इन्हें भोग चढाकर फिर खाना।” इतना कहकर पंडित जी ने घोडे के एड लगाई व चल दिए।
       

धन्ना सीधा एवं सरल आदमी था। पंडितजी के कहे अनुसार सिलबट्टे को बतौर ठाकुरजी अपने घर में स्थापित कर दिया। दूसरे दिन स्वयं स्नान कर सिलबट्टे रूप ठाकुरजी को नहलाया। विधवा मां का बेटा था। खेती भी ज्यादा नहीं थी। इसलिए भोग में अपने हिस्से का बाजरी का टिक्कड एवं मिर्च की चटनी रख दी। ठाकुरजी से धन्ना ने कहा, पहले आप भोग लगाओ फिर मैं खाऊंगा। जब ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो बोला- पंडित जी तो धनवान थे। खीर-पूडी एवं मोहन भोग लगाते थे। मैं तो गरीब जाट का बेटा हूं, इसलिए मेरी रोटी-चटनी का भोग आप कैसे लगाएंगे ? पर साफ-साफ सुन लो मेरे पास तो यही भोग है। खीर-पूडी मेरे बस की नहीं है। ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो धन्ना भी सारा दिन भूखा रहा। इसी तरह वह रोज का एक बाजरे का ताजा टिक्कड एवं मिर्च की चटनी रख देता एवं भोग लगाने की प्रार्थना करता। ठाकुरजी तो पसीज ही नहीं रहे थे। यह क्रम निरन्तर छह दिन तक चलता रहा। छठे दिन धन्ना बोला-ठाकुरजी, चटनी रोटी खाते क्यों नहीं शर्माते हो ? आप कहो तो मैं आंखें मूंद लूँ  फिर खा लो। ठाकुरजी ने फिर भी भोग नहीं लगाया। धन्ना भी भूखा-प्यासा था। सातवें दिन धन्ना जट बुद्धि पर उतर आया। फूट-फूट कर रोने लगा एवं कहने लगा कि, सुना था आप दीन-दयालु हो, पर आप भी गरीब की कहां सुनते हो, मेरा रखा यह टिककड एवं चटनी आकर नहीं खाते हो तो मत खाओ। अब मुझे भी नहीं जीना है, इतना कह उसने सिलबट्टा उठाया और सिर फोडने को तैयार हुआ, अचानक सिलबट्टे से एक प्रकाश पुंज प्रकट हुआ एवं धन्ना का हाथ पकड कहा – ‘देख धन्ना ! मैं तेरा चटनी टिकडा खा रहा हूं।” ठाकुरजी बाजरे का टिक्कड एवं मिर्च की चटनी मजे से खा रहे थे। जब आधा टिक्कड खा लिया, तो धन्ना बोला- “क्या ठाकुरजी ! मेरा पूरा टिक्कड खा जाओगे ? मैं भी छह दिन से भूखा प्यासा हूं। आधा टिक्कड तो मेरे लिए भी रखो।”  ठाकुरजी ने कहा – “तुम्हारी चटनी रोटी बडी मीठी लग रही है तू दूसरी खा लेना।” धन्ना ने कहा – “प्रभु ! मां मुझे एक ही रोटी देती है। यदि मैं दूसरी लूंगा तो मां भूखी रह जाएगी।” प्रभु ने कहा- ‘फिर ज्यादा क्यों नहीं बनाता।” धन्ना ने कहा – “खेत छोटा सा है और मैं अकेला।” ठाकुरजी ने कहा – और खेत जोत ले। धन्ना बोला- “प्रभु ! मेरे पास बैल थोडे ही हैं, मैं तो खुद जुतता हूँ।” ठाकुरजी ने कहा – “नौकर रख ले।” धन्ना ने कहा-“प्रभु ! आप तो मेरी मजाक उडा रहे हो। नौकर रखने की हैसियत हो तो दो वक्त रोटी ही न खा लें हम मां-बेटे। इस पर ठाकुरजी ने कहा – चिन्ता मत कर मैं तेरी सहायता करूँगा।
         कहते है तबसे ठाकुरजी ने धन्ना का साथी बनकर उसकी सहायता करनी शुरू की। धन्ना के साथ खेत में कामकाज कर उसे अच्छी जमीन एवं बैलों की जोडी दिलवा दी। कुछ अर्से बाद घर में गाय भी आ गई। मकान भी पक्का बन गया। सवारी के लिए घोडा आ गया। धन्ना एक अच्छा खासा जमींदार बन गया।
       कई साल बाद पंडितजी पुनः धन्ना के गांव भागवत कथा करने आए। धन्ना भी उनके दर्शन को गया। प्रणाम कर बोला- “पंडितजी ! आप जो ठाकुरजी देकर गए थे वे छह दिन तो भूखे प्यासे रहे एवं मुझे भी भूखा प्यासा रखा। सातवें दिन उन्होंने भूख के मारे परेशान होकर मुझ गरीब की रोटी खा ही ली। उनकी इतनी कृपा है कि खेत में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर काम में मदद करते है। अब तो घर में गाय भी है। सात दिन का घी-दूध का ‘सीधा‘ यानी बंदी का घी- दूध मैं ही भेजूंगा।”
         पंडितजी ने सोचा मूर्ख आदमी है। मैं तो भांग घोटने का सिलबट्टा देकर गया था। गांव में पूछने पर लोगों ने बताया कि चमत्कार तो हुआ है। धन्ना अब वह गरीब नहीं रहा। जमींदार बन गया है। दूसरे दिन पंडितजी ने धन्ना से कहा- कल कथा सुनने आओ तो अपने साथ अपने उस साथी को ले कर आना जो तुम्हारे साथ खेत में काम करता है। घर आकर धन्ना ने प्रभु से निवेदन किया कि कथा में चलो तो प्रभु ने कहा – “मैं नहीं चलता तुम जाओ।”  धन्ना बोला – “तब क्या उन पंडितजी को आपसे मिलाने घर ले आऊँ। प्रभु ने कहा – “बिल्कुल नहीं। मैं झूठी कथा कहने वालों से नहीं मिलता। जो मुझसे सच्चा प्रेम करता है और जो अपना काम मेरी पूजा समझ करता है मैं उसी के साथ रहता हूं।” सत्य ही कहा गया है। “भक्त के वश में हैं भगवान्”



धन्ना सीधा एवं सरल आदमी था। पंडितजी के कहे अनुसार सिलबट्टे को बतौर ठाकुरजी अपने घर में स्थापित कर दिया। दूसरे दिन स्वयं स्नान कर सिलबट्टे रूप ठाकुरजी को नहलाया। विधवा मां का बेटा था। खेती भी ज्यादा नहीं थी। इसलिए भोग में अपने हिस्से का बाजरी का टिक्कड एवं मिर्च की चटनी रख दी। ठाकुरजी से धन्ना ने कहा, पहले आप भोग लगाओ फिर मैं खाऊंगा। जब ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो बोला- पंडित जी तो धनवान थे। खीर-पूडी एवं मोहन भोग लगाते थे। मैं तो गरीब जाट का बेटा हूं, इसलिए मेरी रोटी-चटनी का भोग आप कैसे लगाएंगे ? पर साफ-साफ सुन लो मेरे पास तो यही भोग है। खीर-पूडी मेरे बस की नहीं है। ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो धन्ना भी सारा दिन भूखा रहा। इसी तरह वह रोज का एक बाजरे का ताजा टिक्कड एवं मिर्च की चटनी रख देता एवं भोग लगाने की प्रार्थना करता। ठाकुरजी तो पसीज ही नहीं रहे थे। यह क्रम निरन्तर छह दिन तक चलता रहा। छठे दिन धन्ना बोला-ठाकुरजी, चटनी रोटी खाते क्यों नहीं शर्माते हो ? आप कहो तो मैं आंखें मूंद लूँ  फिर खा लो। ठाकुरजी ने फिर भी भोग नहीं लगाया। धन्ना भी भूखा-प्यासा था। सातवें दिन धन्ना जट बुद्धि पर उतर आया। फूट-फूट कर रोने लगा एवं कहने लगा कि, सुना था आप दीन-दयालु हो, पर आप भी गरीब की कहां सुनते हो, मेरा रखा यह टिककड एवं चटनी आकर नहीं खाते हो तो मत खाओ। अब मुझे भी नहीं जीना है, इतना कह उसने सिलबट्टा उठाया और सिर फोडने को तैयार हुआ, अचानक सिलबट्टे से एक प्रकाश पुंज प्रकट हुआ एवं धन्ना का हाथ पकड कहा – ‘देख धन्ना ! मैं तेरा चटनी टिकडा खा रहा हूं।” ठाकुरजी बाजरे का टिक्कड एवं मिर्च की चटनी मजे से खा रहे थे। जब आधा टिक्कड खा लिया, तो धन्ना बोला- “क्या ठाकुरजी ! मेरा पूरा टिक्कड खा जाओगे ? मैं भी छह दिन से भूखा प्यासा हूं। आधा टिक्कड तो मेरे लिए भी रखो।”  ठाकुरजी ने कहा – “तुम्हारी चटनी रोटी बडी मीठी लग रही है तू दूसरी खा लेना।” धन्ना ने कहा – “प्रभु ! मां मुझे एक ही रोटी देती है। यदि मैं दूसरी लूंगा तो मां भूखी रह जाएगी।” प्रभु ने कहा- ‘फिर ज्यादा क्यों नहीं बनाता।” धन्ना ने कहा – “खेत छोटा सा है और मैं अकेला।” ठाकुरजी ने कहा – और खेत जोत ले। धन्ना बोला- “प्रभु ! मेरे पास बैल थोडे ही हैं, मैं तो खुद जुतता हूँ।” ठाकुरजी ने कहा – “नौकर रख ले।” धन्ना ने कहा-“प्रभु ! आप तो मेरी मजाक उडा रहे हो। नौकर रखने की हैसियत हो तो दो वक्त रोटी ही न खा लें हम मां-बेटे। इस पर ठाकुरजी ने कहा – चिन्ता मत कर मैं तेरी सहायता करूँगा।          कहते है तबसे ठाकुरजी ने धन्ना का साथी बनकर उसकी सहायता करनी शुरू की। धन्ना के साथ खेत में कामकाज कर उसे अच्छी जमीन एवं बैलों की जोडी दिलवा दी। कुछ अर्से बाद घर में गाय भी आ गई। मकान भी पक्का बन गया। सवारी के लिए घोडा आ गया। धन्ना एक अच्छा खासा जमींदार बन गया।        कई साल बाद पंडितजी पुनः धन्ना के गांव भागवत कथा करने आए। धन्ना भी उनके दर्शन को गया। प्रणाम कर बोला- “पंडितजी ! आप जो ठाकुरजी देकर गए थे वे छह दिन तो भूखे प्यासे रहे एवं मुझे भी भूखा प्यासा रखा। सातवें दिन उन्होंने भूख के मारे परेशान होकर मुझ गरीब की रोटी खा ही ली। उनकी इतनी कृपा है कि खेत में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर काम में मदद करते है। अब तो घर में गाय भी है। सात दिन का घी-दूध का ‘सीधा‘ यानी बंदी का घी- दूध मैं ही भेजूंगा।”          पंडितजी ने सोचा मूर्ख आदमी है। मैं तो भांग घोटने का सिलबट्टा देकर गया था। गांव में पूछने पर लोगों ने बताया कि चमत्कार तो हुआ है। धन्ना अब वह गरीब नहीं रहा। जमींदार बन गया है। दूसरे दिन पंडितजी ने धन्ना से कहा- कल कथा सुनने आओ तो अपने साथ अपने उस साथी को ले कर आना जो तुम्हारे साथ खेत में काम करता है। घर आकर धन्ना ने प्रभु से निवेदन किया कि कथा में चलो तो प्रभु ने कहा – “मैं नहीं चलता तुम जाओ।”  धन्ना बोला – “तब क्या उन पंडितजी को आपसे मिलाने घर ले आऊँ। प्रभु ने कहा – “बिल्कुल नहीं। मैं झूठी कथा कहने वालों से नहीं मिलता। जो मुझसे सच्चा प्रेम करता है और जो अपना काम मेरी पूजा समझ करता है मैं उसी के साथ रहता हूं।” सत्य ही कहा गया है। “भक्त के वश में हैं भगवान्”

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