निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि।।

।। नमो #राघवाय ।।

नारदजी के वचन स्मरण करके किशोरीजी के मन में पवित्र प्रेम जाग्रत हो गया।

सुमिरि सिय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत।।

किशोरीजी के रूप-लावण्य से अभिभूत श्रीराम उनकी सराहना करते हैं-

सुंदरता कहुँ सुंदर करई।
छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई।।

सब उपमा कबि रहे जुठारी।
केहि पटतरौं बिदेहकुमारी।।

किशोरीजी के नेत्र मृगशावक की तरह चंचल ही नहीं, सभीत भी हैं।

देखि रूप लोचन ललचाने।
हरषे जनु निज निधि पहिचाने।।

थके नयन रघुपति छबि देखें।
पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें।।

अधिक सनेह देह भै भोरी।
सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।।

किशोरीजी अनन्य अनुराग में डूब जाती हैं, नेत्रमार्ग से उन्हें हृदय में स्थित करके पलकों को बंद कर लेती हैं-

लोचन मग रामहि उर आनी।
दीन्हे पलक कपाट सयानी।।

गौरीपूजन को जाते हुए मुड-मुडकर श्याम-सलोने को बार-बार निहारती हैं-

देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि।।

धनुष टूटने पर किशोरीजी की प्रसन्नता के लिये गोस्वामीजी ने दुर्लभ उपमान प्रस्तुत किया-

सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती।
जनु चातकी पाइ जलु स्वाती।।

तन सकोचु मन परम उछाहू।
गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू।।

विवाहमण्डप में जानकीजी तथा साँवरे-सलोने कुअँर श्रीराम जी की छवि का अंकन गोस्वामीजी नहीं कर पाते। कवि की कल्पना और लेखनी ठहर-सी जाती है-

सिय राम अबलोकनि परसपर प्रेमु काहु न लखि परै।
मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसे करै।।

वनगमन के पूर्व जानकीजी की चिन्ता स्वाभाविक है-

चलन चाहत बन जीवननाथू।
केहि सुकृती सन होइहि साथू।।

की तनु प्रान कि केवल प्राना।
बिधि करतबु कछु जाइ न जाना।।

श्रीराम उन्हें वन के कष्ट को समझाते हुए कहते हैं-

‘हंसगवनी तुम्ह नहिं बन जोगू’

जिसके उत्तर में सीताजी का सटीक उत्तर श्रीराम को निरुत्तर कर देता है-

मैं पुनि समुझि दीख मन माहीं।
पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं।।

प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान।।

जहँ लगि नाथ देह अरु नाते।
पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।।

तनु धनु धामु धरनि पुर राजू।
पति बिहीन सबु सोक समाजू।।

पति की अनुपस्थिति में भोग- रोग के समान, गहने भारस्वरूप और संसार नरक की पीड़ा के समान है। पुरुष के बिना नारी जलविहीन सरिता के समान है-

जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।
तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी।।

नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे।
सरद बिमल बिधु बदनु निहारे।।

श्रीराम उन्हें अपने संग ले जाने में हिचक रहे हैं; किंतु वन के कठोर क्लेशों और कुटुम्ब के साथ रहने के नाना प्रलोभनों को सुनकर भी सीता अपने निश्चय पर अडिग रहती हैं।

अध्यात्मरामायण- २ / ४ / ७८ – ७९ के अनुसार सीताजी ने स्पष्ट कह दिया-

अतस्त्वया गमिष्यामि सर्वथा त्वत्सहायिनी।।
यदि गच्छसि मां त्यक्त्वा प्राणांस्त्यक्षामि तेऽग्रतः।

यदि आप मुझे छोड़कर जाते हैं तो मैं अभी आपके सामने ही अपने प्राणों का त्याग करूँगी-

ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न हृदय बिलगान।
तौ प्रभु बिषम बियोग दुःख सहिहहिं पाँवर प्रान।।

अन्ततः सीताजी की प्रेम की विजय हुई। वे प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं। उन्हें श्रीराम से अलग रखने की कल्पना ही व्यर्थ है।

।। जय भगवान श्री सीताराम ।।

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