बुरे काममें देर करनी चाहिये

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महर्षि गौतमके एक पुत्रका नाम था चिरकारी वे बुद्धिमान थे, कार्यकुशल थे, किंतु प्रत्येक कार्यको बहुत सोच-विचार करनेके पश्चात् करते थे। उनका स्वभाव ही धीरे-धीरे कार्य करनेका हो गया था जबतक किसी कार्यकी आवश्यकता और औचित्य उनकी समझमें नहीं आ जाता था तबतक वे कार्य प्रारम्भ ही नहीं करते थे। केवल उस कार्यके सम्बन्धमें विचार करते रहते थे। बहुत से लोग उनको इस स्वभावके कारण आलसी समझते थे।

एक बार महर्षि गौतम किसी कारणसे अपनी पत्नीसे रुष्ट हो गये। क्रोधमें आकर उन्होंने चिरकारीको आज्ञा दी- ‘बेटा! अपनी इस दुष्टा माताको मार डालो।’ यह आज्ञा देकर महर्षि वनमें चले गये।अपने स्वभावके अनुसार चिरकारीने विचार करना प्रारम्भ किया- ‘मुझे क्या करना चाहिये। पिताकी आज्ञाका पालन करनेपर माताका वध करना पड़ेगा और माताका वध न करनेपर पिताकी आज्ञाका उल्लङ्घन होगा । पुत्रके लिये पिता और माता दोनों पूज्य हैं। दोनोंमेंसे किसीकी भी अवज्ञा करनेसे पुत्र पापका भागी होता है। कोई भी माताका नाश करके सुखी नहीं हो सकता । पिताकी आज्ञा टालकर भी सुख और कीर्ति नहीं मिल सकती। मेरी मातामें कोई दोष है या नहीं, यह सोचना मेरे लिये अधर्म है। इसी प्रकार पिताकी आज्ञा भी उचित है या नहीं, यह सोचना मेरे अधिकारमें नहीं।’ चिरकारी तो ठहरे ही चिरकारी । वे चुपचाप हाथमें
शस्त्र लेकर बैठे रहे और सोचते रहे। किसी भीनिश्चयपर उनकी बुद्धि पहुँचती नहीं थी और बुद्धिके ठीक-ठीक निर्णय किये बिना कोई काम करना उनके स्वभावमें नहीं था।

उधर वनमें जानेपर जब महर्षि गौतमका क्रोध शान्त हुआ तब उन्हें अपनी भूल ज्ञात हुई। वे बहुत दुखी होकर सोचने लगे-‘मैंने आज कितना बड़ा अनर्थ किया। अवश्य मुझे स्त्री-वधका पाप लगेगा । मेरी पत्नी तो निर्दोष है। क्रोधमें आकर मैंने बिना विचारे ही उसको मार डालनेका आदेश दे दिया। कितना अच्छा हो कि चिरकारी अपने नामको आज सार्थक करे।’

महर्षि शीघ्रतापूर्वक आश्रमकी ओर लौटे। उनकोआते देखकर चिरकारीने लज्जासे शस्त्र छिपा दिया और उठकर पिताके चरणोंमें प्रणाम किया। महर्षिने अपने पुत्रको उठाकर हृदयसे लगा लिया और सब वृत्तान्त जानकर प्रसन्न हृदयसे उसको आशीर्वाद दिया। वे चिरकारीको उपदेश देते हुए बोले- ‘हितैषीका वध और कार्यका परित्याग बहुत सोच-समझकर करना चाहिये। किसीसे मित्रता करनी हो तो सोच-विचारकर करनी चाहिये। क्रोध, अभिमान, किसीका अनिष्ट, अप्रिय तथा पापकर्म करनेमें अधिक-से-अधिक विलम्ब करना चाहिये। किसीके भी अपराध करनेपर उसे शीघ्र दण्ड नहीं देना चाहिये। बहुत सोच-समझकर दण्ड देना चाहिये।’ – सु0 सिं0 (महाभारत, शान्ति0 266 )

महर्षि गौतमके एक पुत्रका नाम था चिरकारी वे बुद्धिमान थे, कार्यकुशल थे, किंतु प्रत्येक कार्यको बहुत सोच-विचार करनेके पश्चात् करते थे। उनका स्वभाव ही धीरे-धीरे कार्य करनेका हो गया था जबतक किसी कार्यकी आवश्यकता और औचित्य उनकी समझमें नहीं आ जाता था तबतक वे कार्य प्रारम्भ ही नहीं करते थे। केवल उस कार्यके सम्बन्धमें विचार करते रहते थे। बहुत से लोग उनको इस स्वभावके कारण आलसी समझते थे।
एक बार महर्षि गौतम किसी कारणसे अपनी पत्नीसे रुष्ट हो गये। क्रोधमें आकर उन्होंने चिरकारीको आज्ञा दी- ‘बेटा! अपनी इस दुष्टा माताको मार डालो।’ यह आज्ञा देकर महर्षि वनमें चले गये।अपने स्वभावके अनुसार चिरकारीने विचार करना प्रारम्भ किया- ‘मुझे क्या करना चाहिये। पिताकी आज्ञाका पालन करनेपर माताका वध करना पड़ेगा और माताका वध न करनेपर पिताकी आज्ञाका उल्लङ्घन होगा । पुत्रके लिये पिता और माता दोनों पूज्य हैं। दोनोंमेंसे किसीकी भी अवज्ञा करनेसे पुत्र पापका भागी होता है। कोई भी माताका नाश करके सुखी नहीं हो सकता । पिताकी आज्ञा टालकर भी सुख और कीर्ति नहीं मिल सकती। मेरी मातामें कोई दोष है या नहीं, यह सोचना मेरे लिये अधर्म है। इसी प्रकार पिताकी आज्ञा भी उचित है या नहीं, यह सोचना मेरे अधिकारमें नहीं।’ चिरकारी तो ठहरे ही चिरकारी । वे चुपचाप हाथमें
शस्त्र लेकर बैठे रहे और सोचते रहे। किसी भीनिश्चयपर उनकी बुद्धि पहुँचती नहीं थी और बुद्धिके ठीक-ठीक निर्णय किये बिना कोई काम करना उनके स्वभावमें नहीं था।
उधर वनमें जानेपर जब महर्षि गौतमका क्रोध शान्त हुआ तब उन्हें अपनी भूल ज्ञात हुई। वे बहुत दुखी होकर सोचने लगे-‘मैंने आज कितना बड़ा अनर्थ किया। अवश्य मुझे स्त्री-वधका पाप लगेगा । मेरी पत्नी तो निर्दोष है। क्रोधमें आकर मैंने बिना विचारे ही उसको मार डालनेका आदेश दे दिया। कितना अच्छा हो कि चिरकारी अपने नामको आज सार्थक करे।’
महर्षि शीघ्रतापूर्वक आश्रमकी ओर लौटे। उनकोआते देखकर चिरकारीने लज्जासे शस्त्र छिपा दिया और उठकर पिताके चरणोंमें प्रणाम किया। महर्षिने अपने पुत्रको उठाकर हृदयसे लगा लिया और सब वृत्तान्त जानकर प्रसन्न हृदयसे उसको आशीर्वाद दिया। वे चिरकारीको उपदेश देते हुए बोले- ‘हितैषीका वध और कार्यका परित्याग बहुत सोच-समझकर करना चाहिये। किसीसे मित्रता करनी हो तो सोच-विचारकर करनी चाहिये। क्रोध, अभिमान, किसीका अनिष्ट, अप्रिय तथा पापकर्म करनेमें अधिक-से-अधिक विलम्ब करना चाहिये। किसीके भी अपराध करनेपर उसे शीघ्र दण्ड नहीं देना चाहिये। बहुत सोच-समझकर दण्ड देना चाहिये।’ – सु0 सिं0 (महाभारत, शान्ति0 266 )

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