एक बार मुनियोंमें परस्पर इस विषयपर बड़ा विवाद हुआ कि ‘किस समय थोड़ा-सा भी पुण्य अत्यधिक फलदायक होता है तथा कौन उसका सुविधापूर्वक अनुष्ठान कर सकता है ?’ अन्तमें वे इस संदेहके निवारण के लिये महामुनि व्यासजी के पास गये। उस समय दैववशात् वे गङ्गाजी खान कर रहे थे। प्यों ही ऋषिगण वहाँ पहुँचे, व्यासजी डुबकी लगाकर ऊपर उठे और ऋषियों को सुनाकर जोरसे बोले-‘कलियुगही श्रेष्ठ है, कलियुग ही श्रेष्ठ है।’ यह कहकर वे पुनः जलमग्न हो गये। थोड़ी देर बाद जब वे जलसे पुनः | बाहर निकले, तब ‘शूद्र ही धन्य है, शूद्र ही धन्य है’ यों कहकर फिर डुबकी लगा ली। इस बार जब वे जलसे बाहर आये, तब – ‘स्त्रियाँ ही धन्य हैं, स्त्रियाँ ही | साधु हैं; उनसे अधिक धन्य कौन है ?’ यह वाक्य बोल गये और नियमानुसार ध्यानादि नित्यकर्ममें लग गये। तदनन्तर जब वे ध्यानादिसे निवृत्त हुए, तब वेमुनिजन उनके पास आये। वहाँ जब वे अभिवादनादिके बाद शान्त होकर बैठ गये, तब सत्यवतीनन्दन व्यासदेवने उनके शुभागमनका कारण पूछा। ऋषियोंने कहा- “हमें आप पहले यह बताइये कि आपने जो ‘कलियुग ही श्रेष्ठ हैं, शूद्र ही धन्य हैं, स्त्रियाँ ही धन्य हैं’ यह कहा इसका आशय क्या है? यदि कोई आपत्ति न हो तो पहले यही बतलानेका कष्ट करें। तदनन्तर हमलोग अपने आनेका कारण कहेंगे।”
व्यासदेवजी बोले- ‘ऋषियो ! जो फल सत्ययुगमें दस वर्ष तप, ब्रह्मचर्य और धर्माचरण करनेसे प्राप्त होता है, वही त्रेतामें एक वर्ष, द्वापरमें एक मास तथा कलियुगमें केवल एक दिनमें प्राप्त होता है। * इसी कारण मैंने कलियुगको श्रेष्ठ कहा है। जो फल सत्ययुगमें योग, त्रेतामें यज्ञ और द्वापरमें पूजा करनेसे प्राप्त होता है, वही फल कलियुगमें केशवका नाम कीर्तन करनेमात्र से मिल जाता है। ऋषियो ! कलियुगमें अत्यल्प श्रम, अत्यल्प कालमें अत्यधिक पुण्यकी प्राप्ति हो जाती है, इसीलिये मैंने कलियुगको श्रेष्ठ कहा है।’
“इसी प्रकार द्विजातियोंको उपनयनपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता है। तत्तद्धर्मो के अनुष्ठानमें बड़ा श्रम और शक्तिका व्यय होता है। इस प्रकार बड़े क्लेशसे उन्हें पुण्योंकी प्राप्ति होती है; पर शूद्र तो केवल द्विजोंको सेवासे ही प्रसन्नकर अनायास वे पुण्य प्राप्त कर लेता है। और स्त्रियोंको भी ये पुण्य केवल मन, वचन, कर्मसे अपने पतिकीसेवा करनेसे ही उपलब्ध हो जाते हैं, इसीलिये मैंने ‘शूद्र ही धन्य हैं, स्त्रियाँ ही साधु हैं; इनसे धन्य और कौन है!’ ये शब्द कहे थे। अस्तु, अब कृपया आपलोग यह बतलायें कि आपके आनेका कौन-सा शुभ कारण है ?”
ऋषियोंने कहा – ‘महामुने! हमलोग जिस प्रयोजनसे आये थे, वह कार्य हो गया। हमलोगों में यही विवाद छिड़ गया था कि अल्पकालमें कब अधिक पुण्य अर्जित किया जा सकता है तथा उसे कौन सम्पादित कर सकता है। वह आपके इस स्पष्टीकरणसे समाप्त तथा निर्णीत हो चुका।’
व्यासदेवने कहा- ‘ऋषियो! मैंने ध्यानसे आपके आनेकी बात जान ली थी तथा आपके हृद्गत भावोंको भी जान गया था। अतएव मैंने उपर्युक्त बातें कहीं और आपलोगोंको भी साधु-साधु कहा था। वास्तवमें जिन पुरुषोंने गुणरूप जलसे अपने सारे दोष धो डाले हैं, उनके थोड़े-से ही प्रयत्नसे कलियुगमें धर्म सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार शूद्रोंको द्विजसेवा तथा स्त्रियोंको पतिसेवासे अनायास ही महान् धर्मकी सिद्धि, विशाल पुण्यराशिकी प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार आपलोगोंकी अभीष्ट वस्तु मैंने बिना पूछे ही बतला दी थी।’
तदनन्तर उन्होंने व्यासजीका पूजन करके उनकी बार-बार प्रशंसा की और वे जैसे आये थे, वैसे ही अपने-अपने स्थानको लौट गये।
एक बार मुनियोंमें परस्पर इस विषयपर बड़ा विवाद हुआ कि ‘किस समय थोड़ा-सा भी पुण्य अत्यधिक फलदायक होता है तथा कौन उसका सुविधापूर्वक अनुष्ठान कर सकता है ?’ अन्तमें वे इस संदेहके निवारण के लिये महामुनि व्यासजी के पास गये। उस समय दैववशात् वे गङ्गाजी खान कर रहे थे। प्यों ही ऋषिगण वहाँ पहुँचे, व्यासजी डुबकी लगाकर ऊपर उठे और ऋषियों को सुनाकर जोरसे बोले-‘कलियुगही श्रेष्ठ है, कलियुग ही श्रेष्ठ है।’ यह कहकर वे पुनः जलमग्न हो गये। थोड़ी देर बाद जब वे जलसे पुनः | बाहर निकले, तब ‘शूद्र ही धन्य है, शूद्र ही धन्य है’ यों कहकर फिर डुबकी लगा ली। इस बार जब वे जलसे बाहर आये, तब – ‘स्त्रियाँ ही धन्य हैं, स्त्रियाँ ही | साधु हैं; उनसे अधिक धन्य कौन है ?’ यह वाक्य बोल गये और नियमानुसार ध्यानादि नित्यकर्ममें लग गये। तदनन्तर जब वे ध्यानादिसे निवृत्त हुए, तब वेमुनिजन उनके पास आये। वहाँ जब वे अभिवादनादिके बाद शान्त होकर बैठ गये, तब सत्यवतीनन्दन व्यासदेवने उनके शुभागमनका कारण पूछा। ऋषियोंने कहा- “हमें आप पहले यह बताइये कि आपने जो ‘कलियुग ही श्रेष्ठ हैं, शूद्र ही धन्य हैं, स्त्रियाँ ही धन्य हैं’ यह कहा इसका आशय क्या है? यदि कोई आपत्ति न हो तो पहले यही बतलानेका कष्ट करें। तदनन्तर हमलोग अपने आनेका कारण कहेंगे।”
व्यासदेवजी बोले- ‘ऋषियो ! जो फल सत्ययुगमें दस वर्ष तप, ब्रह्मचर्य और धर्माचरण करनेसे प्राप्त होता है, वही त्रेतामें एक वर्ष, द्वापरमें एक मास तथा कलियुगमें केवल एक दिनमें प्राप्त होता है। * इसी कारण मैंने कलियुगको श्रेष्ठ कहा है। जो फल सत्ययुगमें योग, त्रेतामें यज्ञ और द्वापरमें पूजा करनेसे प्राप्त होता है, वही फल कलियुगमें केशवका नाम कीर्तन करनेमात्र से मिल जाता है। ऋषियो ! कलियुगमें अत्यल्प श्रम, अत्यल्प कालमें अत्यधिक पुण्यकी प्राप्ति हो जाती है, इसीलिये मैंने कलियुगको श्रेष्ठ कहा है।’
“इसी प्रकार द्विजातियोंको उपनयनपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता है। तत्तद्धर्मो के अनुष्ठानमें बड़ा श्रम और शक्तिका व्यय होता है। इस प्रकार बड़े क्लेशसे उन्हें पुण्योंकी प्राप्ति होती है; पर शूद्र तो केवल द्विजोंको सेवासे ही प्रसन्नकर अनायास वे पुण्य प्राप्त कर लेता है। और स्त्रियोंको भी ये पुण्य केवल मन, वचन, कर्मसे अपने पतिकीसेवा करनेसे ही उपलब्ध हो जाते हैं, इसीलिये मैंने ‘शूद्र ही धन्य हैं, स्त्रियाँ ही साधु हैं; इनसे धन्य और कौन है!’ ये शब्द कहे थे। अस्तु, अब कृपया आपलोग यह बतलायें कि आपके आनेका कौन-सा शुभ कारण है ?”
ऋषियोंने कहा – ‘महामुने! हमलोग जिस प्रयोजनसे आये थे, वह कार्य हो गया। हमलोगों में यही विवाद छिड़ गया था कि अल्पकालमें कब अधिक पुण्य अर्जित किया जा सकता है तथा उसे कौन सम्पादित कर सकता है। वह आपके इस स्पष्टीकरणसे समाप्त तथा निर्णीत हो चुका।’
व्यासदेवने कहा- ‘ऋषियो! मैंने ध्यानसे आपके आनेकी बात जान ली थी तथा आपके हृद्गत भावोंको भी जान गया था। अतएव मैंने उपर्युक्त बातें कहीं और आपलोगोंको भी साधु-साधु कहा था। वास्तवमें जिन पुरुषोंने गुणरूप जलसे अपने सारे दोष धो डाले हैं, उनके थोड़े-से ही प्रयत्नसे कलियुगमें धर्म सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार शूद्रोंको द्विजसेवा तथा स्त्रियोंको पतिसेवासे अनायास ही महान् धर्मकी सिद्धि, विशाल पुण्यराशिकी प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार आपलोगोंकी अभीष्ट वस्तु मैंने बिना पूछे ही बतला दी थी।’
तदनन्तर उन्होंने व्यासजीका पूजन करके उनकी बार-बार प्रशंसा की और वे जैसे आये थे, वैसे ही अपने-अपने स्थानको लौट गये।