सं0 701 की बात है। मकरान (बलूचिस्तान) – में राजा सहसराय राज्य करते थे। ये भारतीय शूद्र थे – तथा बौद्धमतके अनुयायी थे। इनके पुत्र सुबल एवं प्रबलराय बड़े ही उत्साही तथा साहसी थे। एक बार छाछ नामक ब्राह्मणने इनपर आक्रमण किया और इनका राज्य छीन लिया। सहसराय तो लड़ाईमें काम आये, पर दोनों राजकुमार महलसे निकलकर भारतकी ओर चले। प्रबलरायको एक साधुकी दयासे अक्रीफ़ नामका एक बहुमूल्य रत्न प्राप्त हो गया और वह गुरौलमें गढ़ बनाकर राज्य करने लगा।
इधर सुबलरायने चम्पारण्य (चम्पारन ) – में प्रवेश किया। उसे सुदूर वनमें एक ज्योति दीख पड़ी। उसकी ओर वे बढ़ते गये। अन्तमें देखा कि वह ज्योति और कुछ नहीं, एक कुमारीके ताटङ्ककी आभामात्र थी। वह कुमारी एक डाकूकी कन्या थी, जिसका नाम था जीरादेई। वह सुबलरायपर मुग्ध हो गयी।
जब डाकू लौटकर आया, तब बड़ी कठिनतासे उसने जीरादेईका प्रस्ताव स्वीकार किया। राजकुमारसे बातें करते हुए उसने बतलाया कि ‘जीरादेई भारतीय नरेश रतिबलरायकी पुत्री है। उसके ईरानविजयके समय मैं उस राजाके पास ही था। वह मुझे बहुत मानता था। पर इस कन्याके लिये मैंने उसके साथ विश्वासघात किया और इसे ले भागा। तत्पश्चात् इस जंगलमें आश्रय लिया। जब यह कन्या बड़ी हुई, तब मैंने इसके योग्य | वर खोजनेके लिये अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग-सभी देशोंको छान डाला; पर कहीं सफलता न मिली। पर आज तुम्हारे यहाँ आ जानेसे वह मेरी कामना स्वयमेव पूरी हो गयी।’
अन्तमें उसने कन्याके पिता रतिबलरायको भी | बुलाया। उन्होंने आकर अपने हाथों कन्यादान किया। तत्पश्चात् वहीं एक गढ़ बनाकर जीरादेईके साथ सुबलरायने शासन आरम्भ किया; गढ़का नाम उसने सुरौल रखा। दोनों पति-पत्नी बड़े धर्मात्मा एवं सात्तिक थे । तथापि उनसे एक अपराध बन गया जिससे पाँच वर्षतक वहाँ अनावृष्टिका कुचक्र चल पड़ा। इस बोर अकालसे प्रजाका त्राण करनेके लिये राजा सुवलराव तथा जीरादेई तन- मनसे प्रजाकी सेवामें लग गये। सारा राज्य-कोष समाप्त हो गया। अब राजदम्पति शरीर त्याग | करनेपर तुल गये। तब राज्यके धनाढ्य लोगोंने आकर । स्थिति सँभालनेका आश्वासन दिया। फिर वृष्टि भी हुई। प्रजाका कष्ट भी दूर हो गया। पर सुबलरायकी अवस्था नहीं सुधरी। वे इस आघातको सहन न कर सके और अन्तमें उनका शरीर छूट गया। रानी जीरादेई भी उनके साथ सती हो गयीं। चितापर उनके अञ्चलसे अपने आप अग्रिकी लपट निकल पड़ी। रानी जीरादेई जहाँ सती हुई थीं, उस ग्रामका नाम जीरादेई पड़ गया। अब भी उसका यही नाम है। सुरौल भी, जिसे अब सुरवल कहते हैं, पासमें ही है। जीरादेई पूर्वोत्तर रेलवेके भाटपोखर स्टेशनसे दो मील दक्षिण है। भारतसङ्घके अद्यतन अध्यक्ष देशरत्न डॉ0 राजेन्द्रप्रसाद की जन्मभूमि होनेका सौभाग्य इसी ग्रामको प्राप्त है
सं0 701 की बात है। मकरान (बलूचिस्तान) – में राजा सहसराय राज्य करते थे। ये भारतीय शूद्र थे – तथा बौद्धमतके अनुयायी थे। इनके पुत्र सुबल एवं प्रबलराय बड़े ही उत्साही तथा साहसी थे। एक बार छाछ नामक ब्राह्मणने इनपर आक्रमण किया और इनका राज्य छीन लिया। सहसराय तो लड़ाईमें काम आये, पर दोनों राजकुमार महलसे निकलकर भारतकी ओर चले। प्रबलरायको एक साधुकी दयासे अक्रीफ़ नामका एक बहुमूल्य रत्न प्राप्त हो गया और वह गुरौलमें गढ़ बनाकर राज्य करने लगा।
इधर सुबलरायने चम्पारण्य (चम्पारन ) – में प्रवेश किया। उसे सुदूर वनमें एक ज्योति दीख पड़ी। उसकी ओर वे बढ़ते गये। अन्तमें देखा कि वह ज्योति और कुछ नहीं, एक कुमारीके ताटङ्ककी आभामात्र थी। वह कुमारी एक डाकूकी कन्या थी, जिसका नाम था जीरादेई। वह सुबलरायपर मुग्ध हो गयी।
जब डाकू लौटकर आया, तब बड़ी कठिनतासे उसने जीरादेईका प्रस्ताव स्वीकार किया। राजकुमारसे बातें करते हुए उसने बतलाया कि ‘जीरादेई भारतीय नरेश रतिबलरायकी पुत्री है। उसके ईरानविजयके समय मैं उस राजाके पास ही था। वह मुझे बहुत मानता था। पर इस कन्याके लिये मैंने उसके साथ विश्वासघात किया और इसे ले भागा। तत्पश्चात् इस जंगलमें आश्रय लिया। जब यह कन्या बड़ी हुई, तब मैंने इसके योग्य | वर खोजनेके लिये अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग-सभी देशोंको छान डाला; पर कहीं सफलता न मिली। पर आज तुम्हारे यहाँ आ जानेसे वह मेरी कामना स्वयमेव पूरी हो गयी।’
अन्तमें उसने कन्याके पिता रतिबलरायको भी | बुलाया। उन्होंने आकर अपने हाथों कन्यादान किया। तत्पश्चात् वहीं एक गढ़ बनाकर जीरादेईके साथ सुबलरायने शासन आरम्भ किया; गढ़का नाम उसने सुरौल रखा। दोनों पति-पत्नी बड़े धर्मात्मा एवं सात्तिक थे । तथापि उनसे एक अपराध बन गया जिससे पाँच वर्षतक वहाँ अनावृष्टिका कुचक्र चल पड़ा। इस बोर अकालसे प्रजाका त्राण करनेके लिये राजा सुवलराव तथा जीरादेई तन- मनसे प्रजाकी सेवामें लग गये। सारा राज्य-कोष समाप्त हो गया। अब राजदम्पति शरीर त्याग | करनेपर तुल गये। तब राज्यके धनाढ्य लोगोंने आकर । स्थिति सँभालनेका आश्वासन दिया। फिर वृष्टि भी हुई। प्रजाका कष्ट भी दूर हो गया। पर सुबलरायकी अवस्था नहीं सुधरी। वे इस आघातको सहन न कर सके और अन्तमें उनका शरीर छूट गया। रानी जीरादेई भी उनके साथ सती हो गयीं। चितापर उनके अञ्चलसे अपने आप अग्रिकी लपट निकल पड़ी। रानी जीरादेई जहाँ सती हुई थीं, उस ग्रामका नाम जीरादेई पड़ गया। अब भी उसका यही नाम है। सुरौल भी, जिसे अब सुरवल कहते हैं, पासमें ही है। जीरादेई पूर्वोत्तर रेलवेके भाटपोखर स्टेशनसे दो मील दक्षिण है। भारतसङ्घके अद्यतन अध्यक्ष देशरत्न डॉ0 राजेन्द्रप्रसाद की जन्मभूमि होनेका सौभाग्य इसी ग्रामको प्राप्त है