महर्षि जरत्कारुने पितरोंकी आज्ञासे वंशपरम्परा चलानेके लिये विवाह करना भी स्वीकार किया तो इस नियमके साथ कि वे तभी विवाह करेंगे जब उनके ही नामवाली कन्याको कन्याके अभिभावक उन्हें भिक्षाकी भाँति अर्पित करें। परंतु भाग्यका विधान सफल होकर ही रहता है। नागराज वासुकिकी बहिनका नाम भी जरत्कारु था और उसे लाकर स्वयं वासुकिने ऋषिको अर्पित किया।
ऋषिने वासुकिसे कहा अपनी बहिन और उससे उत्पन्न होनेवाली संतानका भरण-पोषण तुम्हें ही करना पड़ेगा। मैं तभीतक इसके साथ रहूँगा, जबतक यह मेरी आज्ञा मानेगी और मेरे किसी काममें विन नहीं डालेगी। मेरे किसी कार्यमें इसके द्वारा बाधा पड़ी तो मैं इसे छोड़कर चला जाऊँगा तुम्हें यह सब स्वीकार हो तभी मैं इसे पत्नी बनाऊँगा।’
ब्रह्माजीने वासुकि नागको बतलाया था कि राजाजनमेजय आगे सर्पयज्ञ करेंगे। उस सर्पयज्ञसे वासुकि तथा अन्य धर्मात्मा नागोंकी रक्षा ऋषि जरत्कारुका औरस पुत्र ही कर सकेगा। इसलिये ऋषिकी सब बातें वासुकिने स्वीकार कर लीं।
जरत्कारु ऋषि पत्नीके साथ नागलोकमें आनन्दपूर्वक रहने लगे। उनकी पत्नी बड़ी सावधानीसे ऋषिकी सेवामें तत्पर रहने लगीं। वे अपने तेजस्वी पतिकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करतीं और उन्हें संतुष्ट रखनेका पूरा ध्यान रखतीं ।
एक दिन संध्याके समय दिनभरकी उपासना एवं तपस्यासे थके ऋषि पत्नीकी गोदमें मस्तक रखकर सो रहे थे। सूर्यास्तका समय हो गया। ऋषिपत्नी चिन्तित होकर सोचने लगीं—’यदि मैं इन्हें जगाती हूँ तो ये क्रोध करके मुझे त्यागकर चले जायँगे और यदि नहीं जगाती हूँ तो सूर्यास्त हो जायगा, सायंकालकी संध्याका समय बीत जानेसे इनका धर्म नष्ट होगा।’उस पतिव्रताने अन्तमें निश्चय किया- ‘मुझे अपने स्वार्थका त्याग करना चाहिये। भले क्रोध करके पतिदेव मुझे त्याग दें; किंतु उनका धर्म सुरक्षित रहना चाहिये।’ उसने नम्रतापूर्वक कहा – ‘देव! सूर्यनारायण अस्ताचलपर जा रहे हैं। उठिये! संध्या-वन्दन कीजिये। आपके अग्रिहोत्रका समय हो गया है।’ ऋषि उठे। क्रोधसे उनके नेत्र लाल हो गये, होंठ फड़कने लगे। वे बोले ‘नागकन्या! तूने मेरा अपमान किया है, अब अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार मैं तेरे पास नहीं रह सकता। मैंनेनियमपूर्वक सदा सूर्यको समयपर अर्घ्य दिया है, अतः मेरे उठकर अर्घ्य देनेतक वे अस्त हो नहीं सकते थे। किसी नियमनिष्ठकी निष्ठाका लोप करनेकी शक्ति किसी देवता या लोकपालमें नहीं होती।’
ऋषि चले गये। वे नित्य विरक्त – उन्हें तो एक बहाना चाहिये था गृहस्थीसे छुटकारा पानेके लिये नागकन्या जरत्कारु उस समय गर्भवती थीं। उनके गर्भसे नागोंको जनमेजयके सर्पयज्ञसे बचानेवाले आस्तीक मुनि उत्पन्न हुए।- सु0 सिं0 (महाभारत, आदि0 47 )
महर्षि जरत्कारुने पितरोंकी आज्ञासे वंशपरम्परा चलानेके लिये विवाह करना भी स्वीकार किया तो इस नियमके साथ कि वे तभी विवाह करेंगे जब उनके ही नामवाली कन्याको कन्याके अभिभावक उन्हें भिक्षाकी भाँति अर्पित करें। परंतु भाग्यका विधान सफल होकर ही रहता है। नागराज वासुकिकी बहिनका नाम भी जरत्कारु था और उसे लाकर स्वयं वासुकिने ऋषिको अर्पित किया।
ऋषिने वासुकिसे कहा अपनी बहिन और उससे उत्पन्न होनेवाली संतानका भरण-पोषण तुम्हें ही करना पड़ेगा। मैं तभीतक इसके साथ रहूँगा, जबतक यह मेरी आज्ञा मानेगी और मेरे किसी काममें विन नहीं डालेगी। मेरे किसी कार्यमें इसके द्वारा बाधा पड़ी तो मैं इसे छोड़कर चला जाऊँगा तुम्हें यह सब स्वीकार हो तभी मैं इसे पत्नी बनाऊँगा।’
ब्रह्माजीने वासुकि नागको बतलाया था कि राजाजनमेजय आगे सर्पयज्ञ करेंगे। उस सर्पयज्ञसे वासुकि तथा अन्य धर्मात्मा नागोंकी रक्षा ऋषि जरत्कारुका औरस पुत्र ही कर सकेगा। इसलिये ऋषिकी सब बातें वासुकिने स्वीकार कर लीं।
जरत्कारु ऋषि पत्नीके साथ नागलोकमें आनन्दपूर्वक रहने लगे। उनकी पत्नी बड़ी सावधानीसे ऋषिकी सेवामें तत्पर रहने लगीं। वे अपने तेजस्वी पतिकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करतीं और उन्हें संतुष्ट रखनेका पूरा ध्यान रखतीं ।
एक दिन संध्याके समय दिनभरकी उपासना एवं तपस्यासे थके ऋषि पत्नीकी गोदमें मस्तक रखकर सो रहे थे। सूर्यास्तका समय हो गया। ऋषिपत्नी चिन्तित होकर सोचने लगीं—’यदि मैं इन्हें जगाती हूँ तो ये क्रोध करके मुझे त्यागकर चले जायँगे और यदि नहीं जगाती हूँ तो सूर्यास्त हो जायगा, सायंकालकी संध्याका समय बीत जानेसे इनका धर्म नष्ट होगा।’उस पतिव्रताने अन्तमें निश्चय किया- ‘मुझे अपने स्वार्थका त्याग करना चाहिये। भले क्रोध करके पतिदेव मुझे त्याग दें; किंतु उनका धर्म सुरक्षित रहना चाहिये।’ उसने नम्रतापूर्वक कहा – ‘देव! सूर्यनारायण अस्ताचलपर जा रहे हैं। उठिये! संध्या-वन्दन कीजिये। आपके अग्रिहोत्रका समय हो गया है।’ ऋषि उठे। क्रोधसे उनके नेत्र लाल हो गये, होंठ फड़कने लगे। वे बोले ‘नागकन्या! तूने मेरा अपमान किया है, अब अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार मैं तेरे पास नहीं रह सकता। मैंनेनियमपूर्वक सदा सूर्यको समयपर अर्घ्य दिया है, अतः मेरे उठकर अर्घ्य देनेतक वे अस्त हो नहीं सकते थे। किसी नियमनिष्ठकी निष्ठाका लोप करनेकी शक्ति किसी देवता या लोकपालमें नहीं होती।’
ऋषि चले गये। वे नित्य विरक्त – उन्हें तो एक बहाना चाहिये था गृहस्थीसे छुटकारा पानेके लिये नागकन्या जरत्कारु उस समय गर्भवती थीं। उनके गर्भसे नागोंको जनमेजयके सर्पयज्ञसे बचानेवाले आस्तीक मुनि उत्पन्न हुए।- सु0 सिं0 (महाभारत, आदि0 47 )