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इनका जन्म पूर्व बंगाल के अंतर्गत मुर्शिदाबाद (काँदी) कोलकाता में हुआ। इन का वास्तविक नाम श्रीकृष्णचंद्र सिंह था।
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एक दिन गंगा जी के किनारे तखत पर लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। सायंकाल का समय, उसी समय एक धीमर की कन्या ने अपने पिता जी को नींद से जगाते हुए कहा…
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बाबा उठो। दिन शेष हय गलो, बाबा उठो- दिन डूब चला। ये शब्द हृदय में चुभ गए लाला बाबू जी के।
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तुरंत निश्चय कर लिया कि राधारानी ने कृपा करके मुझे यह शब्द सुनवाये हैं। अब तो वृंदावन चल कर शेष जीवन भजन में लगाना है।
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पत्नी, पुत्र सबको बात बताकर, उनके लाख मना करने पर भी उपेक्षा करके श्री धाम वृंदावन आ गए।
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यहां आकर त्याग, तितिक्षा एवं कठोर व्रतमय जीवन बिताने लगे। दिन में एक बार मधुकरी ले आते और शेष समय नाम जप में बिताते।
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श्री वृंदावन के भग्न मंदिरों एवं विग्रहों की सेवा पूजा की दुर्दशा देखकर इनका हृदय रो पड़ा।
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इन्होंने विचार किया कि जो संपत्ति मैं वहां छोड़ आया हूं, उसमें से पत्नी एवं पुत्र का हिस्सा निकाल कर, अपना हिस्सा प्रभु सेवा में लगाऊँ और स्वयं भिक्षावृत्ति से अपना निर्वाह करूँ।
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ऐसा विचार करके इन्होंने तदरूप कार्य किया। योजना के अन्तर्गत एक नव मंदिर का निर्माण हुआ।
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श्री मुरलीधर कृष्ण चंद्र की दिव्य सुंदर मूर्ति स्थापित हो गई।
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माघ का महीना था। कड़ाके की शीत पड़ रही थी। मंदिर में लाला बाबू एक कोने में खड़े दर्शन कर रहे थे।
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अचानक लालाबाबू जी मंदिर के पास आकर ठाकुर के थाल में से एक मक्खन की टिक्की निकालकर पुजारी जी को देते हुए बोले…
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पुजारी जी ! ये मक्खन की टिक्की श्री मूर्ति की चाँद पर रखना। आज मुझे देखना है कि प्राण प्रतिष्ठा के बाद इनमें प्राण आ गए हैं या नहीं।
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पुजारी जी ने मक्खन की टिक्की ठाकुर जी के मस्तक के ऊपर रख दी। कुछ देर बाद मक्खन पिघलकर श्रीअंग पर बहने लगा।
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लाला बाबू जय जय की ध्वनि करते हुए मूर्छित हो कर भूमि पर गिर पड़े। यह निश्चित हो गया कि प्राण प्रतिष्ठा के बाद निश्चित ही ठाकुर जी विग्रह में आ जाते हैं।
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एक दिन लाला बाबू जी ने विचार किया कि जब श्री विग्रह में ताप है तो श्वास भी चलती होगी।
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परीक्षण के लिए पुजारी जी से कहा- पुजारी जी ! ये थोड़ी सी रुई लेकर श्रीविग्रह की नासिका के नीचे थोड़ी देर लगा कर रखना।
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पुजारी जी हंसते हुए रुई का टुकड़ा ठाकुर जी की नासिका के नीचे लगाया तो देखा कि श्वास चलने के कारण रुई में कंपन होने लगा।
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लाला बाबू जी के आनंद की सीमा नहीं रही। वहीं मंदिर में लोट पोट होने लगे।
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भगवान् अपने भक्तों को सुख प्रदान करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं।
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एक दिन स्वप्नादेश में ठाकुर जी की आज्ञा मानकर लाला बाबू जी ने समस्त तीर्थों के दर्शन किये और अब गोवर्धन में एक कच्ची गुफा में बैठकर भजन करने लगे।
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नित्य प्रातः गोवर्धन जी की परिक्रमा करते दिनभर भजन में रहते। सायंकाल एक बार मधुकरी को जाते।
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मथुरा के बाबा कृष्णदास जी की उन दिनों सिद्ध महात्मा के रूप में बहुत प्रसिद्धि थी।
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लालाबाबू जी मन ही मन इन को गुरु रुप में वर्ण कर चुके थे। जब बाबा कृष्ण दास जी से दीक्षा की प्रार्थना की तो बाबा बोले..
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अभी तुम्हारे विषयी जीवन में सूक्ष्म संस्कार कुछ शेष हैं। उन्हें तीव्र वैराग्य की अग्नि में भस्म करना होगा।
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समय आने पर बाबा कृष्णदास जी के दर्शन हुए और कृपा करके बाबा ने शुभ मुहूर्त में दीक्षा प्रदान की और आज्ञा दी कि तुम अब गोवर्धन जाकर उसी गुफा में भजन करो और अभीष्ट की प्राप्ति करो।
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लाला बाबू जी आज्ञा शिरोधार्य कर गोवर्धन आकर तीव्र भजन करने लगे। कई वर्षों के बाद इष्ट के दर्शन हुए एवं उनकी लीलाओं का स्फुरण प्रारंभ हो गया।
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अब तो सिद्ध संत के रूप में उनकी प्रसिद्धि हो गई। दूर- दूर से लोग दर्शन करने आते।
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लाला बाबू जी के दर्शन के लिए बहुत भीड़ होने लगी। लाला बाबू जी के भजन में विक्षेप होने लगा। इसलिए चुप चाप रात्रि में गुफा से निकलकर एकांत में जाने लगे।
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उसी समय गवालियर के कुछ घुड़सवार इनके दर्शन को आ रहे थे। दुर्भाग्य से अंधेरे के कारण एक घोड़े के खुर से पैर कुचल गया।
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घाव बहुत बढ़ गया। भक्त लोग वृंदावन ले आए लेकिन चिकित्सा का कोई लाभ नहीं हुआ।
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एक दिन युगल की लीलाओं का चिंतन करते हुए निकुंज की प्राप्ति की।
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लालाबाबू जी के कथनानुसार कि मेरे शरीर को रज में घसीटते हुए दाह संस्कार के लिए ले जाना।
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आज्ञा की रक्षा के लिए एक बड़ी डलिया बनाकर उसमें लिटाकर रज में घसीटते हुए दाह संस्कार को ले गए और दाह संस्कार किया गया।
श्रील लाला बाबू
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