एक समय कुरुदेशमें ओलोंकी बड़ी भारी वर्षा हुईं। इससे सारे उगते हुए पौधे नष्ट हो गये और भयानक अकाल पड़ गया। दुष्कालसे पीड़ित प्रजा अन्नके अभाव से देश छोड़कर भागने लगी। वहाँ एक उषस्ति नामके ब्राह्मण भी रहते थे। उनको स्त्रीका नाम आटिकी था। वह अभी बालिका ही थी। उसे लेकर उषस्ति भी देश छोड़कर इधर-उधर भटकने लगे। भटकते-भटकते वे दोनों एक महावतोंके ग्राममें पहुँचे। भूखके मारे बेचारे उपस्ति उस समय मरणासन्न दशाको प्राप्त हो रहे थे। उन्होंने देखा कि एक महावत उबाले हुए उड़द खा रहा है। वे उसके पास गये और उससे कुछ उड़द देने को कहा। महावतने कहा-‘मैं इस वर्तनमें रखे हुए जो उड़द खा रहा हूँ, इनके अतिरिक्त मेरे पास और उड़द हैं ही नहीं, तब मैं कहाँसे दूँ?’ उपस्तिने कहा- ‘मुझे इनमेंसे ही कुछ दे दो।’ इसपर महावतने थोड़े से उड़द उपस्तिको दे दिये और सामने जल रखकर कहा कि ‘लो, उड़द खाकर जल पी लो।’ उपस्ति बोले- ‘नहीं, मैं यह जल नहीं पी सकता; क्योंकि इसके पीनेसे मुझे उच्छिष्ट-पानका दोष लगेगा।’
महावतको इसपर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने पूछा कि ये उड़द भी तो हमारे जूठे हैं; फिर जलमें ही क्या रखा है जो इसमें जूँठनका दोष आ पड़ा ?”
उपस्तिने कहा- ‘भाई! मैं यदि यह उड़द न खाता तो मेरे प्राण निकल जाते। प्राणोंकी रक्षाके लिये आपद्धर्मकी व्यवस्थानुसार ही मैं उड़द खा रहा हूँ। पर जल तो अन्यत्र भी मिल जायगा। यदि उड़दकी तरह ही मैं तुम्हारा जूँठा जल भी पी लूँ, तब तो वह स्वेच्छाचार हो जायगा। इसलिये भैया मैं तुम्हारा जल नहीं पीऊँगा।’ यो कहकर उपस्तिने कुछ उड़द स्वयं खा लिये और शेष अपनी पत्नीको दे दिये। ब्राह्मणीको पहले ही कुछ खानेको मिल गया था इसलिये उन उड़दाँको उसने खाया नहीं, अपने पास रख लिया।
दूसरे दिन प्रातःकाल उपस्तिने नित्यकृत्यके बाद अपनी स्त्रीसे कहा- ‘क्या करूँ, मुझे जरा सा भी अन्न कहींसे खानेको मिल जाय तो मैं अपना निर्वाह होनेलायक कुछ धन प्राप्त कर लूँ क्योंकि यहाँसे समीप ही एक राजा यज्ञ कर रहा है, वह ऋत्विक्के कार्य में मेरा भी वरण कर लेगा।’
इसपर उनकी स्त्री आटिकीने कहा- ‘मेरे पास कलके बचे हुए उड़द हैं; लीजिये, उन्हें खाकर आप यज्ञमें चले जाइये।’ भूखसे सर्वथा अशक्त उपस्तिने उन्हें खा लिया और वे राजाके यज्ञमें चले गये। वहाँ जाकर वे उद्गाताओंके पास बैठ गये और उनकी भूल देखकर बोले- ‘प्रस्तोतागण ! आप जानते हैं-जिन देवताकी आप स्तुति कर रहे हैं, वे कौन हैं? याद रखिये, आप यदि अधिष्ठाताको जाने बिना स्तुति करेंगे तो आपका मस्तक गिर पड़ेगा।’ और इसी प्रकार उन्होंने उदाताओं एवं प्रतिहर्ताओंसे भी कहा यह सुनते ही सभी ऋत्विज् अपने-अपने कर्म छोड़कर बैठ गये।
राजाने अपने ऋत्विजोंकी यह दशा देखकर उपस्तिसे पूछा- ‘भगवन्! आप कौन हैं? मैं आपका परिचय जानना चाहता हूँ।’ उषस्तिने कहा- राजन्! मैं चक्रका पुत्र उषस्ति हूँ।’ राजाने कहा, ‘ओहो, भगवन्, उपस्ति आप ही हैं? मैंने आपके बहुत से गुण सुने हैं। इसीलिये मैंने ऋत्विज्के कामके लिये आपकी बहुत खोज करवायी थी; पर आप न मिले और मुझे दूसरे ऋत्विजोंको वरण करना पड़ा। यह मेरा बड़ा सौभाग्य है, जो आप किसी प्रकार स्वयं पधार गये। अब ऋत्विजसम्बन्धी समस्त कर्म आप ही करनेकी कृपा करें।’
उषस्तिने कहा-‘बहुत अच्छा! परंतु इन ऋत्विजोंको हटाना नहीं, मेरे आज्ञानुसार ये अपना-अपना कार्य करें और दक्षिणा भी जो इन्हें दी जाय, उतनी ही मुझे देना ( न तो मैं इन लोगोंको निकालना चाहता हूँ और न दक्षिणामें अधिक धन लेकर इनका अपमान ही करना चाहता हूँ। मेरी देख-रेखमें ये सब काम करते रहेंगे)। तदनन्तर सभी ऋत्विज् उपस्तिके पास जाकर तत्त्वोंको जानकर यज्ञकार्यमें लग गये और विधिपूर्वक वह यज्ञ सम्पन्न हुआ।
-जा0 श0 (छान्दोग्य0 अ0 1 0 10-11)
एक समय कुरुदेशमें ओलोंकी बड़ी भारी वर्षा हुईं। इससे सारे उगते हुए पौधे नष्ट हो गये और भयानक अकाल पड़ गया। दुष्कालसे पीड़ित प्रजा अन्नके अभाव से देश छोड़कर भागने लगी। वहाँ एक उषस्ति नामके ब्राह्मण भी रहते थे। उनको स्त्रीका नाम आटिकी था। वह अभी बालिका ही थी। उसे लेकर उषस्ति भी देश छोड़कर इधर-उधर भटकने लगे। भटकते-भटकते वे दोनों एक महावतोंके ग्राममें पहुँचे। भूखके मारे बेचारे उपस्ति उस समय मरणासन्न दशाको प्राप्त हो रहे थे। उन्होंने देखा कि एक महावत उबाले हुए उड़द खा रहा है। वे उसके पास गये और उससे कुछ उड़द देने को कहा। महावतने कहा-‘मैं इस वर्तनमें रखे हुए जो उड़द खा रहा हूँ, इनके अतिरिक्त मेरे पास और उड़द हैं ही नहीं, तब मैं कहाँसे दूँ?’ उपस्तिने कहा- ‘मुझे इनमेंसे ही कुछ दे दो।’ इसपर महावतने थोड़े से उड़द उपस्तिको दे दिये और सामने जल रखकर कहा कि ‘लो, उड़द खाकर जल पी लो।’ उपस्ति बोले- ‘नहीं, मैं यह जल नहीं पी सकता; क्योंकि इसके पीनेसे मुझे उच्छिष्ट-पानका दोष लगेगा।’
महावतको इसपर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने पूछा कि ये उड़द भी तो हमारे जूठे हैं; फिर जलमें ही क्या रखा है जो इसमें जूँठनका दोष आ पड़ा ?”
उपस्तिने कहा- ‘भाई! मैं यदि यह उड़द न खाता तो मेरे प्राण निकल जाते। प्राणोंकी रक्षाके लिये आपद्धर्मकी व्यवस्थानुसार ही मैं उड़द खा रहा हूँ। पर जल तो अन्यत्र भी मिल जायगा। यदि उड़दकी तरह ही मैं तुम्हारा जूँठा जल भी पी लूँ, तब तो वह स्वेच्छाचार हो जायगा। इसलिये भैया मैं तुम्हारा जल नहीं पीऊँगा।’ यो कहकर उपस्तिने कुछ उड़द स्वयं खा लिये और शेष अपनी पत्नीको दे दिये। ब्राह्मणीको पहले ही कुछ खानेको मिल गया था इसलिये उन उड़दाँको उसने खाया नहीं, अपने पास रख लिया।
दूसरे दिन प्रातःकाल उपस्तिने नित्यकृत्यके बाद अपनी स्त्रीसे कहा- ‘क्या करूँ, मुझे जरा सा भी अन्न कहींसे खानेको मिल जाय तो मैं अपना निर्वाह होनेलायक कुछ धन प्राप्त कर लूँ क्योंकि यहाँसे समीप ही एक राजा यज्ञ कर रहा है, वह ऋत्विक्के कार्य में मेरा भी वरण कर लेगा।’
इसपर उनकी स्त्री आटिकीने कहा- ‘मेरे पास कलके बचे हुए उड़द हैं; लीजिये, उन्हें खाकर आप यज्ञमें चले जाइये।’ भूखसे सर्वथा अशक्त उपस्तिने उन्हें खा लिया और वे राजाके यज्ञमें चले गये। वहाँ जाकर वे उद्गाताओंके पास बैठ गये और उनकी भूल देखकर बोले- ‘प्रस्तोतागण ! आप जानते हैं-जिन देवताकी आप स्तुति कर रहे हैं, वे कौन हैं? याद रखिये, आप यदि अधिष्ठाताको जाने बिना स्तुति करेंगे तो आपका मस्तक गिर पड़ेगा।’ और इसी प्रकार उन्होंने उदाताओं एवं प्रतिहर्ताओंसे भी कहा यह सुनते ही सभी ऋत्विज् अपने-अपने कर्म छोड़कर बैठ गये।
राजाने अपने ऋत्विजोंकी यह दशा देखकर उपस्तिसे पूछा- ‘भगवन्! आप कौन हैं? मैं आपका परिचय जानना चाहता हूँ।’ उषस्तिने कहा- राजन्! मैं चक्रका पुत्र उषस्ति हूँ।’ राजाने कहा, ‘ओहो, भगवन्, उपस्ति आप ही हैं? मैंने आपके बहुत से गुण सुने हैं। इसीलिये मैंने ऋत्विज्के कामके लिये आपकी बहुत खोज करवायी थी; पर आप न मिले और मुझे दूसरे ऋत्विजोंको वरण करना पड़ा। यह मेरा बड़ा सौभाग्य है, जो आप किसी प्रकार स्वयं पधार गये। अब ऋत्विजसम्बन्धी समस्त कर्म आप ही करनेकी कृपा करें।’
उषस्तिने कहा-‘बहुत अच्छा! परंतु इन ऋत्विजोंको हटाना नहीं, मेरे आज्ञानुसार ये अपना-अपना कार्य करें और दक्षिणा भी जो इन्हें दी जाय, उतनी ही मुझे देना ( न तो मैं इन लोगोंको निकालना चाहता हूँ और न दक्षिणामें अधिक धन लेकर इनका अपमान ही करना चाहता हूँ। मेरी देख-रेखमें ये सब काम करते रहेंगे)। तदनन्तर सभी ऋत्विज् उपस्तिके पास जाकर तत्त्वोंको जानकर यज्ञकार्यमें लग गये और विधिपूर्वक वह यज्ञ सम्पन्न हुआ।
-जा0 श0 (छान्दोग्य0 अ0 1 0 10-11)