संत डोमिनिकने तेरहवीं शताब्दीके स्पेनको अपनी स्थितिसे पवित्र किया था। वे बड़े उदार, दानी और परसेवाव्रती थे। दूसरोंकी सेवासे उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती थी। वे अपना सब कुछ दीन-हीन और असहायों को देकर रात-दिन भगवान्का भजन किया करते थे।
‘बेटा! मेरे पुत्रको मूरके हाथसे बचा लो। वह केवल कुछ रुपयोंके कारण दास बना लिया गया है। ‘ एक बुढ़ियाने संतसे निवेदन किया। उसके नेत्रोंसे अश्रुकी धारा प्रवाहित थी, सिर हिल रहा था, कपड़े फटे और मैले थे; ऐसा लगता था मानो साक्षात् दरिद्रताही संतके सेवाव्रतकी परीक्षा ले रही है। ‘माँ! मेरे पास तो सोना-चाँदी कुछ भी नहीं है।
इस समय इस शरीरपर मेरा पूरा-पूरा अधिकार है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि इससे मैं आपकी सेवा कर सकूँगा। माँ! मैं इसे मूरके हाथोंमें निःसंकोच सौंपकर तुम्हारे पुत्रका उद्धार करूँगा।’ संत डोमिनिकने आश्वासन दिया।
‘बेटा! तुम भी तो मेरे ही बेटे हो। चिरंजीवी हो, भगवान् भला करें।’ बुढ़ियाने आशीर्वाद दिया और चली गयी।
– रा0 श्री0
Saint Dominic sanctified 13th century Spain from his position. He was very generous, charitable and charitable. He used to take great pleasure in serving others. He used to worship God day and night by giving everything he had to the poor and helpless.
‘Son! Save my son from the hands of the peacock. He has been made a slave only because of a few rupees. ‘ An old woman requested the saint. Tears were flowing from his eyes, his head was shaking, his clothes were torn and dirty; It seemed as if the poverty itself was taking the test of service of the saint. ‘Mother! I don’t have anything gold or silver.
At this time I have complete authority over this body. I firmly believe that this will enable me to serve you. Mother! I will save your son by handing it over to the Moor without any hesitation.’ Saint Dominic assured.
‘Son! You are also my son. May God bless you, Chiranjeevi. The old woman blessed and left.