उत्तर प्रदेशमें राजघाटके पास किसी गाँवमें एक विद्वान् पण्डितजी रहते थे। घरमें उनकी विदुषी पत्नी थी। पण्डितजी एक बार बीमार पड़े। एक दिन वे मरणासन्न हो गये । उनको घोर संनिपात था, चेतना नहीं थी। बोली बंद थी। विदुषी पत्नीने चाहा कि ‘मरणके पहले इनको संन्यास ग्रहण कर लेना चाहिये। ब्राह्मणके लिये यही शास्त्रविधान है।’ भाग्यसे एक वृद्ध संन्यासी रास्तेसे चले जा रहे थे। ब्राह्मणीने उनको बुलाया और सारी परिस्थिति समझाकर पतिको उनसे संन्यासकी दीक्षा दिलवा दी। विरक्त संन्यासी चले गये।
प्रारब्धकी बात, पण्डितजी अच्छे हो गये। ब्राह्मणी उनकी सब सेवा करती पर उनका स्पर्श नहीं करती। पण्डितजीको यह नयी बात मालूम हुई। उन्होंने एक दिन स्पर्श न करनेका कारण पूछा। उसने कहा ‘महाराज! आप संन्यासी हो गये।’ और फिर उसने वे सारी बातें सुना दीं कि कैसे संन्यासी हुए थे। पण्डितजी बोले- ‘फिर, संन्यासीको घरमें नहीं रहना चाहिये।’ धर्मशीला विदुषी पत्नीने कहा-‘महाराज! उचित तो यही है।’ उसी क्षण पण्डितजी काषाय वस्त्र धारणकर घरसे निकल गये।
वर्षों बाद हरद्वारमें कुम्भका मेला था। पण्डितजीके गाँवसे भी लोग कुम्भस्नान के लिये गये थे। उनमें पण्डितजीकी पत्नी भी थी। पण्डितजी संन्यास लेकरऋषिकेशमें रहने लगे थे। सच्चे त्यागी थे। विद्वान् तो थे ही संन्यासियोंमें उनके त्याग और पाण्डित्यकी प्रख्याति हो गयी। बड़े-बड़े संन्यासी उनसे पढ़ने लगे। हरद्वार ऋषिकेशके यात्री उनके दर्शन बिना लौटनेमें यात्राको निष्फल समझने लगे। गाँवके लोगोंके साथ पण्डितजीकी पत्नी भी उनके दर्शनार्थ गयी। उसे पता नहीं था, ये मेरे पूर्वाश्रमके पति हैं। वह वहाँ जाकर बैठी। स्वामीजीकी दृष्टि उसकी ओर गयी। उन्होंने पहचान लिया और कहा- ‘तू कब आ गयी ?’ विदुषी ब्राह्मणीने कहा ‘स्वामीजी ! अब भी आपको मेरा स्मरण है ?’ स्वामीजीको मानो सावधानीका कोड़ा लगा। पर उन्हें इससे बड़ी प्रसन्नता हुई; क्योंकि वे अपनी भूलको पकड़ सके। उन्होंने उसी क्षणसे किसीको आँख उठाकर न देखनेका तथा सदा मौन रहनेका प्रण कर लिया और जीवनभर उसे निभाया।
एक समय वे किसी गाँवके समीप गङ्गातटपर ध्यान कर रहे थे। गाँवके कुछ शरारती मुसलमान छोकरोंने यह देखनेके लिये कि देखें इनका ध्यान टूटता है या नहीं, उनके पीठपर कुल्हाड़ीसे घाव कर दिये। महात्माजी ज्यों-के-त्यों पाषाण-प्रतिमाकी तरह बैठे रहे। पीठसे खून बहने लगा। दूसरे कुछ लड़कोंने यह देखा और वे गाँवके जमींदारको खबर देने गये। वह जमींदार स्वामीजीका बड़ा भक्त था। मुसलमान छोकरेभाग गये। जमींदार आये, उन्होंने उन छोकरोंको पकड़वाकर बुलाया। उसने कहा- ‘ – ‘इन्हें खूब मार मारो।’ यह सुनते ही महात्माजी खड़े हो गये और हाथऊपर उठाकर मारनेसे मने कर दिया। जमींदार चुप रहे। लड़कोंको इशारेसे विदा कर दिया। तबसे जीवनभर उनका वह हाथ उठा ही रहा।
उत्तर प्रदेशमें राजघाटके पास किसी गाँवमें एक विद्वान् पण्डितजी रहते थे। घरमें उनकी विदुषी पत्नी थी। पण्डितजी एक बार बीमार पड़े। एक दिन वे मरणासन्न हो गये । उनको घोर संनिपात था, चेतना नहीं थी। बोली बंद थी। विदुषी पत्नीने चाहा कि ‘मरणके पहले इनको संन्यास ग्रहण कर लेना चाहिये। ब्राह्मणके लिये यही शास्त्रविधान है।’ भाग्यसे एक वृद्ध संन्यासी रास्तेसे चले जा रहे थे। ब्राह्मणीने उनको बुलाया और सारी परिस्थिति समझाकर पतिको उनसे संन्यासकी दीक्षा दिलवा दी। विरक्त संन्यासी चले गये।
प्रारब्धकी बात, पण्डितजी अच्छे हो गये। ब्राह्मणी उनकी सब सेवा करती पर उनका स्पर्श नहीं करती। पण्डितजीको यह नयी बात मालूम हुई। उन्होंने एक दिन स्पर्श न करनेका कारण पूछा। उसने कहा ‘महाराज! आप संन्यासी हो गये।’ और फिर उसने वे सारी बातें सुना दीं कि कैसे संन्यासी हुए थे। पण्डितजी बोले- ‘फिर, संन्यासीको घरमें नहीं रहना चाहिये।’ धर्मशीला विदुषी पत्नीने कहा-‘महाराज! उचित तो यही है।’ उसी क्षण पण्डितजी काषाय वस्त्र धारणकर घरसे निकल गये।
वर्षों बाद हरद्वारमें कुम्भका मेला था। पण्डितजीके गाँवसे भी लोग कुम्भस्नान के लिये गये थे। उनमें पण्डितजीकी पत्नी भी थी। पण्डितजी संन्यास लेकरऋषिकेशमें रहने लगे थे। सच्चे त्यागी थे। विद्वान् तो थे ही संन्यासियोंमें उनके त्याग और पाण्डित्यकी प्रख्याति हो गयी। बड़े-बड़े संन्यासी उनसे पढ़ने लगे। हरद्वार ऋषिकेशके यात्री उनके दर्शन बिना लौटनेमें यात्राको निष्फल समझने लगे। गाँवके लोगोंके साथ पण्डितजीकी पत्नी भी उनके दर्शनार्थ गयी। उसे पता नहीं था, ये मेरे पूर्वाश्रमके पति हैं। वह वहाँ जाकर बैठी। स्वामीजीकी दृष्टि उसकी ओर गयी। उन्होंने पहचान लिया और कहा- ‘तू कब आ गयी ?’ विदुषी ब्राह्मणीने कहा ‘स्वामीजी ! अब भी आपको मेरा स्मरण है ?’ स्वामीजीको मानो सावधानीका कोड़ा लगा। पर उन्हें इससे बड़ी प्रसन्नता हुई; क्योंकि वे अपनी भूलको पकड़ सके। उन्होंने उसी क्षणसे किसीको आँख उठाकर न देखनेका तथा सदा मौन रहनेका प्रण कर लिया और जीवनभर उसे निभाया।
एक समय वे किसी गाँवके समीप गङ्गातटपर ध्यान कर रहे थे। गाँवके कुछ शरारती मुसलमान छोकरोंने यह देखनेके लिये कि देखें इनका ध्यान टूटता है या नहीं, उनके पीठपर कुल्हाड़ीसे घाव कर दिये। महात्माजी ज्यों-के-त्यों पाषाण-प्रतिमाकी तरह बैठे रहे। पीठसे खून बहने लगा। दूसरे कुछ लड़कोंने यह देखा और वे गाँवके जमींदारको खबर देने गये। वह जमींदार स्वामीजीका बड़ा भक्त था। मुसलमान छोकरेभाग गये। जमींदार आये, उन्होंने उन छोकरोंको पकड़वाकर बुलाया। उसने कहा- ‘ – ‘इन्हें खूब मार मारो।’ यह सुनते ही महात्माजी खड़े हो गये और हाथऊपर उठाकर मारनेसे मने कर दिया। जमींदार चुप रहे। लड़कोंको इशारेसे विदा कर दिया। तबसे जीवनभर उनका वह हाथ उठा ही रहा।












