उपहासका फल

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उपहासका फल

रुक्मीका भगवान् श्रीकृष्णके साथ पुराना वैर था। फिर भी अपनी बहन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपनी पौत्री रोचनाका विवाह रुक्मिणीके पौत्र, अपने नाती (दौहित्र) अनिरुद्धके साथ कर दिया। यद्यपि स्वमीको इस बातका पता था कि इस प्रकारका विवाहसम्बन्ध धर्मके अनुकूल नहीं है, फिर भी स्नेह बन्धनमें बँधकर उसने ऐसा कर दिया। अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगरमें पधारे। जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंगनरेश आदि घमण्डी नरपतियोंने रुक्मीसे कहा कि ‘तुम बलरामजीको पासोंके खेलमें जीत लो। देखो, बलरामजीको पासे डालने तो आते नहीं, परंतु उन्हें खेलनेका बहुत बड़ा व्यसन है।’ उन लोगोंके बहकानेसे रुक्मीने बलरामजीको बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा। बलरामजीने पहले सौ, फिर हजार और बाद दस हजार मुहरोंका दाँव लगाया। उन्हें रुक्मीने जीत लिया। रुक्मीकी जीत कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर, ठहाका मारकर बलरामजीकी हँसी उड़ाने लगा। बलरामजीसे वह हँसी सहन न हुई। वे कुछ चिढ़ गये। इसपर रुक्मीने एक लाख मुहरोंका दाँव लगाया। उसे बलरामजीने जीत लिया, परंतु, रुक्मी धूर्ततासे यह कहने लगा कि ‘मैंने जीता है।’ इसपर श्रीमान् बलरामजी क्रोधसे तिलमिला उठे। उनके हृदय में इतना क्षोभ हुआ, मानो पूर्णिमाके दिन समुद्रमें ज्वार गया हो। उनके नेत्र एक तो स्वभावसे ही लाल थे, दूसरे अत्यन्त क्रोधने चारे वे और भी दहव उठे। अब उन्होंने दस करोड़ मुहरोंका दाँव रखा और इस बार भी द्यूतनियमके अनुसार बलरामजीकी ही जीत हुई, परंतु रुक्मीने छल करके कहा-‘मेरी जीत है। इस विषयके विशेषज्ञ कलिंगनरेश आदि सभासद् इसका निर्णय कर दें।’
उस समय आकाशवाणीने कहा- ‘यदि धर्मपूर्वक कहा जाय, तो बलरामजीने ही यह दाँव जीता है। रुक्मीका यह कहना सरासर झूठ है कि उसने जीता है।’ एक तो रुक्मीके सिरपर मौत सवार थी और दूसरे उसके साथी दुष्ट राजाओंने भी उसे उभाड़ रखा था। इससे उसने आकाशवाणीपर कोई ध्यान न दिया और बलरामजीकी हँसी उड़ाते हुए कहा-‘बलरामजी ! आखिर आपलोग वन-वन भटकनेवाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणोंसे केवल राजालोग ही खेला करते हैं, आप जैसे नहीं।’ रुक्मीके इस प्रकार आक्षेप और राजाओंके उपहास करनेपर बलरामजी क्रोधसे आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभामें ही रुक्मीको मार डाला। पहले कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर हँसता था, अब रंगमें भंग देखकर वहाँसे भागा; परंतु बलरामजीने दस ही कदमपर उसे पकड़ लिया और उसके दाँत तोड़ डाले। बलरामजीने अपने मुद्गरकी चोटसे दूसरे राजाओंकी भी बाँह, जाँघ और सिर आदि तोड़-फोड़ डाले। वे खूनसे लथपथ और भयभीत होकर वहाँसे भागते बने।
इस प्रकार अनुचित उपहास करनेके कारण रुक्मीको अपनी जान गवाँनी पड़ी। [ श्रीमद्भागवत ]

उपहासका फल
रुक्मीका भगवान् श्रीकृष्णके साथ पुराना वैर था। फिर भी अपनी बहन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपनी पौत्री रोचनाका विवाह रुक्मिणीके पौत्र, अपने नाती (दौहित्र) अनिरुद्धके साथ कर दिया। यद्यपि स्वमीको इस बातका पता था कि इस प्रकारका विवाहसम्बन्ध धर्मके अनुकूल नहीं है, फिर भी स्नेह बन्धनमें बँधकर उसने ऐसा कर दिया। अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगरमें पधारे। जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंगनरेश आदि घमण्डी नरपतियोंने रुक्मीसे कहा कि ‘तुम बलरामजीको पासोंके खेलमें जीत लो। देखो, बलरामजीको पासे डालने तो आते नहीं, परंतु उन्हें खेलनेका बहुत बड़ा व्यसन है।’ उन लोगोंके बहकानेसे रुक्मीने बलरामजीको बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा। बलरामजीने पहले सौ, फिर हजार और बाद दस हजार मुहरोंका दाँव लगाया। उन्हें रुक्मीने जीत लिया। रुक्मीकी जीत कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर, ठहाका मारकर बलरामजीकी हँसी उड़ाने लगा। बलरामजीसे वह हँसी सहन न हुई। वे कुछ चिढ़ गये। इसपर रुक्मीने एक लाख मुहरोंका दाँव लगाया। उसे बलरामजीने जीत लिया, परंतु, रुक्मी धूर्ततासे यह कहने लगा कि ‘मैंने जीता है।’ इसपर श्रीमान् बलरामजी क्रोधसे तिलमिला उठे। उनके हृदय में इतना क्षोभ हुआ, मानो पूर्णिमाके दिन समुद्रमें ज्वार गया हो। उनके नेत्र एक तो स्वभावसे ही लाल थे, दूसरे अत्यन्त क्रोधने चारे वे और भी दहव उठे। अब उन्होंने दस करोड़ मुहरोंका दाँव रखा और इस बार भी द्यूतनियमके अनुसार बलरामजीकी ही जीत हुई, परंतु रुक्मीने छल करके कहा-‘मेरी जीत है। इस विषयके विशेषज्ञ कलिंगनरेश आदि सभासद् इसका निर्णय कर दें।’
उस समय आकाशवाणीने कहा- ‘यदि धर्मपूर्वक कहा जाय, तो बलरामजीने ही यह दाँव जीता है। रुक्मीका यह कहना सरासर झूठ है कि उसने जीता है।’ एक तो रुक्मीके सिरपर मौत सवार थी और दूसरे उसके साथी दुष्ट राजाओंने भी उसे उभाड़ रखा था। इससे उसने आकाशवाणीपर कोई ध्यान न दिया और बलरामजीकी हँसी उड़ाते हुए कहा-‘बलरामजी ! आखिर आपलोग वन-वन भटकनेवाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणोंसे केवल राजालोग ही खेला करते हैं, आप जैसे नहीं।’ रुक्मीके इस प्रकार आक्षेप और राजाओंके उपहास करनेपर बलरामजी क्रोधसे आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभामें ही रुक्मीको मार डाला। पहले कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर हँसता था, अब रंगमें भंग देखकर वहाँसे भागा; परंतु बलरामजीने दस ही कदमपर उसे पकड़ लिया और उसके दाँत तोड़ डाले। बलरामजीने अपने मुद्गरकी चोटसे दूसरे राजाओंकी भी बाँह, जाँघ और सिर आदि तोड़-फोड़ डाले। वे खूनसे लथपथ और भयभीत होकर वहाँसे भागते बने।
इस प्रकार अनुचित उपहास करनेके कारण रुक्मीको अपनी जान गवाँनी पड़ी। [ श्रीमद्भागवत ]

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