अहंकार- नाश

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किसी राष्ट्रकार्य – धुरन्धर अथवा साधारण से व्यक्तिमें समस्त दुर्गुणोंका अग्रणी अहंकार या अभिमान जब प्रवेश पा जाता है, तब उसके कार्योंमें होनेवाली उन्नतिकी बात तो दूर रही, किये हुए कार्योंपर भी पानी फिरनेमें विलम्ब नहीं लगता। पर यदि उसे यथासमय संचेत कर दिया गया तो वह यशके शिखरपर पहुँच ही जाता है। इस प्रकारकी अनेक कथाएँ अपने इतिहास पुराणादिमें हैं। अभी केवल 250 वर्ष पूर्वकी एक ‘सत्-कथा’ इस प्रकार है।

हिंदू-स्वराज्य-संस्थापक श्रीशिवाजी महाराजके सद्गुरु श्रीसमर्थ रामदास स्वामी महाराजका तपः सामर्थ्य और उनका किया हुआ राष्ट्रकार्य अलौकिक है। सद्गुरुके द्वारा निर्दिष्ट मार्गका अनुसरण करके श्रीश्रीभवानी कृपासे श्रीशिवाजी महाराजने कई किले जीत लिये। उस समय किलोंका बड़ा महत्त्व था। इसलिये जीते हुए किलोंको ठीक करवानेका एवं नये किलोंके निर्माणका कार्य सदा चलता रहता था और इस कार्यमें हजारों मजदूर सदा लगे रहते थे। सामनगढ़ नामक किलेका निर्माण हो रहा या एक दिन उसका निरीक्षण करनेके लिये श्रीशिवाजी महाराज वहाँ गये। वहाँ बहुसंख्यक श्रमिकोंको कार्य करते देखकर उनके मनमें एक ऐसी अहंकार-भरी भावनाका अंकुर उत्पन्न हो आया कि ‘मेरे कारण ही इतने जीवोंका उदर निर्वाह चल रहा है।’ इसी विचारमें वे तटपर घूम रहे थे। अन्तर्यामी सद्गुरु श्रीसमर्थ इस बातको जान गये ‘और ‘जय जय रघुबीर समर्थ’ की रट लगाते हुए अकस्मात् न जाने कहाँसे वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखते ही श्रीशिवाजी महाराजने आगे बढ़कर दण्डवत् प्रणाम किया और पूछा, “शुभागमन कहाँसे हुआ? हँसकर श्रीसमर्थ शिवना मैंने सुना कि यहाँ तुम्हारा बहुत बड़ाकार्य चल रहा है, इच्छा हुई कि मैं भी जाकर देखूँ । इसीसे चला आया। वाह वाह शिवबा ! इस स्थानका भाग्योदय और इतने जीवोंका पालन तुम्हारे ही कारण हो रहा है।’ सद्गुरुके श्रीमुखसे यह सुनकर श्रीशिवाजी महाराजको अपनी धन्यता प्रतीत हुई और उन्होंने कहा ‘यह सब कुछ सद्गुरुके आशीर्वादका फल है। ‘

इस प्रकार बातचीत करते हुए वे किलेसे नीचे, जहाँ मार्ग निर्माणका कार्य हो रहा था, आ पहुँचे। मार्गके बने हुए भागमें एक विशाल शिला अभी वैसी ही पड़ी थी उसे देखकर सद्गुरुने पूछा यह शिला यहाँ बीचमें क्यों पड़ी है ?’ उत्तर मिला ‘मार्गका निर्माण हो जानेपर इसे तोड़कर काममें ले लिया जायगा।’ श्रीसद्गुरु बोले-नहीं, नहीं, कामको हाथों-हाथ ही कर डालना चाहिये; अन्यथा जो काम पीछे रह जाता है, वह हो नहीं पाता। अभी कारीगरोंको बुलाकर इसके बीचसे दो भाग करा दो।’ तुरंत कारीगरोंको बुलाया गया और उस शिलाके समान दो टुकड़े कर दिये गये। सबोंने देखा कि शिलाके अंदर एक भागमें ऊखल जितना गहरा एक गड्ढा था, जिसमें पर्याप्त जल भरा था और उसमें एक मेंढक बैठा हुआ था। उसे देखकर श्रीसद्गुरु बोले- ‘वाह, वाह, शिवबा, धन्य हो तुम! इस शिलाके अंदर भी तुमने जल रखवाकर इस मेंढकके पोषणकी व्यवस्था कर रखी है।’ बस, पर्याप्त थे इतने शब्द श्रीशिवछत्रपति के लिये उनके चित्तमें प्रकाश हुआ। उन्हें अपने अहंकारका पता लग गया और पता लगते ही ‘इतने लोगोंके पेट मैं भरता हूँ’ इस अभिमान तिमिरका तुरंत नाश हो गया। उन्होंने तुरंत श्रीसद्गुरुके चरण पकड़ लिये और अपराधके लिये क्षमा-याचना की।

किसी राष्ट्रकार्य – धुरन्धर अथवा साधारण से व्यक्तिमें समस्त दुर्गुणोंका अग्रणी अहंकार या अभिमान जब प्रवेश पा जाता है, तब उसके कार्योंमें होनेवाली उन्नतिकी बात तो दूर रही, किये हुए कार्योंपर भी पानी फिरनेमें विलम्ब नहीं लगता। पर यदि उसे यथासमय संचेत कर दिया गया तो वह यशके शिखरपर पहुँच ही जाता है। इस प्रकारकी अनेक कथाएँ अपने इतिहास पुराणादिमें हैं। अभी केवल 250 वर्ष पूर्वकी एक ‘सत्-कथा’ इस प्रकार है।
हिंदू-स्वराज्य-संस्थापक श्रीशिवाजी महाराजके सद्गुरु श्रीसमर्थ रामदास स्वामी महाराजका तपः सामर्थ्य और उनका किया हुआ राष्ट्रकार्य अलौकिक है। सद्गुरुके द्वारा निर्दिष्ट मार्गका अनुसरण करके श्रीश्रीभवानी कृपासे श्रीशिवाजी महाराजने कई किले जीत लिये। उस समय किलोंका बड़ा महत्त्व था। इसलिये जीते हुए किलोंको ठीक करवानेका एवं नये किलोंके निर्माणका कार्य सदा चलता रहता था और इस कार्यमें हजारों मजदूर सदा लगे रहते थे। सामनगढ़ नामक किलेका निर्माण हो रहा या एक दिन उसका निरीक्षण करनेके लिये श्रीशिवाजी महाराज वहाँ गये। वहाँ बहुसंख्यक श्रमिकोंको कार्य करते देखकर उनके मनमें एक ऐसी अहंकार-भरी भावनाका अंकुर उत्पन्न हो आया कि ‘मेरे कारण ही इतने जीवोंका उदर निर्वाह चल रहा है।’ इसी विचारमें वे तटपर घूम रहे थे। अन्तर्यामी सद्गुरु श्रीसमर्थ इस बातको जान गये ‘और ‘जय जय रघुबीर समर्थ’ की रट लगाते हुए अकस्मात् न जाने कहाँसे वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखते ही श्रीशिवाजी महाराजने आगे बढ़कर दण्डवत् प्रणाम किया और पूछा, “शुभागमन कहाँसे हुआ? हँसकर श्रीसमर्थ शिवना मैंने सुना कि यहाँ तुम्हारा बहुत बड़ाकार्य चल रहा है, इच्छा हुई कि मैं भी जाकर देखूँ । इसीसे चला आया। वाह वाह शिवबा ! इस स्थानका भाग्योदय और इतने जीवोंका पालन तुम्हारे ही कारण हो रहा है।’ सद्गुरुके श्रीमुखसे यह सुनकर श्रीशिवाजी महाराजको अपनी धन्यता प्रतीत हुई और उन्होंने कहा ‘यह सब कुछ सद्गुरुके आशीर्वादका फल है। ‘
इस प्रकार बातचीत करते हुए वे किलेसे नीचे, जहाँ मार्ग निर्माणका कार्य हो रहा था, आ पहुँचे। मार्गके बने हुए भागमें एक विशाल शिला अभी वैसी ही पड़ी थी उसे देखकर सद्गुरुने पूछा यह शिला यहाँ बीचमें क्यों पड़ी है ?’ उत्तर मिला ‘मार्गका निर्माण हो जानेपर इसे तोड़कर काममें ले लिया जायगा।’ श्रीसद्गुरु बोले-नहीं, नहीं, कामको हाथों-हाथ ही कर डालना चाहिये; अन्यथा जो काम पीछे रह जाता है, वह हो नहीं पाता। अभी कारीगरोंको बुलाकर इसके बीचसे दो भाग करा दो।’ तुरंत कारीगरोंको बुलाया गया और उस शिलाके समान दो टुकड़े कर दिये गये। सबोंने देखा कि शिलाके अंदर एक भागमें ऊखल जितना गहरा एक गड्ढा था, जिसमें पर्याप्त जल भरा था और उसमें एक मेंढक बैठा हुआ था। उसे देखकर श्रीसद्गुरु बोले- ‘वाह, वाह, शिवबा, धन्य हो तुम! इस शिलाके अंदर भी तुमने जल रखवाकर इस मेंढकके पोषणकी व्यवस्था कर रखी है।’ बस, पर्याप्त थे इतने शब्द श्रीशिवछत्रपति के लिये उनके चित्तमें प्रकाश हुआ। उन्हें अपने अहंकारका पता लग गया और पता लगते ही ‘इतने लोगोंके पेट मैं भरता हूँ’ इस अभिमान तिमिरका तुरंत नाश हो गया। उन्होंने तुरंत श्रीसद्गुरुके चरण पकड़ लिये और अपराधके लिये क्षमा-याचना की।

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