श्रीचैतन्य महाप्रभु संन्यास लेकर जब श्रीजगन्नाथपुरीमें रहने लगे थे, तब वहाँ महाप्रभुके अनेक भक्त भी बंगालसे आकर रहते थे। महाप्रभुके उन भक्तोंमें बहुतसे अत्यन्त विरक्त भक्त थे उन गृहत्यागी साधु भक्तोंमें ही एक थे छोटे हरिदासजी। ये सङ्गीतज्ञ थे और अपने मधुर कीर्तनसे महाप्रभुको प्रसन्न करते थे; इसलिये इनको कीर्तनिया हरिदास भी लोग कहते थे।
पुरीमें महाप्रभुके अनेक गृहस्थ भक्त भी थे। श्रीजगन्नाथजीके मन्दिरमें हिसाब-किताब लिखनेका काम करनेवाले श्रीशिखि माहिती, उनके छोटे भाई मुरारि और उनकी विधवा बहिन माधवी – ये तीनों ही परम भक्त थे। महाप्रभुके चरणोंमें इनका अनुराग था। इनमें भी शिखि माहिती और माधवी देवीको तो महाप्रभु भगवत्कृपा प्राप्त भागवतोंमें गिनते थे ।
महाप्रभुको पुरीके भक्तगण कभी-कभी अपने यहाँ भिक्षाके लिये आमन्त्रित करते थे। एक दिन जब भगवानाचार्य के यहाँ महाप्रभु भिक्षाके लिये पधारे, तब भिक्षामें सुगन्धित सुन्दर चावल बने देखकर उन्होंने पूछा- ‘आपने ये उत्तम चावल कहाँसे मँगाये हँ ?’
भगवानाचार्यने कहा-‘प्रभो! माधवी देवीके यहाँसे ये आये हैं।’
महाप्रभु ‘माधवीके यहाँ चावल लेने कौन गया था ?’ भगवानाचार्य — ‘छोटे हरिदास।’
यह सुनकर महाप्रभु चुप हो गये। भिक्षा ग्रहण करनेका जैसे उनमें उत्साह रहा ही नहीं। भगवत्प्रसाद समझकर कुछ ग्रास मुखमें डालकर महाप्रभु उठ गये। अपने स्थानपर आकर उन्होंने आदेश दिया- ‘आजसे छोटा हरिदास मेरे यहाँ कभी नहीं आ पावेगा । उसने कभी यहाँ भूलसे भी पैर रखा तो मैं बहुत असंतुष्ट होऊँगा ।’
महाप्रभुके सेवक तो स्तब्ध रह गये। समाचार पाकर छोटे हरिदास बहुत दुःखी हुए; किंतु महाप्रभुने किसी प्रकार उन्हें अपने पास आनेकी अनुमति नहीं दी। सभी भक्तोंने प्रार्थना की, श्रीपरमानन्दपुरीजीने भी महाप्रभुसे कहा – ‘हरिदासको क्षमा कर दीजिये!’ परंतु महाप्रभुने बहुत रुक्ष-भंगी बना ली थी। वे पुरी छोड़कर अलालनाथ जाकर रहनेको प्रस्तुत हो गये। छोटे हरिदासने अन्न-जल त्याग दिया; परंतु उनके अनशनका भी महाप्रभुपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
अन्तमें दुःखी होकर छोटे हरिदास पुरीसे पैदल चलकर प्रयाग आये और वहाँ उन्होंने गङ्गा-यमुनाके संगममें देहत्याग कर दिया। यह समाचार जब महाप्रभुको मिला तब उन्होंने कहा- ‘साधु होकर स्त्रियोंसे बातचीत करे, उनको चरण छूने दे, यह तो महापाप है। हरिदासने अपने पापके उपयुक्त ही प्रायश्चित्त किया है।’ महाप्रभुने ही एक बार सार्वभौम भट्टाचार्यसे कहा है
निष्किञ्चनस्य भगवद्भजनोन्मुखस्य
पारं परं जिगमिषोर्भवसागरस्य ।
संदर्शनं विषयिणामथ योषितां च
हा हन्त ! हन्त ! विषभक्षणतोऽप्यसाधुः ॥
श्रीचैतन्य महाप्रभु संन्यास लेकर जब श्रीजगन्नाथपुरीमें रहने लगे थे, तब वहाँ महाप्रभुके अनेक भक्त भी बंगालसे आकर रहते थे। महाप्रभुके उन भक्तोंमें बहुतसे अत्यन्त विरक्त भक्त थे उन गृहत्यागी साधु भक्तोंमें ही एक थे छोटे हरिदासजी। ये सङ्गीतज्ञ थे और अपने मधुर कीर्तनसे महाप्रभुको प्रसन्न करते थे; इसलिये इनको कीर्तनिया हरिदास भी लोग कहते थे।
पुरीमें महाप्रभुके अनेक गृहस्थ भक्त भी थे। श्रीजगन्नाथजीके मन्दिरमें हिसाब-किताब लिखनेका काम करनेवाले श्रीशिखि माहिती, उनके छोटे भाई मुरारि और उनकी विधवा बहिन माधवी – ये तीनों ही परम भक्त थे। महाप्रभुके चरणोंमें इनका अनुराग था। इनमें भी शिखि माहिती और माधवी देवीको तो महाप्रभु भगवत्कृपा प्राप्त भागवतोंमें गिनते थे ।
महाप्रभुको पुरीके भक्तगण कभी-कभी अपने यहाँ भिक्षाके लिये आमन्त्रित करते थे। एक दिन जब भगवानाचार्य के यहाँ महाप्रभु भिक्षाके लिये पधारे, तब भिक्षामें सुगन्धित सुन्दर चावल बने देखकर उन्होंने पूछा- ‘आपने ये उत्तम चावल कहाँसे मँगाये हँ ?’
भगवानाचार्यने कहा-‘प्रभो! माधवी देवीके यहाँसे ये आये हैं।’
महाप्रभु ‘माधवीके यहाँ चावल लेने कौन गया था ?’ भगवानाचार्य — ‘छोटे हरिदास।’
यह सुनकर महाप्रभु चुप हो गये। भिक्षा ग्रहण करनेका जैसे उनमें उत्साह रहा ही नहीं। भगवत्प्रसाद समझकर कुछ ग्रास मुखमें डालकर महाप्रभु उठ गये। अपने स्थानपर आकर उन्होंने आदेश दिया- ‘आजसे छोटा हरिदास मेरे यहाँ कभी नहीं आ पावेगा । उसने कभी यहाँ भूलसे भी पैर रखा तो मैं बहुत असंतुष्ट होऊँगा ।’
महाप्रभुके सेवक तो स्तब्ध रह गये। समाचार पाकर छोटे हरिदास बहुत दुःखी हुए; किंतु महाप्रभुने किसी प्रकार उन्हें अपने पास आनेकी अनुमति नहीं दी। सभी भक्तोंने प्रार्थना की, श्रीपरमानन्दपुरीजीने भी महाप्रभुसे कहा – ‘हरिदासको क्षमा कर दीजिये!’ परंतु महाप्रभुने बहुत रुक्ष-भंगी बना ली थी। वे पुरी छोड़कर अलालनाथ जाकर रहनेको प्रस्तुत हो गये। छोटे हरिदासने अन्न-जल त्याग दिया; परंतु उनके अनशनका भी महाप्रभुपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
अन्तमें दुःखी होकर छोटे हरिदास पुरीसे पैदल चलकर प्रयाग आये और वहाँ उन्होंने गङ्गा-यमुनाके संगममें देहत्याग कर दिया। यह समाचार जब महाप्रभुको मिला तब उन्होंने कहा- ‘साधु होकर स्त्रियोंसे बातचीत करे, उनको चरण छूने दे, यह तो महापाप है। हरिदासने अपने पापके उपयुक्त ही प्रायश्चित्त किया है।’ महाप्रभुने ही एक बार सार्वभौम भट्टाचार्यसे कहा है
निष्किञ्चनस्य भगवद्भजनोन्मुखस्य
पारं परं जिगमिषोर्भवसागरस्य ।
संदर्शनं विषयिणामथ योषितां च
हा हन्त ! हन्त ! विषभक्षणतोऽप्यसाधुः ॥