विवशता

relaxation calmed down meditation

बात है तेरह सौ वर्षसे भी अधिककी । रत्नोंका व्यापार करनेवाला एक जौहरी था। व्यवसायकी दृष्टिसे वह प्रख्यात रोम नगरमें गया और वहाँके मन्त्रीसे मिला। मन्त्रीने उसका स्वागत किया। मन्त्रीके अनुरोधसे जौहरी घोड़े पर सवार होकर भ्रमणार्थ नगरके बाहर गया। कुछ दूर जानेपर सघन वन मिला। वहाँ उसने देखा मणि मुक्ताओं एवं मूल्यवान् रत्नोंसे सजा हुआ एक मण्डप है और मण्डपके आगे सुसज्जित सैनिकदल चारों ओर घूमकर प्रदक्षिणा कर रहा है। प्रदक्षिणाके बाद सैनिकदलने रोमन भाषामें कुछ कहा और वह एक ओर चला गया। इसके अनन्तर उज्ज्वल परिधान पहने वृद्धोंका समूह आया। उसने भी वैसा ही किया। इसके बाद चार सौ पण्डित आये। उन्होंने भी मण्डपकी प्रदक्षिणा की और कुछ बोलकर चले गये। इसके अनन्तर दो सौ रूपवती युवतियाँ मणि-मुक्ताओंसे भरे थाल लिये आयीं और वे भी प्रदक्षिणाकर कुछ बोलकर चली गयीं। इसके बाद मुख्य मन्त्रीके साथ सम्राट्ने प्रवेश किया और वे भी उसी प्रकार वापस चले गये।

जौहरी चकित था। वह कुछ भी नहीं समझ पा रहा था कि यह क्या हो रहा है। उसने अपने मित्र मन्त्रीसे पूछा। मन्त्रीने बताया-सम्राट्के धन-वैभवकी सीमा नहीं। किंतु उनके एक ही पुत्र था। भरी जवानीमें चल बसा। यहाँ उसकी कब्र है। प्रतिवर्ष सम्राट् अपने सैनिकों तथा पारिवारिक व्यक्तियोंके साथ बालककेमृत्यु- दिवसपर आते हैं और जो कुछ करते हैं, वह तुमने देखा ही हैं। सैनिकोंने कहा था- ‘हे राजकुमार ! भूतलपर कोई भी अमित शक्ति होती तो उसका ध्वंसकर हम तुम्हें निश्चय ही अपने पास ले आते, पर मृत्युपर अपना कोई भी वश नहीं। हम सर्वथा विवश थे, इसी कारण तुम्हारी रक्षा नहीं कर सके।’

वृद्धसमुदायने कहा था- ‘वत्स! यदि हमारी आशीषमें इतनी शक्ति होती तो इस प्रकार धरतीमें तुम्हें सोते हम नहीं देख सकते, पर कराल कालके सम्मुख हमारी आशीषकी एक नहीं चल पाती।’

पण्डितोंने दुःखी मनसे कहा- ‘राजकुमार ! ज्ञान विज्ञान अथवा पाण्डित्यसे तुम्हारा जीवन सुरक्षित रह पाता तो हम तुम्हें जाने नहीं देते, पर मृत्युपर हमारा कोई वश नहीं।’

सौन्दर्य-पुत्तलिकाओंने दुःखी होकर कहा था ‘अन्नदाता ! धन-सम्पत्ति अथवा रूप लावण्य – यौवनसे हम तुम्हारी रक्षा कर सकतीं तो अपनी बलि दे देतीं, पर जीवन-मरणकी नियामिका शक्तिमें अपना कोई वश नहीं। वहाँ धन-सम्पत्ति, रूप-लावण्य-यौवनका कोई मूल्य नहीं।’

अन्तमें सम्राट्ने कहा था- ‘प्राणप्रिय पुत्र! अमित बल-सम्पन्न सैनिक, तपोनिधि वयोवृद्ध समुदाय, ज्ञान विज्ञान-सम्पन्न विद्वत्-समुदाय और रूप-लावण्य-यौवन सम्पन्न कोमलाङ्गियाँ–जगत्की सभी वस्तु तो मैं यहाँले आया, किंतु जो कुछ हो गया है, उसे मिटानेकी सामर्थ्य तेरे इस पितामें ही नहीं, विश्वकी सम्पूर्ण शक्तिमें भी नहीं है। वह शक्ति अद्भुत है।’

मन्त्रीकी इन बातोंको सुनकर जौहरीका हृदय अशान्त हो गया। संसार उन्हें जैसे काटने दौड़ रहा था। व्यवसाय आदिका सारा काम छोड़कर वे बसराभागे और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि ‘जबतक मेरे काम क्रोधादि विकार सर्वथा नहीं मिट जायँगे, तबतक मैं जगत् के किसी कार्यमें सम्मिलित नहीं होऊँगा न कभी हँसूँगा और न मौज-शौक कर सकूँगा ।’ उसी समयसे वे प्रभु – स्मरणमें लग गये।

– शि0 दु0

बात है तेरह सौ वर्षसे भी अधिककी । रत्नोंका व्यापार करनेवाला एक जौहरी था। व्यवसायकी दृष्टिसे वह प्रख्यात रोम नगरमें गया और वहाँके मन्त्रीसे मिला। मन्त्रीने उसका स्वागत किया। मन्त्रीके अनुरोधसे जौहरी घोड़े पर सवार होकर भ्रमणार्थ नगरके बाहर गया। कुछ दूर जानेपर सघन वन मिला। वहाँ उसने देखा मणि मुक्ताओं एवं मूल्यवान् रत्नोंसे सजा हुआ एक मण्डप है और मण्डपके आगे सुसज्जित सैनिकदल चारों ओर घूमकर प्रदक्षिणा कर रहा है। प्रदक्षिणाके बाद सैनिकदलने रोमन भाषामें कुछ कहा और वह एक ओर चला गया। इसके अनन्तर उज्ज्वल परिधान पहने वृद्धोंका समूह आया। उसने भी वैसा ही किया। इसके बाद चार सौ पण्डित आये। उन्होंने भी मण्डपकी प्रदक्षिणा की और कुछ बोलकर चले गये। इसके अनन्तर दो सौ रूपवती युवतियाँ मणि-मुक्ताओंसे भरे थाल लिये आयीं और वे भी प्रदक्षिणाकर कुछ बोलकर चली गयीं। इसके बाद मुख्य मन्त्रीके साथ सम्राट्ने प्रवेश किया और वे भी उसी प्रकार वापस चले गये।
जौहरी चकित था। वह कुछ भी नहीं समझ पा रहा था कि यह क्या हो रहा है। उसने अपने मित्र मन्त्रीसे पूछा। मन्त्रीने बताया-सम्राट्के धन-वैभवकी सीमा नहीं। किंतु उनके एक ही पुत्र था। भरी जवानीमें चल बसा। यहाँ उसकी कब्र है। प्रतिवर्ष सम्राट् अपने सैनिकों तथा पारिवारिक व्यक्तियोंके साथ बालककेमृत्यु- दिवसपर आते हैं और जो कुछ करते हैं, वह तुमने देखा ही हैं। सैनिकोंने कहा था- ‘हे राजकुमार ! भूतलपर कोई भी अमित शक्ति होती तो उसका ध्वंसकर हम तुम्हें निश्चय ही अपने पास ले आते, पर मृत्युपर अपना कोई भी वश नहीं। हम सर्वथा विवश थे, इसी कारण तुम्हारी रक्षा नहीं कर सके।’
वृद्धसमुदायने कहा था- ‘वत्स! यदि हमारी आशीषमें इतनी शक्ति होती तो इस प्रकार धरतीमें तुम्हें सोते हम नहीं देख सकते, पर कराल कालके सम्मुख हमारी आशीषकी एक नहीं चल पाती।’
पण्डितोंने दुःखी मनसे कहा- ‘राजकुमार ! ज्ञान विज्ञान अथवा पाण्डित्यसे तुम्हारा जीवन सुरक्षित रह पाता तो हम तुम्हें जाने नहीं देते, पर मृत्युपर हमारा कोई वश नहीं।’
सौन्दर्य-पुत्तलिकाओंने दुःखी होकर कहा था ‘अन्नदाता ! धन-सम्पत्ति अथवा रूप लावण्य – यौवनसे हम तुम्हारी रक्षा कर सकतीं तो अपनी बलि दे देतीं, पर जीवन-मरणकी नियामिका शक्तिमें अपना कोई वश नहीं। वहाँ धन-सम्पत्ति, रूप-लावण्य-यौवनका कोई मूल्य नहीं।’
अन्तमें सम्राट्ने कहा था- ‘प्राणप्रिय पुत्र! अमित बल-सम्पन्न सैनिक, तपोनिधि वयोवृद्ध समुदाय, ज्ञान विज्ञान-सम्पन्न विद्वत्-समुदाय और रूप-लावण्य-यौवन सम्पन्न कोमलाङ्गियाँ-जगत्की सभी वस्तु तो मैं यहाँले आया, किंतु जो कुछ हो गया है, उसे मिटानेकी सामर्थ्य तेरे इस पितामें ही नहीं, विश्वकी सम्पूर्ण शक्तिमें भी नहीं है। वह शक्ति अद्भुत है।’
मन्त्रीकी इन बातोंको सुनकर जौहरीका हृदय अशान्त हो गया। संसार उन्हें जैसे काटने दौड़ रहा था। व्यवसाय आदिका सारा काम छोड़कर वे बसराभागे और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि ‘जबतक मेरे काम क्रोधादि विकार सर्वथा नहीं मिट जायँगे, तबतक मैं जगत् के किसी कार्यमें सम्मिलित नहीं होऊँगा न कभी हँसूँगा और न मौज-शौक कर सकूँगा ।’ उसी समयसे वे प्रभु – स्मरणमें लग गये।
– शि0 दु0

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