विभिन्न धर्म-संस्कृतियोंकी प्रेरक बोधकथाएँ
धूर्त बगुला
(महामहोपाध्याय प्रो0 श्रीप्रभुनाथजी द्विवेदी)
प्राचीन कालमें किसी समय बोधिसत्त्व कमलसे भरे हुए अगाध जलवाले सरोवरके किनारे स्थित एक वृक्षपर वनदेवताके रूपमें उत्पन्न होकर सुखपूर्वक विहार कर रहे थे। एक वर्ष ग्रीष्मकालमें भीषण तापसे छोटे-छोटे अन्य तालाबोंका पानी सूखने लगा। एक ऐसे ही तालाब में बहुत सारी मछलियाँ और अन्य भी जल-जन्तु थे। उसी छोटे तालाब में प्रायः एक
बगुला भी कभी कभी आया करता था। उसने उस तालाबको सूखते हुए देखा तो उसके मनमें कपट पैदा हुआ। उसने निश्चय किया कि मैं इस मौके का फायदा उठाऊँगा। भगवान्ने मुझे अच्छा अवसर दिया है। मैं इन मछलियोंको प्रलोभन देकर छलपूर्वक एक-एक करके सबको खा जाऊँगा। ऐसा सोचकर वह चिन्तनमग्न मुद्रामें तालाबके किनारे एक पाँवपर खड़ा होकर इधर-उधर देखने लगा ।
अन्दर से कपटी किंतु बाहरसे सौम्य स्वभाववाले उस बगुलेको इस प्रकार पानीमें खड़ा देखकर कुछ मछलियाँ डरते-डरते उसके पास पहुँचकर बोलीं ‘महाशय, आप इस तरह चिन्तित क्यों लग रहे हैं ?’ बगलेने बहुत दुखी और गम्भीर स्वरमें कहा- ‘मेरे प्यारे मित्रो! मैं आप लोगोंके भविष्यके सम्बन्धमें चिन्तित हूँ।’ उन मछलियोंने बगुलेसे व्यग्रतापूर्वक पूछा- ‘कैसी चिन्ता ?” बगुला बोला- ‘यही कि इस तालाबका पानी लगातार सूखता जा रहा है। तपन भी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अभी वर्षाकी कोई आशा भी नहीं है। तालाबमें भक्ष्य वस्तुओंका अभाव है और शीघ्र ही तालाब भी सूख जानेवाला है। ऐसी स्थितिमें आप सबका क्या होगा ? यही चिन्ता करता हुआ यहाँ खड़ा हूँ।’
तब मछलियोंने बगुलेसे पूछा – ‘महाशय, फिर हम लोग क्या करें ?’ बगुला तो यही चाहता था। उसने लगभग रुआँसे होकर कहा-‘मैं आप सबको तड़पकर मरते हुए नहीं देख सकता। हाँ, यदि आप सब मुझपर विश्वास करें तो एक उपाय है।’ आतुर मछलियोंने एक स्वरमें पूछा – ‘वह क्या है ?’ बगुलेने धीरतापूर्वक वह उपाय बताया- ‘यहाँसे कुछ दूरपर कमलोंसे भरा हुआ अगाध नीरवाला एक महान् सरोवर है। मैं एक-एक करके आपको अपनी चोंचमें दबाकर उड़ता हुआ उस सरोवरमें छोड़ दूँगा, जहाँ आपको आनन्द-ही-आनन्द मिलेगा।’ इतना कहकर वह धूर्त बगुला चुप हो गया। मछलियाँ आपसमें कानाफूसी करने लगीं।
कुछ देर बाद एक मछलीने सबको सुनाते हुए बगलेको लक्ष्य करके कहा- ‘मान्यवर, सृष्टिके प्रथम कल्पसे लेकर आजतक इस पृथ्वीपर मछलियोंका हितचिन्तन करनेवाला कोई बगुला नहीं हुआ। लगता है, आप हम सबको एक-एककर खाना चाहते हैं।’ बगुलेको पहलेसे ही ऐसे प्रश्नका अनुमान था । अतः वह बिना तिलमिलाये, शान्त स्वरमें बोला ‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। आप लोग मुझे गलत मत समझिये। मैं वाकई आप सबका भला चाहता हूँ और आपकी प्राणरक्षाका प्रयास करना चाहता हूँ। बस, आप सब मुझपर विश्वास कीजिये। आपके साथ कोई धोखा नहीं होगा। अरे, मैं भी बाल बच्चेवाला हूँ, मुझे तो आप लोगोंपर आनेवाली विपत्तिका ध्यान करके दया आ गयी। आगे आपकी मर्जी!’ ऐसा कहकर वह निरपेक्ष भावसे खड़ा रहा। मछलियोंने कहा- ‘आप अन्यथा मत मानिये। आप सचमुच दयालु हैं।’
बगुलेने पुनः विश्वास जमानेके लिये एक दूसरी चाल चली। उसने कहा कि ‘यदि मेरी सरोवरवाली बातपर विश्वास न हो तो कोई एक मछली मेरे साथ चलकर प्रत्यक्ष देख ले। उसे पुनः यहीं छोड़ जाऊँगा।’ इसपर मछलियाँ सहमत हो गयीं और सयानी कानी मछलीको बगलेके साथ भेज दिया। बगुला उसे चोंचमें दबाकर उस सरोवरमें ले गया। वह कानी मछली उस महासरोवरकी सैर करके वापस लौटी और उसने उस जलाशयके वैभवका खूब बखान किया। अब सारी मछलियाँ इस क्षुद्र तालाबको छोड़कर उस समुद्र-जैसे विशाल सरोवरमें जानेके लिये तैयार हो गयीं। सर्वप्रथम उस कानी मछलीने ही चलनेकी जिद की। बगुला बोला-‘सबको बारी-बारीसे ले जायँगे, अधीर मत होइये’ कहकर उस कानी मछलीको चोंचमें कसकर पकड़े हुए उड़ चला ।
बगुला उसे महासरोवर के किनारे उगे एक वृक्षकी डालपर ले जाकर, चोंचसे विदीर्ण करके खा गया। उसके काँटों (हड्डियों) को वृक्षके नीचे गिराकर कुछ देर बाद फिर उस छोटे तालाबपर गया। उसे वापस आया देखकर मछलियाँ बहुत प्रसन्न हुईं। बगुलेने कहा- ‘वह कानी मछली बड़ी सयानी है। अब वह उस सरोवरमें आनन्दपूर्वक क्रीड़ा कर रही है। वह वहाँकी मछलियोंसे मेल-जोल भी बढ़ा रही है। यह आप सबके लिये अच्छा ही है। अच्छा, अब कोई एक आओ, उसे भी सुखसागरमें पहुँचा आऊँ।’ इस तरह वह धूर्त बगुला एक-एक करके लगातर कई दिनोंमें इस छोटे तालाबकी सभी मछलियोंको उस वृक्षपर ले जाकर मारकर खा गया। मछलियोंके काँटोंसे उस वृक्षके नीचेकी जमीन पट गयी।
अन्तिम बार वह छोटे तालाबपर आया तो वहाँ कोई मछली न बची थी, केवल एक मोटा-ताजा केकड़ा रेंग रहा था। उसके मांसल शरीरको देखकर बगलेने उसे भी चट कर जानेका विचार किया। इस आशयसे उसने प्रेमभरी आवाजमें केकड़ेको पुकारा और कहा—’प्रिय भानजे! देखो, इस तालाबको सूखनेमें कोई देर न लगेगी। मैंने दयावश सारी मछलियोंका उद्धार कर दिया है। वे मेरे द्वारा पहुँचायी गयी उस महासमुद्र में मोक्षसुख-जैसा आनन्द ले रही हैं । यदि तुम भी उनके पास चलना चाहो – और इसीमें तुम्हारी भलाई है – तो मैं तुम्हें भी ले चलूँगा । ‘
केकड़ेने पूछा- ‘मुझे कैसे ले चलोगे ?’
बगुलेने उत्तर दिया- ‘वैसे ही, जैसे मछलियोंको चोंचसे पकड़कर ले गया हूँ । ‘
केकड़ेने एकदम इनकार करते हुए कहा- ‘नहीं नहीं, ऐसे पकड़कर ले जाते हुए तू मुझे गिरा देगा। मामा, मैं तेरे साथ नहीं जाऊँगा ।’
बगुला हँसकर बोला-‘अरे भानजे! तू डरता क्यों है ? मैं तुझे अच्छी तरह सँभालकर ले चलूँगा ।’
केकड़ा चुपचाप कुछ देरतक सोचता रहा- यह भरोसेलायक नहीं। इसने निश्चय ही मछलियोंको सरोवरमें नहीं छोड़ा है। यदि यह ले जाकर मुझे वहाँ अगाध जलमें छोड़ेगा तब तो इसका कुशल है, अन्यथा मैं इसकी गरदन काटकर जान ले लूँगा इतना संकल्प करके वह बोला ‘मामा! मुझे सन्देह है कि तुम मुझे अच्छी तरह पकड़कर ले चल सकोगे। तुम्हारी चोंच कभी भी खुल सकती है। किंतु हमारी पकड़ मजबूत होती है। इसलिये मैं तुम्हारी चोंचसे लटककर नहीं, गरदनपर बैठकर मजबूतीसे पकड़ बनाकर तुम्हारे साथ चलूँगा।’
केकड़ेकी चालाकी न समझकर बगुलेने ‘बहुत अच्छा’ कहकर हामी भर दी। केकड़ा बगुलेकी गरदनपर सवार हो, अपने आगेके सिरसे उसकी गरदन पकड़कर बैठ गया और बगुलेसे बोला- ‘मामा! अब चलो।’ बगुला केकड़ेके साथ उड़ चला और थोड़ी देर में सरोवर के पास पहुँचकर केकड़ेको कमलोंसे आच्छादित वह अगाध जलाशय दिखाकर, उसके चारों ओर चक्कर लगाकर, किनारेके उसी वृक्षकी ओर लेकर चला।
केकड़ेने उसे टोंकते हुए कहा- ‘मामा! सरोवरको छोड़कर तुम मुझे कहाँ लिये जा रहे हो ?’ बगुला हँसकर बोला-‘प्रिय भानजे मैं तो तुम्हारा कंस-जैसा मामा हूँ। क्या तुमने मुझे अपना दास समझ रखा है, जो मैं तुम्हें अपनी पीठपर बैठाकर आकाशकी सैर कराऊँ और फिर तुझे अगाध नीरमें टपका दूँ? तुमने मुझे पहचाननेमें भूल कर दी। वृक्षके नीचे मछलीके काँटोंका ढेर देखकर अब अन्त समयमें भगवान्का स्मरण कर लो।’
केकड़ा तो मजेमें बैठा था और उसने यह सब
कुछ पहले ही सोच लिया था। वह हँसा और बोला ‘कंस मामा! अब तुम अपने भगवान्को याद कर लो। अंत मेरा नहीं, तेरा निकट आ गया है। मछलियोंकी मूर्खताके कारण तुम्हारी दाल गल गयी और तू उन्हें खा गया। लेकिन तेरे प्राण तो मेरे वशमें हैं। यदि अब भी तुम्हारी बुद्धि ठिकाने नहीं आयी, तो अभी अपने सिउँठेसे तेरी गरदन कमलनालकी तरह कतर डालूँगा और तू अपने कुकर्मोंका फल पा जायगा।’ ऐसा कहकर केकड़ा अपने सिउँठेसे उसकी गरदनको कसने लगा।
अब तो डरके मारे बगुलेकी घिग्घी बँध गयी और उसकी आँखोंसे झर-झर आँसू गिरने लगे। वह प्राणभयसे त्रस्त होकर केकड़ेसे विनती करने लगा ‘आप मेरे स्वामी (मालिक) हैं। मैं भला आपको कैसे खा सकता हूँ! मैं प्राणोंकी भीख माँगता हूँ। कृपया मुझपर प्रसन्न होइये।’ वह बार-बार अनुनय-विनय करने लगा। तब केकड़ेने उसकी गरदनपर अपनी पकड़ ढीली कर दी और कहा कि तुम मुझे महासरोवरके तटपर अंगुल-भर पानीमें उतारो। बगुला भयके मारे काँपता हुआ, किंतु सावधानीसे नीचे उतरते हुए उस कमल-वनकी ओर धीरे-धीरे बढ़ा और तटपर पहुँचकर छिछले पानीमें खड़ा हो गया। केकड़ेने मछलियोंके ढेर सारे काँटे वृक्षके नीचे प्रत्यक्ष किये थे। वह मछलियों के मारे जानेसे बड़ा दुखी था। उसने बगुलेकी धूर्तताका बदला लेनेके लिये उसे उचित दण्ड देकर ही पानीमें जानेका निश्चय किया और कैंचीके समान तेज अपने सिउँठेसे बगुलेकी गरदन काटकर पानीमें प्रवेश किया। फलतः उस बगुले और उसकी धूर्तताका सदा-सदाके लिये अन्त हो गया।
यह आश्चर्य देखकर उस वृक्षपर निवास करनेवाले वनदेवताने साधुवाद देते हुए वनको निनादित किया और एक शाश्वत सत्यविषयक गाथाका गान किया, जिसका उपदेश इस प्रकार है
‘अत्यन्त धोखेबाज व्यक्ति अपनी धूर्ततासे चिरकालतक सुख प्राप्त नहीं कर सकता। उसका अन्त सदैव दुःखद होता है। कोई-न-कोई उसे दण्ड | देनेवाला मिल ही जाता है। यहाँ बगुला अपनी धूर्तताका दण्ड केकड़ेके द्वारा पा गया और मारा गया। अतः सन्मार्गपर चलना ही श्रेयस्कर है।’
विभिन्न धर्म-संस्कृतियोंकी प्रेरक बोधकथाएँ
धूर्त बगुला
(महामहोपाध्याय प्रो0 श्रीप्रभुनाथजी द्विवेदी)
प्राचीन कालमें किसी समय बोधिसत्त्व कमलसे भरे हुए अगाध जलवाले सरोवरके किनारे स्थित एक वृक्षपर वनदेवताके रूपमें उत्पन्न होकर सुखपूर्वक विहार कर रहे थे। एक वर्ष ग्रीष्मकालमें भीषण तापसे छोटे-छोटे अन्य तालाबोंका पानी सूखने लगा। एक ऐसे ही तालाब में बहुत सारी मछलियाँ और अन्य भी जल-जन्तु थे। उसी छोटे तालाब में प्रायः एक
बगुला भी कभी कभी आया करता था। उसने उस तालाबको सूखते हुए देखा तो उसके मनमें कपट पैदा हुआ। उसने निश्चय किया कि मैं इस मौके का फायदा उठाऊँगा। भगवान्ने मुझे अच्छा अवसर दिया है। मैं इन मछलियोंको प्रलोभन देकर छलपूर्वक एक-एक करके सबको खा जाऊँगा। ऐसा सोचकर वह चिन्तनमग्न मुद्रामें तालाबके किनारे एक पाँवपर खड़ा होकर इधर-उधर देखने लगा ।
अन्दर से कपटी किंतु बाहरसे सौम्य स्वभाववाले उस बगुलेको इस प्रकार पानीमें खड़ा देखकर कुछ मछलियाँ डरते-डरते उसके पास पहुँचकर बोलीं ‘महाशय, आप इस तरह चिन्तित क्यों लग रहे हैं ?’ बगलेने बहुत दुखी और गम्भीर स्वरमें कहा- ‘मेरे प्यारे मित्रो! मैं आप लोगोंके भविष्यके सम्बन्धमें चिन्तित हूँ।’ उन मछलियोंने बगुलेसे व्यग्रतापूर्वक पूछा- ‘कैसी चिन्ता ?” बगुला बोला- ‘यही कि इस तालाबका पानी लगातार सूखता जा रहा है। तपन भी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अभी वर्षाकी कोई आशा भी नहीं है। तालाबमें भक्ष्य वस्तुओंका अभाव है और शीघ्र ही तालाब भी सूख जानेवाला है। ऐसी स्थितिमें आप सबका क्या होगा ? यही चिन्ता करता हुआ यहाँ खड़ा हूँ।’
तब मछलियोंने बगुलेसे पूछा – ‘महाशय, फिर हम लोग क्या करें ?’ बगुला तो यही चाहता था। उसने लगभग रुआँसे होकर कहा-‘मैं आप सबको तड़पकर मरते हुए नहीं देख सकता। हाँ, यदि आप सब मुझपर विश्वास करें तो एक उपाय है।’ आतुर मछलियोंने एक स्वरमें पूछा – ‘वह क्या है ?’ बगुलेने धीरतापूर्वक वह उपाय बताया- ‘यहाँसे कुछ दूरपर कमलोंसे भरा हुआ अगाध नीरवाला एक महान् सरोवर है। मैं एक-एक करके आपको अपनी चोंचमें दबाकर उड़ता हुआ उस सरोवरमें छोड़ दूँगा, जहाँ आपको आनन्द-ही-आनन्द मिलेगा।’ इतना कहकर वह धूर्त बगुला चुप हो गया। मछलियाँ आपसमें कानाफूसी करने लगीं।
कुछ देर बाद एक मछलीने सबको सुनाते हुए बगलेको लक्ष्य करके कहा- ‘मान्यवर, सृष्टिके प्रथम कल्पसे लेकर आजतक इस पृथ्वीपर मछलियोंका हितचिन्तन करनेवाला कोई बगुला नहीं हुआ। लगता है, आप हम सबको एक-एककर खाना चाहते हैं।’ बगुलेको पहलेसे ही ऐसे प्रश्नका अनुमान था । अतः वह बिना तिलमिलाये, शान्त स्वरमें बोला ‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। आप लोग मुझे गलत मत समझिये। मैं वाकई आप सबका भला चाहता हूँ और आपकी प्राणरक्षाका प्रयास करना चाहता हूँ। बस, आप सब मुझपर विश्वास कीजिये। आपके साथ कोई धोखा नहीं होगा। अरे, मैं भी बाल बच्चेवाला हूँ, मुझे तो आप लोगोंपर आनेवाली विपत्तिका ध्यान करके दया आ गयी। आगे आपकी मर्जी!’ ऐसा कहकर वह निरपेक्ष भावसे खड़ा रहा। मछलियोंने कहा- ‘आप अन्यथा मत मानिये। आप सचमुच दयालु हैं।’
बगुलेने पुनः विश्वास जमानेके लिये एक दूसरी चाल चली। उसने कहा कि ‘यदि मेरी सरोवरवाली बातपर विश्वास न हो तो कोई एक मछली मेरे साथ चलकर प्रत्यक्ष देख ले। उसे पुनः यहीं छोड़ जाऊँगा।’ इसपर मछलियाँ सहमत हो गयीं और सयानी कानी मछलीको बगलेके साथ भेज दिया। बगुला उसे चोंचमें दबाकर उस सरोवरमें ले गया। वह कानी मछली उस महासरोवरकी सैर करके वापस लौटी और उसने उस जलाशयके वैभवका खूब बखान किया। अब सारी मछलियाँ इस क्षुद्र तालाबको छोड़कर उस समुद्र-जैसे विशाल सरोवरमें जानेके लिये तैयार हो गयीं। सर्वप्रथम उस कानी मछलीने ही चलनेकी जिद की। बगुला बोला-‘सबको बारी-बारीसे ले जायँगे, अधीर मत होइये’ कहकर उस कानी मछलीको चोंचमें कसकर पकड़े हुए उड़ चला ।
बगुला उसे महासरोवर के किनारे उगे एक वृक्षकी डालपर ले जाकर, चोंचसे विदीर्ण करके खा गया। उसके काँटों (हड्डियों) को वृक्षके नीचे गिराकर कुछ देर बाद फिर उस छोटे तालाबपर गया। उसे वापस आया देखकर मछलियाँ बहुत प्रसन्न हुईं। बगुलेने कहा- ‘वह कानी मछली बड़ी सयानी है। अब वह उस सरोवरमें आनन्दपूर्वक क्रीड़ा कर रही है। वह वहाँकी मछलियोंसे मेल-जोल भी बढ़ा रही है। यह आप सबके लिये अच्छा ही है। अच्छा, अब कोई एक आओ, उसे भी सुखसागरमें पहुँचा आऊँ।’ इस तरह वह धूर्त बगुला एक-एक करके लगातर कई दिनोंमें इस छोटे तालाबकी सभी मछलियोंको उस वृक्षपर ले जाकर मारकर खा गया। मछलियोंके काँटोंसे उस वृक्षके नीचेकी जमीन पट गयी।
अन्तिम बार वह छोटे तालाबपर आया तो वहाँ कोई मछली न बची थी, केवल एक मोटा-ताजा केकड़ा रेंग रहा था। उसके मांसल शरीरको देखकर बगलेने उसे भी चट कर जानेका विचार किया। इस आशयसे उसने प्रेमभरी आवाजमें केकड़ेको पुकारा और कहा—’प्रिय भानजे! देखो, इस तालाबको सूखनेमें कोई देर न लगेगी। मैंने दयावश सारी मछलियोंका उद्धार कर दिया है। वे मेरे द्वारा पहुँचायी गयी उस महासमुद्र में मोक्षसुख-जैसा आनन्द ले रही हैं । यदि तुम भी उनके पास चलना चाहो – और इसीमें तुम्हारी भलाई है – तो मैं तुम्हें भी ले चलूँगा । ‘
केकड़ेने पूछा- ‘मुझे कैसे ले चलोगे ?’
बगुलेने उत्तर दिया- ‘वैसे ही, जैसे मछलियोंको चोंचसे पकड़कर ले गया हूँ । ‘
केकड़ेने एकदम इनकार करते हुए कहा- ‘नहीं नहीं, ऐसे पकड़कर ले जाते हुए तू मुझे गिरा देगा। मामा, मैं तेरे साथ नहीं जाऊँगा ।’
बगुला हँसकर बोला-‘अरे भानजे! तू डरता क्यों है ? मैं तुझे अच्छी तरह सँभालकर ले चलूँगा ।’
केकड़ा चुपचाप कुछ देरतक सोचता रहा- यह भरोसेलायक नहीं। इसने निश्चय ही मछलियोंको सरोवरमें नहीं छोड़ा है। यदि यह ले जाकर मुझे वहाँ अगाध जलमें छोड़ेगा तब तो इसका कुशल है, अन्यथा मैं इसकी गरदन काटकर जान ले लूँगा इतना संकल्प करके वह बोला ‘मामा! मुझे सन्देह है कि तुम मुझे अच्छी तरह पकड़कर ले चल सकोगे। तुम्हारी चोंच कभी भी खुल सकती है। किंतु हमारी पकड़ मजबूत होती है। इसलिये मैं तुम्हारी चोंचसे लटककर नहीं, गरदनपर बैठकर मजबूतीसे पकड़ बनाकर तुम्हारे साथ चलूँगा।’
केकड़ेकी चालाकी न समझकर बगुलेने ‘बहुत अच्छा’ कहकर हामी भर दी। केकड़ा बगुलेकी गरदनपर सवार हो, अपने आगेके सिरसे उसकी गरदन पकड़कर बैठ गया और बगुलेसे बोला- ‘मामा! अब चलो।’ बगुला केकड़ेके साथ उड़ चला और थोड़ी देर में सरोवर के पास पहुँचकर केकड़ेको कमलोंसे आच्छादित वह अगाध जलाशय दिखाकर, उसके चारों ओर चक्कर लगाकर, किनारेके उसी वृक्षकी ओर लेकर चला।
केकड़ेने उसे टोंकते हुए कहा- ‘मामा! सरोवरको छोड़कर तुम मुझे कहाँ लिये जा रहे हो ?’ बगुला हँसकर बोला-‘प्रिय भानजे मैं तो तुम्हारा कंस-जैसा मामा हूँ। क्या तुमने मुझे अपना दास समझ रखा है, जो मैं तुम्हें अपनी पीठपर बैठाकर आकाशकी सैर कराऊँ और फिर तुझे अगाध नीरमें टपका दूँ? तुमने मुझे पहचाननेमें भूल कर दी। वृक्षके नीचे मछलीके काँटोंका ढेर देखकर अब अन्त समयमें भगवान्का स्मरण कर लो।’
केकड़ा तो मजेमें बैठा था और उसने यह सब
कुछ पहले ही सोच लिया था। वह हँसा और बोला ‘कंस मामा! अब तुम अपने भगवान्को याद कर लो। अंत मेरा नहीं, तेरा निकट आ गया है। मछलियोंकी मूर्खताके कारण तुम्हारी दाल गल गयी और तू उन्हें खा गया। लेकिन तेरे प्राण तो मेरे वशमें हैं। यदि अब भी तुम्हारी बुद्धि ठिकाने नहीं आयी, तो अभी अपने सिउँठेसे तेरी गरदन कमलनालकी तरह कतर डालूँगा और तू अपने कुकर्मोंका फल पा जायगा।’ ऐसा कहकर केकड़ा अपने सिउँठेसे उसकी गरदनको कसने लगा।
अब तो डरके मारे बगुलेकी घिग्घी बँध गयी और उसकी आँखोंसे झर-झर आँसू गिरने लगे। वह प्राणभयसे त्रस्त होकर केकड़ेसे विनती करने लगा ‘आप मेरे स्वामी (मालिक) हैं। मैं भला आपको कैसे खा सकता हूँ! मैं प्राणोंकी भीख माँगता हूँ। कृपया मुझपर प्रसन्न होइये।’ वह बार-बार अनुनय-विनय करने लगा। तब केकड़ेने उसकी गरदनपर अपनी पकड़ ढीली कर दी और कहा कि तुम मुझे महासरोवरके तटपर अंगुल-भर पानीमें उतारो। बगुला भयके मारे काँपता हुआ, किंतु सावधानीसे नीचे उतरते हुए उस कमल-वनकी ओर धीरे-धीरे बढ़ा और तटपर पहुँचकर छिछले पानीमें खड़ा हो गया। केकड़ेने मछलियोंके ढेर सारे काँटे वृक्षके नीचे प्रत्यक्ष किये थे। वह मछलियों के मारे जानेसे बड़ा दुखी था। उसने बगुलेकी धूर्तताका बदला लेनेके लिये उसे उचित दण्ड देकर ही पानीमें जानेका निश्चय किया और कैंचीके समान तेज अपने सिउँठेसे बगुलेकी गरदन काटकर पानीमें प्रवेश किया। फलतः उस बगुले और उसकी धूर्तताका सदा-सदाके लिये अन्त हो गया।
यह आश्चर्य देखकर उस वृक्षपर निवास करनेवाले वनदेवताने साधुवाद देते हुए वनको निनादित किया और एक शाश्वत सत्यविषयक गाथाका गान किया, जिसका उपदेश इस प्रकार है
‘अत्यन्त धोखेबाज व्यक्ति अपनी धूर्ततासे चिरकालतक सुख प्राप्त नहीं कर सकता। उसका अन्त सदैव दुःखद होता है। कोई-न-कोई उसे दण्ड | देनेवाला मिल ही जाता है। यहाँ बगुला अपनी धूर्तताका दण्ड केकड़ेके द्वारा पा गया और मारा गया। अतः सन्मार्गपर चलना ही श्रेयस्कर है।’