तत्रैव गङ्गा यमुना च तत्र गोदावरी सिन्धुसरस्वती च ।
नद्यः समस्ता अप देवखातानमन्तियत्राच्युतसत्कथापराः॥
न कर्मलोपो न च बन्धलेशो न दुःखलेशो न च जन्मयोगःl न भूतयक्षादिपिशाचपीडा यत्राच्युतोदारकथाप्रसङ्गः ।।
(वायु0 माघमास0 20 । 4, 6 ) सत्ययुगका अन्तिम भाग समाप्त हो रहा था, तबकी बात है। गङ्गाजीसे दो कोस दक्षिण हटकर सत्यव्रत नामक ग्राममें एक महातपस्वी बृहत्तपा नामके ब्राह्मण रहते थे। उन्होंने दीर्घतमा नामक एक जन्मान्ध महर्षिको लगातार सौ वर्षतक भगवान्की कथा सुनायी थी। उसी सत्यव्रत गाँवमें एक और ब्राह्मण रहते थे, जिनका नाम था पुण्यधामा। जब बृहत्तपाकी कथा होने लगती, तब ये पुण्यधामाजी भी वहाँ अवश्य सुनने पहुँचते । ये पुण्यधामाजी इतने कथालोलुप थे कि सौ वर्षतक भगवत्कथा ही सुनते रह गये। यद्यपि गङ्गाजी वहाँसे दो कोसपर ही थीं, तथापि ये कथालोलुप पुण्यधामाजीसौ वर्षतक वहाँ स्नान करने भी नहीं गये। इनका पूर्ण विश्वास था कि भगवत् कथाके समीप समस्त तीर्थ आ जाते हैं। अतएव वे अन्यान्य सभी क्रियाओंका संकोच करके केवल परम पुण्यमय शतकोटिप्रविस्तर श्रीरामचरित्र, उतनी ही संख्याका पाञ्चरात्र तथा सभी इतिहास, पुराण, वेद, वेदान्त आदि हरिचरितामृतका ही श्रवण करते रह गये। तीनों संध्याओंके समय वे दशगायत्रीका जप तथा अन्य नित्यकर्मोंका भी वे संक्षेपतः अनुष्ठान कर लेते थे। रात्रिमें तीर्थयात्रियोंकी सेवा भी वे बड़े दत्तचित्त होकर करते थे। संक्षेपमें पुण्यधामाजीकी दो ही गतियाँ थीं-सदा विष्णुकथाका श्रवण और अतिथि-महात्माओंकी सेवा।
एक दिन पुण्यधामाजी जब कथा सुनकर लौटे, उसी समय उनके यहाँ दो महात्मा – धृतव्रत और ज्ञानसिन्धु – तीर्थ-यात्राके प्रसङ्गमें पधारे। पुण्यधामाजीने उन्हें देखा तो उनके चरणोंपर गिर पड़े, मधुपर्कादिसेउनकी पूजा की और अपने भाग्यकी सराहना करने लगे; तत्पश्चात् उन्हें भोजन कराकर उनके चरण दबाने लगे। पुण्यधामाजीकी पत्नी पंखा हाँक रही थीं। बात चीतके प्रसंग में दोनों महात्माओंने पुण्यधामाजी गङ्गाजीको वहाँसे दूरी पूछी। पुण्यधामाजीने बतलाया-‘महाराज मैं तो सौ वर्षोंसे कथा-श्रवणमें लगा रहा हूँ। मुझे वहाँ स्वयं जानेका अवसर नहीं आया, अतएव सुनिश्चित रूपसे तो कुछ बतला नहीं सकता। तथापि कई बार लोगों के मुँह से यह सुन चुका हूँ कि वे यहाँसे दो कोस उत्तर पड़ती हैं।’
इतना सुनना था कि दोनों मुनि बिगड़ पड़े। वे परस्पर कहने लगे – ‘अहो, इसके समान दूसरा पापी कौन है, जिसने कभी गङ्गाकी सेवा नहीं की। भला, जो सैकड़ों योजनोंसे भी गङ्गा-गङ्गा कहता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह विष्णुलोकको जाता है। गङ्गाके समीप होनेपर भी जो उनकी सेवा नहीं करता, वह आत्महत्यारा तो सर्वकर्मसे बहिष्कृत करने योग्य है। देवों, पितरों तथा मुनियोंकी आशा भङ्ग करनेवाला यह अवश्य ही नरकमें जाता है। आज दुर्भाग्यवशात् अनजाने ही हमलोगोंको इसके सङ्गसे महान् पाप लग गया।’ यों कहकर वे तत्काल वहाँसे उठकर चल दिये और प्रातः काल बड़ी उत्कण्ठासे गङ्गा-तटपर पहुँचे। दूरसे ही नमस्कार करते हुए वे स्वानार्थ समीप पहुँचे तो उन्हें कहीं जल नहीं दीखा। वे गङ्गासागरसे लेकर हिमालयतक गङ्गातटपर घूमते रहे, पर उन्हें नाममात्रको भी जल नहीं मिला। अन्तमें काशी लौटकर वे गङ्गाजीकी प्रार्थना करने लगे-देवि ! देवशिरोमणि महादेवने भी आपको सिरपर धारण कर रखा है। आप भगवान् विष्णुके चरण-नखसे निर्गत हुई।हैं। आप समस्त लोकको पवित्र करनेवाली हैं। जगद्धात्री ! माता! यदि हमसे कोई अपराध बन ही गया हो तो माँ! आपको अब क्षमा कर देना चाहिये।’
दोनोंने इस प्रकार स्तुति की तो दयामयी भगवती गङ्गा वहाँ प्रत्यक्ष प्रकट हो गयीं। वे मेघके समान गम्भीर वाणीसे बोलीं- ‘तुमने महाबुद्धिमान् पुण्यधामाकी निन्दा की है, यह बहुत बुरी बात हुई है। मैं स्वयं उस महाभागकी चरणरेणुकी प्रतीक्षामें रात-दिन बैठी रहती हूँ। जहाँ भगवान्की कथा होती है और भगवदाश्रित साधुजन रहते हैं, वहाँ सारे तीर्थ रहते हैं- इसमें विचारनेकी कोई बात नहीं। * विष्णुकथाका श्रवण कीर्तन ही ‘विधि’ है, उसे भूलना ही ‘निषेध’ है। अन्य सारे विधि-निषेध इन दोनोंके किंकर हैं। करोड़ों ब्रह्महत्याओंका पाप तो किसी प्रकार शान्त भी किया जा सकता है, पर भगवद्भक्तोंकी निन्दाका पाप अरब खरब कल्पोंमें भी नष्ट नहीं होता। हजारों पापोंसे निस्तार सम्भव है; पर विष्णु, उनकी कथा और उनके भक्तोंकी निन्दाकी कोई औषध नहीं है। जो महाभाग नित्य, सदा-सर्वदा भगवत्कथामें लीन है, उसने किस सत्कर्मका अनुष्ठान नहीं किया ? भगवान् सहस्रों अपराधों को भूल सकते हैं, पर अपने भक्तोंके अपमानको वे कभी नहीं क्षमा कर सकते। वे लक्ष्मीको तो कथंचित् छोड़नेको तैयार भी हो सकते हैं, पर वे भक्तवत्सल भक्तका परित्याग स्वप्रमें भी नहीं कर सकते । अतएव तुमलोग उस पुण्यधामाको प्रसन्न करो! जबतक ऐसा नहीं करते मैं प्रसन्न नहीं होती और तुम्हें जल नहीं दीखता ।
भगवती गङ्गाके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर वे दोनों मुनि सत्यव्रत ग्राममें गये और पुण्यधामासेप्रार्थना करने लगे। पुण्यधामा उन्हें लेकर अपने गुरुके पास गये। उन्होंने उन दोनोंको भी बुलाकर दो वर्षतक भगवत्कथा सुनायी। तत्पश्चात् वे पाँचों गङ्गातटपर आये। भगवती गङ्गाने उठकर बृहत्तपा, दीर्घतमा और पुण्यधामाकीपूजा की। साथमें आये हुए दोनों मुनियोंने भी देखा कि अब गङ्गाजी जलपूर्ण थीं। अब उन पाँचोंने वहाँ श्रद्धापूर्वक अवगाहन किया तथा परा सिद्धि प्राप्त की ।
-जा0 श0 (वायुपुराण माघमाहात्म्य, अध्याय 20)
तत्रैव गङ्गा यमुना च तत्र गोदावरी सिन्धुसरस्वती च ।
नद्यः समस्ता अप देवखातानमन्तियत्राच्युतसत्कथापराः॥
न कर्मलोपो न च बन्धलेशो न दुःखलेशो न च जन्मयोगःl न भूतयक्षादिपिशाचपीडा यत्राच्युतोदारकथाप्रसङ्गः ।।
(वायु0 माघमास0 20 । 4, 6 ) सत्ययुगका अन्तिम भाग समाप्त हो रहा था, तबकी बात है। गङ्गाजीसे दो कोस दक्षिण हटकर सत्यव्रत नामक ग्राममें एक महातपस्वी बृहत्तपा नामके ब्राह्मण रहते थे। उन्होंने दीर्घतमा नामक एक जन्मान्ध महर्षिको लगातार सौ वर्षतक भगवान्की कथा सुनायी थी। उसी सत्यव्रत गाँवमें एक और ब्राह्मण रहते थे, जिनका नाम था पुण्यधामा। जब बृहत्तपाकी कथा होने लगती, तब ये पुण्यधामाजी भी वहाँ अवश्य सुनने पहुँचते । ये पुण्यधामाजी इतने कथालोलुप थे कि सौ वर्षतक भगवत्कथा ही सुनते रह गये। यद्यपि गङ्गाजी वहाँसे दो कोसपर ही थीं, तथापि ये कथालोलुप पुण्यधामाजीसौ वर्षतक वहाँ स्नान करने भी नहीं गये। इनका पूर्ण विश्वास था कि भगवत् कथाके समीप समस्त तीर्थ आ जाते हैं। अतएव वे अन्यान्य सभी क्रियाओंका संकोच करके केवल परम पुण्यमय शतकोटिप्रविस्तर श्रीरामचरित्र, उतनी ही संख्याका पाञ्चरात्र तथा सभी इतिहास, पुराण, वेद, वेदान्त आदि हरिचरितामृतका ही श्रवण करते रह गये। तीनों संध्याओंके समय वे दशगायत्रीका जप तथा अन्य नित्यकर्मोंका भी वे संक्षेपतः अनुष्ठान कर लेते थे। रात्रिमें तीर्थयात्रियोंकी सेवा भी वे बड़े दत्तचित्त होकर करते थे। संक्षेपमें पुण्यधामाजीकी दो ही गतियाँ थीं-सदा विष्णुकथाका श्रवण और अतिथि-महात्माओंकी सेवा।
एक दिन पुण्यधामाजी जब कथा सुनकर लौटे, उसी समय उनके यहाँ दो महात्मा – धृतव्रत और ज्ञानसिन्धु – तीर्थ-यात्राके प्रसङ्गमें पधारे। पुण्यधामाजीने उन्हें देखा तो उनके चरणोंपर गिर पड़े, मधुपर्कादिसेउनकी पूजा की और अपने भाग्यकी सराहना करने लगे; तत्पश्चात् उन्हें भोजन कराकर उनके चरण दबाने लगे। पुण्यधामाजीकी पत्नी पंखा हाँक रही थीं। बात चीतके प्रसंग में दोनों महात्माओंने पुण्यधामाजी गङ्गाजीको वहाँसे दूरी पूछी। पुण्यधामाजीने बतलाया-‘महाराज मैं तो सौ वर्षोंसे कथा-श्रवणमें लगा रहा हूँ। मुझे वहाँ स्वयं जानेका अवसर नहीं आया, अतएव सुनिश्चित रूपसे तो कुछ बतला नहीं सकता। तथापि कई बार लोगों के मुँह से यह सुन चुका हूँ कि वे यहाँसे दो कोस उत्तर पड़ती हैं।’
इतना सुनना था कि दोनों मुनि बिगड़ पड़े। वे परस्पर कहने लगे – ‘अहो, इसके समान दूसरा पापी कौन है, जिसने कभी गङ्गाकी सेवा नहीं की। भला, जो सैकड़ों योजनोंसे भी गङ्गा-गङ्गा कहता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह विष्णुलोकको जाता है। गङ्गाके समीप होनेपर भी जो उनकी सेवा नहीं करता, वह आत्महत्यारा तो सर्वकर्मसे बहिष्कृत करने योग्य है। देवों, पितरों तथा मुनियोंकी आशा भङ्ग करनेवाला यह अवश्य ही नरकमें जाता है। आज दुर्भाग्यवशात् अनजाने ही हमलोगोंको इसके सङ्गसे महान् पाप लग गया।’ यों कहकर वे तत्काल वहाँसे उठकर चल दिये और प्रातः काल बड़ी उत्कण्ठासे गङ्गा-तटपर पहुँचे। दूरसे ही नमस्कार करते हुए वे स्वानार्थ समीप पहुँचे तो उन्हें कहीं जल नहीं दीखा। वे गङ्गासागरसे लेकर हिमालयतक गङ्गातटपर घूमते रहे, पर उन्हें नाममात्रको भी जल नहीं मिला। अन्तमें काशी लौटकर वे गङ्गाजीकी प्रार्थना करने लगे-देवि ! देवशिरोमणि महादेवने भी आपको सिरपर धारण कर रखा है। आप भगवान् विष्णुके चरण-नखसे निर्गत हुई।हैं। आप समस्त लोकको पवित्र करनेवाली हैं। जगद्धात्री ! माता! यदि हमसे कोई अपराध बन ही गया हो तो माँ! आपको अब क्षमा कर देना चाहिये।’
दोनोंने इस प्रकार स्तुति की तो दयामयी भगवती गङ्गा वहाँ प्रत्यक्ष प्रकट हो गयीं। वे मेघके समान गम्भीर वाणीसे बोलीं- ‘तुमने महाबुद्धिमान् पुण्यधामाकी निन्दा की है, यह बहुत बुरी बात हुई है। मैं स्वयं उस महाभागकी चरणरेणुकी प्रतीक्षामें रात-दिन बैठी रहती हूँ। जहाँ भगवान्की कथा होती है और भगवदाश्रित साधुजन रहते हैं, वहाँ सारे तीर्थ रहते हैं- इसमें विचारनेकी कोई बात नहीं। * विष्णुकथाका श्रवण कीर्तन ही ‘विधि’ है, उसे भूलना ही ‘निषेध’ है। अन्य सारे विधि-निषेध इन दोनोंके किंकर हैं। करोड़ों ब्रह्महत्याओंका पाप तो किसी प्रकार शान्त भी किया जा सकता है, पर भगवद्भक्तोंकी निन्दाका पाप अरब खरब कल्पोंमें भी नष्ट नहीं होता। हजारों पापोंसे निस्तार सम्भव है; पर विष्णु, उनकी कथा और उनके भक्तोंकी निन्दाकी कोई औषध नहीं है। जो महाभाग नित्य, सदा-सर्वदा भगवत्कथामें लीन है, उसने किस सत्कर्मका अनुष्ठान नहीं किया ? भगवान् सहस्रों अपराधों को भूल सकते हैं, पर अपने भक्तोंके अपमानको वे कभी नहीं क्षमा कर सकते। वे लक्ष्मीको तो कथंचित् छोड़नेको तैयार भी हो सकते हैं, पर वे भक्तवत्सल भक्तका परित्याग स्वप्रमें भी नहीं कर सकते । अतएव तुमलोग उस पुण्यधामाको प्रसन्न करो! जबतक ऐसा नहीं करते मैं प्रसन्न नहीं होती और तुम्हें जल नहीं दीखता ।
भगवती गङ्गाके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर वे दोनों मुनि सत्यव्रत ग्राममें गये और पुण्यधामासेप्रार्थना करने लगे। पुण्यधामा उन्हें लेकर अपने गुरुके पास गये। उन्होंने उन दोनोंको भी बुलाकर दो वर्षतक भगवत्कथा सुनायी। तत्पश्चात् वे पाँचों गङ्गातटपर आये। भगवती गङ्गाने उठकर बृहत्तपा, दीर्घतमा और पुण्यधामाकीपूजा की। साथमें आये हुए दोनों मुनियोंने भी देखा कि अब गङ्गाजी जलपूर्ण थीं। अब उन पाँचोंने वहाँ श्रद्धापूर्वक अवगाहन किया तथा परा सिद्धि प्राप्त की ।
-जा0 श0 (वायुपुराण माघमाहात्म्य, अध्याय 20)