अटल मृत्युसे भय कैसा !!
एक छोटा-सा गाँव था। उसमें एक ब्राह्मण कुटुम्ब रहता था। ब्राह्मण अत्यन्त दरिद्र था। दिनभर भीख माँगते रहनेपर भी उसके कुटुम्बका भरण-पोषण अच्छी तरह नहीं हो पाता था। पूरे कुटुम्बने पेट भरकर खाया हो, ऐसा दिन बिरला ही होता।
एक दिन खूब सवेरे ब्राह्मण जग गया। वह बिछौनेसे उठनेका विचार कर ही रहा था कि उसने देखा कि छप्परके जालेमें कुछ रेंग रहा है। उसने नजर गड़ाकर देखा तो उस जालेमेंसे एक सर्प निकलता और दीवालसे नीचे उतरता दिखायी दिया। साँपने नीचे उतरकर ब्राह्मणकी पत्नीको डँसा और फिर उसके तीनों लड़कोंको भी डँस लिया। डँसकर वह घरसे बाहर निकलकर जाने लगा।
ब्राह्मणने विचार किया कि जालेमें तो सर्प था ही नहीं, फिर यह सर्प कहाँसे आया ? फिर, सर्पने बिना ही दबे दबाये एक ही साथ चार सोये हुए मनुष्योंको कैसे डँस लिया! अतएव यह कोई साधारण सर्प नहीं है, इसलिये इसका पता लगाना चाहिये। यह विचारकर वह स्वयं सर्पके पीछे-पीछे चल पड़ा।
सर्प दरवाजेके नीचेसे निकलकर बाहर चला गया और ब्राह्मण भी दरवाजा खोलकर उसके साथ हो लिया। देखते-ही-देखते वह साँप एक भयंकर साँड़के रूपमें बदल गया और सामनेसे आते हुए एक मनुष्यको सींगसे मारकर समाप्त कर दिया। यों उस मनुष्यको मारकर साँड़ने अपना रूप बदला और वह एक बिच्छू बन गया। इस रूपमें उसने गलीमें खेलते हुए एक बच्चेको काटकर उसके प्राण ले लिये।
इस कामको पूरा करके बिच्छूने अब एक मेढ़ेका रूप धारण किया और सींग मारकर एक बालकका वध कर डाला। फिर वह मेढ़ा जंगलकी ओर दौड़ा और एक बावलीके पास पहुँचते ही सुन्दर युवती बनकर बावलीके
किनारे बैठ गया ।
रास्तेसे दो सगे भाई जा रहे थे। वे पुलिसमें नौकरी करते थे और घरके कामके लिये छुट्टी लेकर अपने घर जा रहे थे। दोनोंकी दृष्टि उस युवतीपर पड़ी और दोनोंके ही मनोंमें उसे प्राप्त करनेकी इच्छा जाग उठी। बड़े भाईने कहा कि वह मेरी है और छोटेने कहा-मेरी। वे ज्यों-ज्यों उस स्त्रीके समीप पहुँचते गये, त्यों-ही-त्यों उनकी कामना अधिक-से-अधिक बढ़ने लगी। कामनाका परस्पर अवरोध होनेसे उन्हें क्रोधावेश हो आया। विवेक छोड़कर वे आपसमें तू-ताँ करने लगे और परस्पर गालियाँ बकने लगे। परिणाम यह हुआ कि दोनोंने तलवार खींच ली और लड़ते-लड़ते दोनों भाई मौतके घाट उतर गये।
इस कार्यको पूरा करके वह स्त्री वहाँसे उठी और जमीनपर सो गयी तथा लोटने लगी। देखते-ही-देखते स्त्री अदृश्य हो गयी और उसकी जगह एक बड़ा साँप दिखायी दिया। सर्प बड़े वेगसे नदीकी तरफ चला । नदीके पास पहुँचकर वह जलमें उतर गया। नदीके बीचमें एक नाव जा रही थी, साँप उसके पास पहुँचकर उसपर चढ़ने लगा। सर्पको देखते ही नावके मुसाफिर भयके मारे इधर-उधर दौड़ने लगे, नावका वजन एक तरफ बढ़ गया और वह नदीमें उलट गयी। सब मुसाफिर डूबकर मर गये।
इस कामको पूरा करके सर्प वापस लौटा और जमीनपर आकर एक पण्डितजीके रूपमें बदल गया। वे सफेद दूध से वस्त्र पहने हुए, गलेमें दुपट्टा डाले और सिरपर बड़ी पगड़ी पहने थे। उन्होंने पगड़ीमें एक सुन्दर पंचांग खोंसा था।
इस स्वरूपको देखते ही ब्राह्मणने उसके चरणोंपर गिरकर उसके चरण पकड़ लिये। पण्डितने उसका हाथ पकड़कर उठाया। तब ब्राह्मणने उससे पूछा आप कौन हैं और यह क्या लीला कर रहे हैं, कृपा करके मुझे बताइये।’ पण्डितजीने कहा—’इतने समयसे तुम मेरे पीछे-पीछे चले आ रहे हो और मैंने जो कुछ किया, सब तुमने अपनी आँखों देखा है, फिर भी तुमने मुझको पहचाना नहीं ?’ ब्राह्मणने सिर हिलाकर अपनी असमर्थता बतायी और सब समझाकर बतानेके लिये पुनः पण्डितजीसे प्रार्थना की। तब पण्डितजीने कहा
‘देखो, मैं काल हूँ, प्राणियोंके स्थूल शरीरोंका नाश करनेका काम ईश्वरने मुझको सौंपा है, परंतु मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता। जब किसी भी प्राणीका प्रारब्धभोग समाप्त होता है, तब उसकी मृत्युके लिये निमित्त उपस्थित कर देना- इतना ही मेरा काम है। मनुष्य तो निमित्तको ही दोष देता है, पर वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। मृत्यु तो प्रारब्ध क्षय होनेपर ही होती है। पर सच्ची समझ न होनेसे मनुष्य कहता है कि ‘अमुक साँप काटनेसे मर गया, अमुक साँड़के सींग मारनेसे मर गया, अमुक बिच्छू काटने से मर गया।’ आदि-आदि। मृत्युके समयसे एक श्वास भी पहले किसीको कोई नहीं मार सकता। इसी प्रकार जीवनकालसे अधिक एक श्वास आनेके समयभर भी कोई किसीको जिला नहीं सकता।’
यह सुनकर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कालभगवान्से कहा—’आपके दर्शन हुए हैं, अतएव कृपा करके बतलाइये, मेरी मृत्यु कब और किस निमित्तसे होगी ?’
कालभगवान्ने कहा—’मृत्युका समय बतलानेका मुझे अधिकार नहीं है, परंतु इतना बतला देता हूँ कि तुम्हारी मृत्यु मगरके निमित्तसे होगी। अब यहाँसे तुम उत्तरकी ओर जाओ, वहाँ तुम्हारा भाग्य खुलेगा।’ इतना कहकर कालभगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये।
वह कालभगवान्के कथनानुसार उत्तर दिशाकी ओर चल दिया। चलते-चलते एक राजधानीका शहर आया। उसने उसमें प्रवेश किया। वहाँके राजाको सन्तान न होनेसे, कोई भी नया ब्राह्मण या ज्योतिषी शहरमें आता तो राजा उसे अपने पास बुलाते और उसका सम्मान करके सन्तान प्राप्तिके लिये प्रार्थना करते।
राजाने इस ब्राह्मणको भी बुलाया। इसने तुरंत ही आशीर्वाद दे दिया कि ‘आजसे बारह मासके अन्दर उनको अवश्य पुत्र होगा।’ ऐसे दृढ़तायुक्त वचन सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने रहनेके लिये उनके योग्य सब व्यवस्था करवा दी।
दैवको करना था, यथासमय राजाको पुत्र हो गया। इसमें ब्राह्मणका मान बहुत ही बढ़ गया। राजाने उसको कुलपुरोहितके रूपमें सदाके लिये रख लिया और ब्राह्मण वहाँ सुखपूर्वक अपना जीवन बिताने लगा।
समय बीतनेपर राजकुमार बड़ा हुआ और उसके अध्ययनका काम भी कुलपुरोहितको ही सौंपा गया, इसलिये सदा साथ रहनेके कारण दोनोंमें प्रगाढ़ प्रेम हो गया। कुमार जब बारह वर्षका हुआ, तब उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराना निश्चय हुआ।
मेरी मृत्यु मगरके निमित्तसे होगी, इस बातको ब्राह्मण जानता था, इसलिये उसने नियम बना रखा था कि नदी, तालाब या कुएँ आदिपर किसी भी कारणसे न तो जाना और न वहाँ स्नान करना।
गायत्री मन्त्र देते समय गुरु-शिष्य दोनोंको नदीमें खड़े रहना चाहिये, अतः ब्राह्मणने कहा कि ‘मुझसे यह नहीं होगा। मन्त्र दूसरे पण्डित दे देंगे।’ परंतु राजकुमारने हठ पकड़ लिया ‘मैं तो आपसे ही मन्त्र लूँगा, नहीं तो यज्ञोपवीत ही नहीं लूंगा।’
राजाने पुरोहितको एकान्तमें बुलाकर पूछा और कहा कि राजकुमारको मन्त्र देनेमें जितनी देर लगे, उतनी सी देर नदीमें खड़े रहनेमें क्या हानि है ? राजकुमार बालक है, हठी है और आपका उसके प्रति बड़ा स्नेह । राजाने जब बहुत आग्रह किया, तब ब्राह्मणने स्पष्ट बतला दिया कि ‘मेरी मृत्यु मगरसे होनेवाली है, इसलिये मैं किसी दिन भी जलमें नहींउतरता, इसके सिवा अन्य कोई कारण नहीं है!’
राजाने कहा- ‘अरे महाराज ! इस घुटनेभर जलमें मगर कहाँसे आयेगा, तथापि आपके सन्तोषके लिये मैं आपके चारों तरफ नंगी तलवारोंका पहरा लगा दूँगा, इतना ही नहीं, एक सिपाही दूसरे सिपाहीसे अड़कर खड़ा रहेगा। ऐसी व्यवस्था कर दूँगा कि मगर तो क्या, एक छोटी-सी मछली भी नहीं आ सकेगी।’
अन्तमें ब्राह्मणने स्वीकार कर लिया और वह राजकुमारके साथ नदीमें उतर गया। चारों ओर पूरा पहरा था। एक मेढकको भी आनेका अवकाश नहीं था । ब्राह्मणने विधिवत् मन्त्रोपदेश किया। इतनेमें ही, वह राजकुमार मगरके रूपमें बदल गया और घुटनेभर पानीवाली नदीमें वहाँ एक बड़ा गड्ढा हो गया और ब्राह्मणको पकड़कर वह मगर उस गड्ढेमें चला गया।
यों चाहे जितनी सावधानी रखी जाय; परंतु आयु पूरी होनेपर मरना ही पड़ता है। हिरण्यकशिपुने मृत्यु न हो, इसके लिये कितनी सावधानी रखी थी और कैसे कैसे वरदान प्राप्त किये थे। दस सिरवाले रावणने भी मनुष्यके सिवा अन्य किसीके हाथसे मेरी मृत्यु न हो, यह वरदान प्राप्त किया था; क्योंकि उसे निश्चय था कि कोई भी मनुष्य तो मुझे मार ही नहीं सकता। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं। पर सभीको समय आनेपर मौतके मुँहमें जाना ही पड़ा। कोई भी देहधारी कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, वह सदा नहीं जी सकता; क्योंकि देहकी मृत्युका निर्णय तो उसके जन्मके साथ ही हो चुका होता है, अतएव आयुकी मर्यादा पूरी होते ही प्राणीको शरीर छोड़ना ही पड़ता है।
इसलिये समझदार मनुष्यको न तो अपनी मृत्युसे डरना चाहिये और न किसी भी देहधारीकी मृत्यु होनेपर शोक ही करना चाहिये ।
अटल मृत्युसे भय कैसा !!
एक छोटा-सा गाँव था। उसमें एक ब्राह्मण कुटुम्ब रहता था। ब्राह्मण अत्यन्त दरिद्र था। दिनभर भीख माँगते रहनेपर भी उसके कुटुम्बका भरण-पोषण अच्छी तरह नहीं हो पाता था। पूरे कुटुम्बने पेट भरकर खाया हो, ऐसा दिन बिरला ही होता।
एक दिन खूब सवेरे ब्राह्मण जग गया। वह बिछौनेसे उठनेका विचार कर ही रहा था कि उसने देखा कि छप्परके जालेमें कुछ रेंग रहा है। उसने नजर गड़ाकर देखा तो उस जालेमेंसे एक सर्प निकलता और दीवालसे नीचे उतरता दिखायी दिया। साँपने नीचे उतरकर ब्राह्मणकी पत्नीको डँसा और फिर उसके तीनों लड़कोंको भी डँस लिया। डँसकर वह घरसे बाहर निकलकर जाने लगा।
ब्राह्मणने विचार किया कि जालेमें तो सर्प था ही नहीं, फिर यह सर्प कहाँसे आया ? फिर, सर्पने बिना ही दबे दबाये एक ही साथ चार सोये हुए मनुष्योंको कैसे डँस लिया! अतएव यह कोई साधारण सर्प नहीं है, इसलिये इसका पता लगाना चाहिये। यह विचारकर वह स्वयं सर्पके पीछे-पीछे चल पड़ा।
सर्प दरवाजेके नीचेसे निकलकर बाहर चला गया और ब्राह्मण भी दरवाजा खोलकर उसके साथ हो लिया। देखते-ही-देखते वह साँप एक भयंकर साँड़के रूपमें बदल गया और सामनेसे आते हुए एक मनुष्यको सींगसे मारकर समाप्त कर दिया। यों उस मनुष्यको मारकर साँड़ने अपना रूप बदला और वह एक बिच्छू बन गया। इस रूपमें उसने गलीमें खेलते हुए एक बच्चेको काटकर उसके प्राण ले लिये।
इस कामको पूरा करके बिच्छूने अब एक मेढ़ेका रूप धारण किया और सींग मारकर एक बालकका वध कर डाला। फिर वह मेढ़ा जंगलकी ओर दौड़ा और एक बावलीके पास पहुँचते ही सुन्दर युवती बनकर बावलीके
किनारे बैठ गया ।
रास्तेसे दो सगे भाई जा रहे थे। वे पुलिसमें नौकरी करते थे और घरके कामके लिये छुट्टी लेकर अपने घर जा रहे थे। दोनोंकी दृष्टि उस युवतीपर पड़ी और दोनोंके ही मनोंमें उसे प्राप्त करनेकी इच्छा जाग उठी। बड़े भाईने कहा कि वह मेरी है और छोटेने कहा-मेरी। वे ज्यों-ज्यों उस स्त्रीके समीप पहुँचते गये, त्यों-ही-त्यों उनकी कामना अधिक-से-अधिक बढ़ने लगी। कामनाका परस्पर अवरोध होनेसे उन्हें क्रोधावेश हो आया। विवेक छोड़कर वे आपसमें तू-ताँ करने लगे और परस्पर गालियाँ बकने लगे। परिणाम यह हुआ कि दोनोंने तलवार खींच ली और लड़ते-लड़ते दोनों भाई मौतके घाट उतर गये।
इस कार्यको पूरा करके वह स्त्री वहाँसे उठी और जमीनपर सो गयी तथा लोटने लगी। देखते-ही-देखते स्त्री अदृश्य हो गयी और उसकी जगह एक बड़ा साँप दिखायी दिया। सर्प बड़े वेगसे नदीकी तरफ चला । नदीके पास पहुँचकर वह जलमें उतर गया। नदीके बीचमें एक नाव जा रही थी, साँप उसके पास पहुँचकर उसपर चढ़ने लगा। सर्पको देखते ही नावके मुसाफिर भयके मारे इधर-उधर दौड़ने लगे, नावका वजन एक तरफ बढ़ गया और वह नदीमें उलट गयी। सब मुसाफिर डूबकर मर गये।
इस कामको पूरा करके सर्प वापस लौटा और जमीनपर आकर एक पण्डितजीके रूपमें बदल गया। वे सफेद दूध से वस्त्र पहने हुए, गलेमें दुपट्टा डाले और सिरपर बड़ी पगड़ी पहने थे। उन्होंने पगड़ीमें एक सुन्दर पंचांग खोंसा था।
इस स्वरूपको देखते ही ब्राह्मणने उसके चरणोंपर गिरकर उसके चरण पकड़ लिये। पण्डितने उसका हाथ पकड़कर उठाया। तब ब्राह्मणने उससे पूछा आप कौन हैं और यह क्या लीला कर रहे हैं, कृपा करके मुझे बताइये।’ पण्डितजीने कहा—’इतने समयसे तुम मेरे पीछे-पीछे चले आ रहे हो और मैंने जो कुछ किया, सब तुमने अपनी आँखों देखा है, फिर भी तुमने मुझको पहचाना नहीं ?’ ब्राह्मणने सिर हिलाकर अपनी असमर्थता बतायी और सब समझाकर बतानेके लिये पुनः पण्डितजीसे प्रार्थना की। तब पण्डितजीने कहा
‘देखो, मैं काल हूँ, प्राणियोंके स्थूल शरीरोंका नाश करनेका काम ईश्वरने मुझको सौंपा है, परंतु मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता। जब किसी भी प्राणीका प्रारब्धभोग समाप्त होता है, तब उसकी मृत्युके लिये निमित्त उपस्थित कर देना- इतना ही मेरा काम है। मनुष्य तो निमित्तको ही दोष देता है, पर वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। मृत्यु तो प्रारब्ध क्षय होनेपर ही होती है। पर सच्ची समझ न होनेसे मनुष्य कहता है कि ‘अमुक साँप काटनेसे मर गया, अमुक साँड़के सींग मारनेसे मर गया, अमुक बिच्छू काटने से मर गया।’ आदि-आदि। मृत्युके समयसे एक श्वास भी पहले किसीको कोई नहीं मार सकता। इसी प्रकार जीवनकालसे अधिक एक श्वास आनेके समयभर भी कोई किसीको जिला नहीं सकता।’
यह सुनकर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कालभगवान्से कहा—’आपके दर्शन हुए हैं, अतएव कृपा करके बतलाइये, मेरी मृत्यु कब और किस निमित्तसे होगी ?’
कालभगवान्ने कहा—’मृत्युका समय बतलानेका मुझे अधिकार नहीं है, परंतु इतना बतला देता हूँ कि तुम्हारी मृत्यु मगरके निमित्तसे होगी। अब यहाँसे तुम उत्तरकी ओर जाओ, वहाँ तुम्हारा भाग्य खुलेगा।’ इतना कहकर कालभगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये।
वह कालभगवान्के कथनानुसार उत्तर दिशाकी ओर चल दिया। चलते-चलते एक राजधानीका शहर आया। उसने उसमें प्रवेश किया। वहाँके राजाको सन्तान न होनेसे, कोई भी नया ब्राह्मण या ज्योतिषी शहरमें आता तो राजा उसे अपने पास बुलाते और उसका सम्मान करके सन्तान प्राप्तिके लिये प्रार्थना करते।
राजाने इस ब्राह्मणको भी बुलाया। इसने तुरंत ही आशीर्वाद दे दिया कि ‘आजसे बारह मासके अन्दर उनको अवश्य पुत्र होगा।’ ऐसे दृढ़तायुक्त वचन सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने रहनेके लिये उनके योग्य सब व्यवस्था करवा दी।
दैवको करना था, यथासमय राजाको पुत्र हो गया। इसमें ब्राह्मणका मान बहुत ही बढ़ गया। राजाने उसको कुलपुरोहितके रूपमें सदाके लिये रख लिया और ब्राह्मण वहाँ सुखपूर्वक अपना जीवन बिताने लगा।
समय बीतनेपर राजकुमार बड़ा हुआ और उसके अध्ययनका काम भी कुलपुरोहितको ही सौंपा गया, इसलिये सदा साथ रहनेके कारण दोनोंमें प्रगाढ़ प्रेम हो गया। कुमार जब बारह वर्षका हुआ, तब उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराना निश्चय हुआ।
मेरी मृत्यु मगरके निमित्तसे होगी, इस बातको ब्राह्मण जानता था, इसलिये उसने नियम बना रखा था कि नदी, तालाब या कुएँ आदिपर किसी भी कारणसे न तो जाना और न वहाँ स्नान करना।
गायत्री मन्त्र देते समय गुरु-शिष्य दोनोंको नदीमें खड़े रहना चाहिये, अतः ब्राह्मणने कहा कि ‘मुझसे यह नहीं होगा। मन्त्र दूसरे पण्डित दे देंगे।’ परंतु राजकुमारने हठ पकड़ लिया ‘मैं तो आपसे ही मन्त्र लूँगा, नहीं तो यज्ञोपवीत ही नहीं लूंगा।’
राजाने पुरोहितको एकान्तमें बुलाकर पूछा और कहा कि राजकुमारको मन्त्र देनेमें जितनी देर लगे, उतनी सी देर नदीमें खड़े रहनेमें क्या हानि है ? राजकुमार बालक है, हठी है और आपका उसके प्रति बड़ा स्नेह । राजाने जब बहुत आग्रह किया, तब ब्राह्मणने स्पष्ट बतला दिया कि ‘मेरी मृत्यु मगरसे होनेवाली है, इसलिये मैं किसी दिन भी जलमें नहींउतरता, इसके सिवा अन्य कोई कारण नहीं है!’
राजाने कहा- ‘अरे महाराज ! इस घुटनेभर जलमें मगर कहाँसे आयेगा, तथापि आपके सन्तोषके लिये मैं आपके चारों तरफ नंगी तलवारोंका पहरा लगा दूँगा, इतना ही नहीं, एक सिपाही दूसरे सिपाहीसे अड़कर खड़ा रहेगा। ऐसी व्यवस्था कर दूँगा कि मगर तो क्या, एक छोटी-सी मछली भी नहीं आ सकेगी।’
अन्तमें ब्राह्मणने स्वीकार कर लिया और वह राजकुमारके साथ नदीमें उतर गया। चारों ओर पूरा पहरा था। एक मेढकको भी आनेका अवकाश नहीं था । ब्राह्मणने विधिवत् मन्त्रोपदेश किया। इतनेमें ही, वह राजकुमार मगरके रूपमें बदल गया और घुटनेभर पानीवाली नदीमें वहाँ एक बड़ा गड्ढा हो गया और ब्राह्मणको पकड़कर वह मगर उस गड्ढेमें चला गया।
यों चाहे जितनी सावधानी रखी जाय; परंतु आयु पूरी होनेपर मरना ही पड़ता है। हिरण्यकशिपुने मृत्यु न हो, इसके लिये कितनी सावधानी रखी थी और कैसे कैसे वरदान प्राप्त किये थे। दस सिरवाले रावणने भी मनुष्यके सिवा अन्य किसीके हाथसे मेरी मृत्यु न हो, यह वरदान प्राप्त किया था; क्योंकि उसे निश्चय था कि कोई भी मनुष्य तो मुझे मार ही नहीं सकता। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं। पर सभीको समय आनेपर मौतके मुँहमें जाना ही पड़ा। कोई भी देहधारी कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, वह सदा नहीं जी सकता; क्योंकि देहकी मृत्युका निर्णय तो उसके जन्मके साथ ही हो चुका होता है, अतएव आयुकी मर्यादा पूरी होते ही प्राणीको शरीर छोड़ना ही पड़ता है।
इसलिये समझदार मनुष्यको न तो अपनी मृत्युसे डरना चाहिये और न किसी भी देहधारीकी मृत्यु होनेपर शोक ही करना चाहिये ।