संत एकनाथजीके पिताका श्राद्ध था घरमें श्राद्धकी रसोई बन रही थी। हलवा पकने लगता है तब उसकी सुन्दर सुगन्ध दूरतक फैल जाती है। अतएव इनके भी घर के बाहरतक सुगन्ध छा रही थी। इसी समय कुछ महार सपरिवार उधरसे जा रहे थे। सुगन्ध उनकी नाकोंमें भी गयी। महारके एक बच्चेने कहा- ‘माँ ! कैसी मीठी महक है। कैसे बढ़िया पक्वान्न बने होंगे।’ माँने उदास होकर कहा—’बेटा! हमलोगोंके नसीब में ये चीजें कहाँ रखी हैं। हम अभागोंको तो इनकी गन्ध भी दुर्लभ है।’ संत एकनाथजीने उनकी यह बात सुन ली। उनका हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने सोचा – ‘सब शरीर भगवान्के ही तो मन्दिर हैं-इन महारोंकेद्वारा भी तो भगवान् ही भोग लगायेंगे।’ उन्होंने तुरंत महारोंको बुलाया और अपनी पत्नी गिरिजाबाईसे कहा कि ‘यह रसोई इनको दे दो।’ गिरिजाबाईका भाव और भी सुन्दर था, उन्होंने कहा – ‘अन्न तो बहुत है, इनको सब बाल-बच्चों और स्त्रियोंसहित बुलवा लीजिये, सबको अच्छी तरह परोसकर जिमाया जाय। भगवान् सर्वत्र हैं, सब प्राणियोंमें हैं, आज भगवान्ने ही इनके द्वारा यह अन्न चाहा है, अतएव आज इन्हींको तृप्त करके भगवान्की सेवा करनी चाहिये।’
सबको बुलाया गया, रास्तेपर पत्तलें रखी गयीं और बड़े आदर सत्कारके साथ सब पक्वान्न बाहर लाकर, उनको भोजन कराया गया। जिनकी गन्ध भीकभी नसीब नहीं होती, उन चीजोंको भरपेट खाकर महार और उसके स्त्री-बच्चोंको कितना आनन्द हुआ, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इस भोजनसे तो उनको अपरिमित प्रसन्नता हुई ही, इससे भी अधिक सुख मिला उनको संत एकनाथ और साध्वी गिरिजाबाईके प्रेमपूर्ण नम्र व्यवहारसे। उनके अङ्ग अङ्ग एकनाथजीको मूक आशीर्वाद देने लगे! गिरिजाबाईने पान-सुपारी देकर उन्हें विदा किया।
तदनन्तर वर्णाश्रमधर्मको माननेवाले एकनाथ और गिरिजाबाईने घर-आँगन धोया, बर्तन मले, नया शुद्ध जल मँगवाया और फिरसे श्राद्धकी रसोई बनवायी। परंतु जब निमन्त्रित ब्राह्मणोंने सब हाल सुना तब उन्होंने भोजन करनेसे इनकार कर दिया। एकनाथजीने हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना की – ‘पूजनीय ब्राह्मणगण ! पहली रसोई बनी तो थी आपलोगोंके लिये ही, परंतु जब उसकी गन्ध अन्त्यज परिवारके नाकोंमें पहुँच गयी, तब वह उच्छिष्ट अन्न आपको कैसे परोसा जाता। वहअन्न उन लोगोंको खिला दिया गया और फिरसे सारी सामग्री इकट्ठी करके आपके लिये नयी रसोई बनायो गयी। आप हमें क्षमा करके इसे ग्रहण कीजिये।’ बहुत अनुनय-विनय की, परंतु ब्राह्मणोंको उनकी बात नहीं जँची। एकनाथजीको चिन्ता हुई। उनके यहाँ श्रीखंडिया तो रहता ही था। श्रीखंडियाने उनसे कहा – ‘नाथजी। आपने रसोई पितरोंके लिये बनायी है न ? फिर चिन्ता क्यों करते हैं? पत्तलें परोसकर पितरोंको बुलाइये। वे स्वयं आकर भोजन क्यों नहीं करेंगे?’ एकनाथजीने ऐसा ही किया। पत्तलें लगा दी गयीं और ‘आगतम्’ कहते ही सूर्यनारायण, चक्रपाणि और भानुदास तीनों पितर आकर अपने-अपने आसनोंपर बैठ गये। एकनाथजीने बड़े भक्तिभावसे उनका पूजन किया और भोजन परोसकर उन्हें जिमाया। तीनों पितर तृप्त होकर आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये। जब ब्राह्मणोंको यह सब हाल मालूम हुआ, तब उन्होंने एकनाथजीका महत्त्व समझा और अपनी करनीपर पश्चात्ताप किया।
संत एकनाथजीके पिताका श्राद्ध था घरमें श्राद्धकी रसोई बन रही थी। हलवा पकने लगता है तब उसकी सुन्दर सुगन्ध दूरतक फैल जाती है। अतएव इनके भी घर के बाहरतक सुगन्ध छा रही थी। इसी समय कुछ महार सपरिवार उधरसे जा रहे थे। सुगन्ध उनकी नाकोंमें भी गयी। महारके एक बच्चेने कहा- ‘माँ ! कैसी मीठी महक है। कैसे बढ़िया पक्वान्न बने होंगे।’ माँने उदास होकर कहा—’बेटा! हमलोगोंके नसीब में ये चीजें कहाँ रखी हैं। हम अभागोंको तो इनकी गन्ध भी दुर्लभ है।’ संत एकनाथजीने उनकी यह बात सुन ली। उनका हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने सोचा – ‘सब शरीर भगवान्के ही तो मन्दिर हैं-इन महारोंकेद्वारा भी तो भगवान् ही भोग लगायेंगे।’ उन्होंने तुरंत महारोंको बुलाया और अपनी पत्नी गिरिजाबाईसे कहा कि ‘यह रसोई इनको दे दो।’ गिरिजाबाईका भाव और भी सुन्दर था, उन्होंने कहा – ‘अन्न तो बहुत है, इनको सब बाल-बच्चों और स्त्रियोंसहित बुलवा लीजिये, सबको अच्छी तरह परोसकर जिमाया जाय। भगवान् सर्वत्र हैं, सब प्राणियोंमें हैं, आज भगवान्ने ही इनके द्वारा यह अन्न चाहा है, अतएव आज इन्हींको तृप्त करके भगवान्की सेवा करनी चाहिये।’
सबको बुलाया गया, रास्तेपर पत्तलें रखी गयीं और बड़े आदर सत्कारके साथ सब पक्वान्न बाहर लाकर, उनको भोजन कराया गया। जिनकी गन्ध भीकभी नसीब नहीं होती, उन चीजोंको भरपेट खाकर महार और उसके स्त्री-बच्चोंको कितना आनन्द हुआ, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इस भोजनसे तो उनको अपरिमित प्रसन्नता हुई ही, इससे भी अधिक सुख मिला उनको संत एकनाथ और साध्वी गिरिजाबाईके प्रेमपूर्ण नम्र व्यवहारसे। उनके अङ्ग अङ्ग एकनाथजीको मूक आशीर्वाद देने लगे! गिरिजाबाईने पान-सुपारी देकर उन्हें विदा किया।
तदनन्तर वर्णाश्रमधर्मको माननेवाले एकनाथ और गिरिजाबाईने घर-आँगन धोया, बर्तन मले, नया शुद्ध जल मँगवाया और फिरसे श्राद्धकी रसोई बनवायी। परंतु जब निमन्त्रित ब्राह्मणोंने सब हाल सुना तब उन्होंने भोजन करनेसे इनकार कर दिया। एकनाथजीने हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना की – ‘पूजनीय ब्राह्मणगण ! पहली रसोई बनी तो थी आपलोगोंके लिये ही, परंतु जब उसकी गन्ध अन्त्यज परिवारके नाकोंमें पहुँच गयी, तब वह उच्छिष्ट अन्न आपको कैसे परोसा जाता। वहअन्न उन लोगोंको खिला दिया गया और फिरसे सारी सामग्री इकट्ठी करके आपके लिये नयी रसोई बनायो गयी। आप हमें क्षमा करके इसे ग्रहण कीजिये।’ बहुत अनुनय-विनय की, परंतु ब्राह्मणोंको उनकी बात नहीं जँची। एकनाथजीको चिन्ता हुई। उनके यहाँ श्रीखंडिया तो रहता ही था। श्रीखंडियाने उनसे कहा – ‘नाथजी। आपने रसोई पितरोंके लिये बनायी है न ? फिर चिन्ता क्यों करते हैं? पत्तलें परोसकर पितरोंको बुलाइये। वे स्वयं आकर भोजन क्यों नहीं करेंगे?’ एकनाथजीने ऐसा ही किया। पत्तलें लगा दी गयीं और ‘आगतम्’ कहते ही सूर्यनारायण, चक्रपाणि और भानुदास तीनों पितर आकर अपने-अपने आसनोंपर बैठ गये। एकनाथजीने बड़े भक्तिभावसे उनका पूजन किया और भोजन परोसकर उन्हें जिमाया। तीनों पितर तृप्त होकर आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये। जब ब्राह्मणोंको यह सब हाल मालूम हुआ, तब उन्होंने एकनाथजीका महत्त्व समझा और अपनी करनीपर पश्चात्ताप किया।