स्त्रीजित होना अनर्थकारी है

buddhism temple monk

दैत्यमाता दितिके दोनों पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु मारे जा चुके थे देवराज इन्द्रकी प्रेरणासे भगवान् विष्णुने वाराह एवं नृसिंह अवतार धारण करके उन्हें मारा था। यह स्पष्ट था कि उनका वध देवताओंकी रक्षाके लिये हुआ था। इसलिये दैत्यमाताका सारा क्रोध इन्द्रपर था। वह पुत्रशोकके कारण इन्द्रसे अत्यन्त रुष्ट थी और बराबर सोचती रहती थी कि इन्द्रको कैसे मारा जाय। परंतु उसके पास कोई उपाय नहीं था। उसके पतिदेव महर्षि कश्यप सर्वसमर्थ थे; किंतु अपने पुत्र देवताओं पर महर्षिका अधिक स्नेह था। वे भला, इन्द्रका अनिष्ट क्यों करने लगे।

दितिने निश्चय कर लिया कि चाहे जैसे हो, महर्षि कश्यपको ही प्रसन्न करके इन्द्रके वधकी व्यवस्था उनसे करानी है। अपने अभिप्रायको उसने मनमें अत्यन्त गुप्त रखा और वह पतिसेवामें लग गयी। निरन्तर तत्परता से दिति महर्षिकी सेवा करने लगी। अपनेको, चाहे जितना कष्ट हो, वह प्रसन्न बनाये रखती। रात-रात जागती, सदा महर्षिके समीप खड़ी रहती और उन्हें कब क्या आवश्यक है, यह देखती रहती। विनय एवं सेवाकी वह मूर्ति बन गयी। महर्षि कुछ भी कहें, वह मधुर वाणीमें उत्तर देती। उनकी ओर प्रेमपूर्वक देखती रहती। इस प्रकार एक लंबे समयतक वह लगी रही पतिसेवामें अपने परम तेजस्वी समर्थ पतिको उसने सेवासे वशमें कर लिया। महर्षि कश्यप उसपर प्रसन्न होकर अन्ततः एक दिन बोल उठे—’प्रिये! मैं तुम्हारी सेवासे प्रसन्न हूँ। तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, वर माँग लो।”

दिति इसी अवसरकी प्रतीक्षामें थी उसने कहा ‘देव! यदि आप सचमुच प्रसन्न हैं और वरदान देनाचाहते हैं तो मैं माँगती हूँ कि आपसे मुझे इन्द्रको देनेवाला पुत्र प्राप्त हो।’

महर्षि कश्यपने मस्तकपर हाथ दे मारा। कितना बड़ा अनर्थ – अपने ही प्रिय पुत्रको मारनेवाला दूसरा पुत्र उन्हें उत्पन्न करना पड़ेगा। स्त्रीजित न हो गये होते तो क्यों आता यह अवसर । लेकिन अब तो बात कही जा चुकी । वरदान देनेको कहकर अस्वीकार कैसे करेगा एक ऋषि । महर्षि उपाय सोचने लगे।

‘यदि तुम मेरे बताये नियमोंका एक वर्षतक पालन करोगी और ठीक विधिपूर्वक उपासना करोगी तो तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी।’ कश्यपजीने उपाय सोचकर कहा—’यदि नियमोंमें तनिक भी त्रुटि हुई तो तुम्हारा पुत्र देवताओंका मित्र होगा। तुम्हें पुत्र होगा; किंतु वह इन्द्रको मारनेवाला होगा या देवताओंका मित्र होगा, यह तो आज नहीं कहा जा सकता। यह तो तुम्हारे नियम पालनपर निर्भर है।’

दितिने नियम पूछे। अत्यन्त कड़े थे नियम; किंतु वह सावधानीसे उनके पालनमें लग गयी। उसकी नियमनिष्ठा देखकर इन्द्रको भय लगा। वे उसके आश्रममें वेश बदलकर आये और उसकी सेवा करने लगे। इन्द्र सेवा तो करते थे; किंतु आये थे वे यह अवसर देखने कि कहीं नियमपालनमें दितिसे तनिक त्रुटि हो तो उनका काम बन जाय इन्द्रको मरना नहीं था, भगवान्ने जो विश्वका विधान बनाया है, उसे कोई बदल नहीं सकता। दितिसे तनिक सी त्रुटि हुई और फल यह हुआ कि उसके गर्भसे उन्चास मरुतोंका जन्म हुआ, जो देवताओंके मित्र तो क्या देवता ही बन गये।

-सु0 सिं0 (श्रीमद्भागवत 6 18)

दैत्यमाता दितिके दोनों पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु मारे जा चुके थे देवराज इन्द्रकी प्रेरणासे भगवान् विष्णुने वाराह एवं नृसिंह अवतार धारण करके उन्हें मारा था। यह स्पष्ट था कि उनका वध देवताओंकी रक्षाके लिये हुआ था। इसलिये दैत्यमाताका सारा क्रोध इन्द्रपर था। वह पुत्रशोकके कारण इन्द्रसे अत्यन्त रुष्ट थी और बराबर सोचती रहती थी कि इन्द्रको कैसे मारा जाय। परंतु उसके पास कोई उपाय नहीं था। उसके पतिदेव महर्षि कश्यप सर्वसमर्थ थे; किंतु अपने पुत्र देवताओं पर महर्षिका अधिक स्नेह था। वे भला, इन्द्रका अनिष्ट क्यों करने लगे।
दितिने निश्चय कर लिया कि चाहे जैसे हो, महर्षि कश्यपको ही प्रसन्न करके इन्द्रके वधकी व्यवस्था उनसे करानी है। अपने अभिप्रायको उसने मनमें अत्यन्त गुप्त रखा और वह पतिसेवामें लग गयी। निरन्तर तत्परता से दिति महर्षिकी सेवा करने लगी। अपनेको, चाहे जितना कष्ट हो, वह प्रसन्न बनाये रखती। रात-रात जागती, सदा महर्षिके समीप खड़ी रहती और उन्हें कब क्या आवश्यक है, यह देखती रहती। विनय एवं सेवाकी वह मूर्ति बन गयी। महर्षि कुछ भी कहें, वह मधुर वाणीमें उत्तर देती। उनकी ओर प्रेमपूर्वक देखती रहती। इस प्रकार एक लंबे समयतक वह लगी रही पतिसेवामें अपने परम तेजस्वी समर्थ पतिको उसने सेवासे वशमें कर लिया। महर्षि कश्यप उसपर प्रसन्न होकर अन्ततः एक दिन बोल उठे—’प्रिये! मैं तुम्हारी सेवासे प्रसन्न हूँ। तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, वर माँग लो।”
दिति इसी अवसरकी प्रतीक्षामें थी उसने कहा ‘देव! यदि आप सचमुच प्रसन्न हैं और वरदान देनाचाहते हैं तो मैं माँगती हूँ कि आपसे मुझे इन्द्रको देनेवाला पुत्र प्राप्त हो।’
महर्षि कश्यपने मस्तकपर हाथ दे मारा। कितना बड़ा अनर्थ – अपने ही प्रिय पुत्रको मारनेवाला दूसरा पुत्र उन्हें उत्पन्न करना पड़ेगा। स्त्रीजित न हो गये होते तो क्यों आता यह अवसर । लेकिन अब तो बात कही जा चुकी । वरदान देनेको कहकर अस्वीकार कैसे करेगा एक ऋषि । महर्षि उपाय सोचने लगे।
‘यदि तुम मेरे बताये नियमोंका एक वर्षतक पालन करोगी और ठीक विधिपूर्वक उपासना करोगी तो तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी।’ कश्यपजीने उपाय सोचकर कहा—’यदि नियमोंमें तनिक भी त्रुटि हुई तो तुम्हारा पुत्र देवताओंका मित्र होगा। तुम्हें पुत्र होगा; किंतु वह इन्द्रको मारनेवाला होगा या देवताओंका मित्र होगा, यह तो आज नहीं कहा जा सकता। यह तो तुम्हारे नियम पालनपर निर्भर है।’
दितिने नियम पूछे। अत्यन्त कड़े थे नियम; किंतु वह सावधानीसे उनके पालनमें लग गयी। उसकी नियमनिष्ठा देखकर इन्द्रको भय लगा। वे उसके आश्रममें वेश बदलकर आये और उसकी सेवा करने लगे। इन्द्र सेवा तो करते थे; किंतु आये थे वे यह अवसर देखने कि कहीं नियमपालनमें दितिसे तनिक त्रुटि हो तो उनका काम बन जाय इन्द्रको मरना नहीं था, भगवान्ने जो विश्वका विधान बनाया है, उसे कोई बदल नहीं सकता। दितिसे तनिक सी त्रुटि हुई और फल यह हुआ कि उसके गर्भसे उन्चास मरुतोंका जन्म हुआ, जो देवताओंके मित्र तो क्या देवता ही बन गये।
-सु0 सिं0 (श्रीमद्भागवत 6 18)

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