कृतघ्न पुरुषका मांस राक्षस भी नहीं खाते

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गौतम नामका एक ब्राह्मण था ब्राह्मण वह केवल अर्धमें था कि ब्राह्मण माता-पितासे उत्पन्न हुआ था, इस अन्यथा था वह निरक्षर और म्लेच्छप्राय पहले तो वह भिक्षा माँगता था किंतु भिक्षाटन करता हुआ जब म्लेच्छोंके नगरमें पहुँचा तब वहीं एक विधवा स्त्रीको पती बनाकर बस गया। म्लेच्छोंके संसर्गसे उसका स्वभाव भी उन्हींके समान हो गया। वनमें पशु पक्षियोंका आखेट करना ही उसकी जीविका हो गयी।

संयोगवश उधर एक विद्वान् ब्राह्मण आ निकले। यज्ञोपवीतधारी गौतमको व्याधके समान पक्षियोंको मारते देख उन्हें दया आ गयी। उन्होंने गौतमको समझाया कि यह पापकर्म वह छोड़ दे। उनके उपदेशसे गौतम भी धन कमानेका दूसरा साधन ढूँढ़ने निकल पड़ा। उसने पहले व्यापारियोंके एक यात्रीदलका साथ पकड़ा; किंतु वनमें मतवाले हाथियोंने उस दलपर आक्रमण कर दिया। कितने व्यापारी मारे गये, पता नहीं। प्राण बचाने के लिये गौतम अकेला भागा और फिर घोर वनमें भटक गया।

ब्राह्मण गौतमका भाग्य अच्छा था। वह भटकता हुआ एक ऐसे वनमें पहुँच गया, जिसमें पके हुए मधुर फलोंवाले वृक्ष थे। सुगन्धित वृक्ष भी वहाँ पर्याप्त थे और मधुर स्वरमें बोलनेवाले पक्षियोंका तो वह निवास ही था। उसी वनमें महर्षि कश्यपके पुत्र राजधर्मा नामक बगलेका निवास था। ब्राह्मण गौतम संयोगवश उस वनमें उसी विशाल वटवृक्षके नीचे जा बैठा, जिसपर राजधर्माका विश्रामस्थान था।

संध्या के समय चमकीले पंखोंवाले राजधर्मा ब्रह्मलोकसे अपने स्थानपर आये तो उन्होंने देखा कि उनके यहाँ एक अतिथि आया है। उन्होंने मनुष्य भाषामें गौतमको प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। गौतमके लिये उन्होंने कोमल पत्तों तथा सुगन्धित पुष्पोंकी शय्या बनादी। उसे भोजन कराया। भोजन करके जब ब्राह्मण लेट गया तब राजधर्मा अपने पंखोंसे उसे हवा करने लगे। जब राजधर्माको पता लगा कि ब्राह्मण दरिद्र है और धन पानेके लिये यात्रा कर रहा है, तब उन्होंने उसे वहाँसे तीन योजन दूर अपने मित्र विरूपाक्ष नामक राक्षसराजके यहाँ जानेको कहा। दूसरे दिन प्रातः काल ब्राह्मण वहाँसे चल पड़ा। जब राक्षसराजने सुना कि उनके मित्र राजधर्माने गौतमको भेजा है, तब उन्होंने गौतमका खूब सत्कार किया और उसे बहुत अधिक धन दिया।

राक्षसराजसे विदा होकर गौतम फिर उसी वनमें आया । राजधर्माने उसका फिर सत्कार किया। रात्रिमें राजधर्मा भी भूमिपर ही सो रहे । वहाँ उन्होंने पासमें अग्नि जला दी थी, जिससे वन्य पशु रात्रिमें ब्राह्मणपर आक्रमण न करें। रात्रिमें ही ब्राह्मणकी निद्रा भङ्ग हुई। वह सोचने लगा- ‘मेरा घर यहाँसे दूर है। लोभवश मैंने धन भी बहुत ले लिया। मार्गमें भोजनके लिये कुछ मिलेगा नहीं और मेरे पास भी कुछ है नहीं। इस मोटे बगुलेको मारकर साथ ले लूँ तो मेरा काम चल जायगा।’ यह विचारकर उस क्रूरने सोते हुए राजधर्माको मार डाला। उनके पंख नोचकर जलती अग्निमें उनका शरीर भून लिया और धनकी गठरी लेकर वहाँसे चल पड़ा।

इधर राक्षस विरूपाक्षने अपने पुत्रसे कहा- ‘बेटा! मेरे मित्र राजधर्मा प्रतिदिन ब्रह्माजीको प्रणाम करने ब्रह्मलोक जाते हैं और लौटते समय मुझसे मिले बिना किसी दिन घर नहीं जाते। आज दो रातें बीत गयीं, वे मुझसे मिलने नहीं आये। मुझे उस गौतम ब्राह्मणके लक्षण अच्छे नहीं लगते थे। मेरा चित्त व्याकुल हो रहा है। तुम पता तो लगाओ कि मेरे मित्र किस अवस्थामें हैं।’राक्षसराजका कुमार दूसरे राक्षसोंके साथ जब राजधर्माके निवासस्थानपर पहुँचा, तब वहाँ उसने उन पक्षिश्रेष्ठके नोचे हुए पंखोंको इधर-उधर बिखरे देखा; इससे उसे बड़ा दुःख हुआ। शोक और क्रोधके मारे उसने उस ब्राह्मणको ढूँढ़ना प्रारम्भ किया। थोड़ी ही देरमें राक्षसोंने ब्राह्मणको पकड़ लिया। उसे लेकर वे राक्षसराजके पास पहुँचे।

अपने मित्र बगुलेका झुलसा हुआ शरीर देखकर राक्षसराज शोकसे मूर्छित हो गये। उनके परिवार परिजनके लोग दुखी होकर रोने लगे। मूर्छा दूर होनेपर राक्षसराजने कहा- ‘राक्षसो! इस दुष्ट ब्राह्मणको मारकर इसका मांस खा लो!’

हाथ जोड़कर राक्षसगण बोले –’राजन्! इस पापीको हमलोग नहीं खाना चाहते। इस कृतघ्नका मांस खाकर हम भी पापी बनेंगे। आप इसे चाण्डालोंको दे दें।’ परंतु जब राक्षसराजने राक्षसोंद्वारा गौतमके शरीरकेटुकड़े-टुकड़े कराके वह मांस चाण्डालोंको देना चाहा, तब वे भी उसे लेनेको तैयार नहीं हुए। वे बोले-‘यह तो कृतघ्नका मांस है। इसे तो पशु, पक्षी और कीड़ेतक नहीं खाना चाहेंगे। हम इसे नहीं ले सकते।’ फलतः वह मांस याँ ही एक खंदकमें फेंक दिया गया।

अब राक्षसराजने सुगन्धित चन्दनकी चिता बनवायी और उसपर बड़े सम्मानसे अपने मित्र राजधर्माका शरीर रखा। परंतु उसी समय देवराज इन्द्रके साथ | कामधेनु आकाशमार्गसे वहाँ पधारीं। कामधेनुके मुखसे अमृतमय झाग चितापर रखे राजधर्माके शरीरपर गिर गया, इससे राजधर्मा जीवित हो गये।

जीवित होनेपर धर्मात्मा राजधर्माने उस ब्राह्मणको भी जीवित कर देनेका अनुरोध इन्द्रसे किया। देवराजकी कृपासे वह ब्राह्मण भी जीवित हो गया। यों बुरा करनेवालेको भी आपने जीवनदान दिया। यही साधुता है। सु0 सिं0 (महा0 शान्ति0 168 – 173)

गौतम नामका एक ब्राह्मण था ब्राह्मण वह केवल अर्धमें था कि ब्राह्मण माता-पितासे उत्पन्न हुआ था, इस अन्यथा था वह निरक्षर और म्लेच्छप्राय पहले तो वह भिक्षा माँगता था किंतु भिक्षाटन करता हुआ जब म्लेच्छोंके नगरमें पहुँचा तब वहीं एक विधवा स्त्रीको पती बनाकर बस गया। म्लेच्छोंके संसर्गसे उसका स्वभाव भी उन्हींके समान हो गया। वनमें पशु पक्षियोंका आखेट करना ही उसकी जीविका हो गयी।
संयोगवश उधर एक विद्वान् ब्राह्मण आ निकले। यज्ञोपवीतधारी गौतमको व्याधके समान पक्षियोंको मारते देख उन्हें दया आ गयी। उन्होंने गौतमको समझाया कि यह पापकर्म वह छोड़ दे। उनके उपदेशसे गौतम भी धन कमानेका दूसरा साधन ढूँढ़ने निकल पड़ा। उसने पहले व्यापारियोंके एक यात्रीदलका साथ पकड़ा; किंतु वनमें मतवाले हाथियोंने उस दलपर आक्रमण कर दिया। कितने व्यापारी मारे गये, पता नहीं। प्राण बचाने के लिये गौतम अकेला भागा और फिर घोर वनमें भटक गया।
ब्राह्मण गौतमका भाग्य अच्छा था। वह भटकता हुआ एक ऐसे वनमें पहुँच गया, जिसमें पके हुए मधुर फलोंवाले वृक्ष थे। सुगन्धित वृक्ष भी वहाँ पर्याप्त थे और मधुर स्वरमें बोलनेवाले पक्षियोंका तो वह निवास ही था। उसी वनमें महर्षि कश्यपके पुत्र राजधर्मा नामक बगलेका निवास था। ब्राह्मण गौतम संयोगवश उस वनमें उसी विशाल वटवृक्षके नीचे जा बैठा, जिसपर राजधर्माका विश्रामस्थान था।
संध्या के समय चमकीले पंखोंवाले राजधर्मा ब्रह्मलोकसे अपने स्थानपर आये तो उन्होंने देखा कि उनके यहाँ एक अतिथि आया है। उन्होंने मनुष्य भाषामें गौतमको प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। गौतमके लिये उन्होंने कोमल पत्तों तथा सुगन्धित पुष्पोंकी शय्या बनादी। उसे भोजन कराया। भोजन करके जब ब्राह्मण लेट गया तब राजधर्मा अपने पंखोंसे उसे हवा करने लगे। जब राजधर्माको पता लगा कि ब्राह्मण दरिद्र है और धन पानेके लिये यात्रा कर रहा है, तब उन्होंने उसे वहाँसे तीन योजन दूर अपने मित्र विरूपाक्ष नामक राक्षसराजके यहाँ जानेको कहा। दूसरे दिन प्रातः काल ब्राह्मण वहाँसे चल पड़ा। जब राक्षसराजने सुना कि उनके मित्र राजधर्माने गौतमको भेजा है, तब उन्होंने गौतमका खूब सत्कार किया और उसे बहुत अधिक धन दिया।
राक्षसराजसे विदा होकर गौतम फिर उसी वनमें आया । राजधर्माने उसका फिर सत्कार किया। रात्रिमें राजधर्मा भी भूमिपर ही सो रहे । वहाँ उन्होंने पासमें अग्नि जला दी थी, जिससे वन्य पशु रात्रिमें ब्राह्मणपर आक्रमण न करें। रात्रिमें ही ब्राह्मणकी निद्रा भङ्ग हुई। वह सोचने लगा- ‘मेरा घर यहाँसे दूर है। लोभवश मैंने धन भी बहुत ले लिया। मार्गमें भोजनके लिये कुछ मिलेगा नहीं और मेरे पास भी कुछ है नहीं। इस मोटे बगुलेको मारकर साथ ले लूँ तो मेरा काम चल जायगा।’ यह विचारकर उस क्रूरने सोते हुए राजधर्माको मार डाला। उनके पंख नोचकर जलती अग्निमें उनका शरीर भून लिया और धनकी गठरी लेकर वहाँसे चल पड़ा।
इधर राक्षस विरूपाक्षने अपने पुत्रसे कहा- ‘बेटा! मेरे मित्र राजधर्मा प्रतिदिन ब्रह्माजीको प्रणाम करने ब्रह्मलोक जाते हैं और लौटते समय मुझसे मिले बिना किसी दिन घर नहीं जाते। आज दो रातें बीत गयीं, वे मुझसे मिलने नहीं आये। मुझे उस गौतम ब्राह्मणके लक्षण अच्छे नहीं लगते थे। मेरा चित्त व्याकुल हो रहा है। तुम पता तो लगाओ कि मेरे मित्र किस अवस्थामें हैं।’राक्षसराजका कुमार दूसरे राक्षसोंके साथ जब राजधर्माके निवासस्थानपर पहुँचा, तब वहाँ उसने उन पक्षिश्रेष्ठके नोचे हुए पंखोंको इधर-उधर बिखरे देखा; इससे उसे बड़ा दुःख हुआ। शोक और क्रोधके मारे उसने उस ब्राह्मणको ढूँढ़ना प्रारम्भ किया। थोड़ी ही देरमें राक्षसोंने ब्राह्मणको पकड़ लिया। उसे लेकर वे राक्षसराजके पास पहुँचे।
अपने मित्र बगुलेका झुलसा हुआ शरीर देखकर राक्षसराज शोकसे मूर्छित हो गये। उनके परिवार परिजनके लोग दुखी होकर रोने लगे। मूर्छा दूर होनेपर राक्षसराजने कहा- ‘राक्षसो! इस दुष्ट ब्राह्मणको मारकर इसका मांस खा लो!’
हाथ जोड़कर राक्षसगण बोले -‘राजन्! इस पापीको हमलोग नहीं खाना चाहते। इस कृतघ्नका मांस खाकर हम भी पापी बनेंगे। आप इसे चाण्डालोंको दे दें।’ परंतु जब राक्षसराजने राक्षसोंद्वारा गौतमके शरीरकेटुकड़े-टुकड़े कराके वह मांस चाण्डालोंको देना चाहा, तब वे भी उसे लेनेको तैयार नहीं हुए। वे बोले-‘यह तो कृतघ्नका मांस है। इसे तो पशु, पक्षी और कीड़ेतक नहीं खाना चाहेंगे। हम इसे नहीं ले सकते।’ फलतः वह मांस याँ ही एक खंदकमें फेंक दिया गया।
अब राक्षसराजने सुगन्धित चन्दनकी चिता बनवायी और उसपर बड़े सम्मानसे अपने मित्र राजधर्माका शरीर रखा। परंतु उसी समय देवराज इन्द्रके साथ | कामधेनु आकाशमार्गसे वहाँ पधारीं। कामधेनुके मुखसे अमृतमय झाग चितापर रखे राजधर्माके शरीरपर गिर गया, इससे राजधर्मा जीवित हो गये।
जीवित होनेपर धर्मात्मा राजधर्माने उस ब्राह्मणको भी जीवित कर देनेका अनुरोध इन्द्रसे किया। देवराजकी कृपासे वह ब्राह्मण भी जीवित हो गया। यों बुरा करनेवालेको भी आपने जीवनदान दिया। यही साधुता है। सु0 सिं0 (महा0 शान्ति0 168 – 173)

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