बाणेश्वर महादेवके समक्ष विद्यापति मधुर कण्ठसे कीर्तन करते रहते और आँखोंसे झर-झर अश्रु झरता रहता
कखन हरब दुख मोर।
हे भोलानाथ ।
दुखहि जनम भेल दुखहि गमाएब ।
सुख सपनहु नहि भेल, हे भोलानाथ ।
भन विद्यापति मोर भोलानाथ गति ।
देहु अभय वर मोहि, हे भोलानाथ ॥
आशुतोषको प्रसन्न होते कितनी देर लगती। एक दिन एक व्यक्ति आया। जितना वह सुन्दर था और जैसी उसकी मीठी बातें थीं- विद्यापति मन्त्रमुग्ध से उसकी ओर देखते रह गये। आखिर उसने विद्यापतिसे अपनेकोनौकर रख लेनेकी याचना की। विद्यापतिने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसका नाम था ‘उगना’। अब आगे उगना ही विद्यापतिकी समस्त सेवाएँ किया करता ।
‘उगना! भैया! पानी पिला सकोगे ? बड़ी प्यास लगी है।’-चलते-चलते विद्यापति थक गये थे। लंबी यात्रा थी । साथमें केवल उगना था।
उगना समीपकी वृक्षावली ओटमें गया और कुछ ही देर बाद हाथमें जलसे भरा लोटा लेकर लौट आया। विद्यापति जल पीने लगे, किंतु जलका स्वाद भी कहीं इतना मधुर होता है! यह तो निश्चय ही भागीरथीका जल है । – विद्यापति एकटक अपने सेवकको देख रहे थे।
‘उगना ! यह तो निस्संदेह गङ्गाजल है। कहाँ पाया तुमने ?’ – बार-बार विद्यापति पूछते और उत्तरमें उगनाकेवल इतना ही कह देता- ‘निकटसे ही लाया हूँ।’ विद्यापति गङ्गाजल एवं कूप-जलका भेद न कर सकें, यह सम्भव नहीं । उगनाका उत्तर उनका समाधान न कर सका। किंतु यह उगना भी वञ्चना करे – यह तो सोचनेकी बात ही नहीं। वे क्या करते, मौन हो गये। फिर तो सहसा उगनाके स्थानपर उनके आराध्यदेव भगवान् शंकरका श्रीविग्रह व्यक्त हो गया और विद्यापति उनके श्रीचरणोंमें लोटने लगे। उनकी जटासे वैसे ही सुरसरिकी धारा प्रसरित होकर आकाशमें विलीन होती जा रही थी और अभी उस लोटेमें जल उस पुनीत प्रवाहसे ही आया था।
‘विद्यापति ! तुम्हें छोड़कर मैं रह नहीं सकता। किंतु सावधान! इस रहस्यको किसीपर प्रकट न करना; अन्यथा ‘उगना’ को फिर नहीं देख पाओगे।’ आकाशमें ये शब्द गूँजने लगे और फिर उन देवाधिदेवके स्थानपर उगना हँसने लगा।
यात्रा से लौटे हुए अपने पतिका गृहिणीने स्वागत किया। उगनाने भी गृहस्वामिनीकी वन्दना की, किंतु अब विद्यापति दूसरे थे। एक क्षण भी उन्हें उगनाके बिना चैन नहीं। सेवाके क्रममें भी पर्याप्त अन्तर था । ‘उगना मेरे स्वामीकी सेवा करता है या मेरे स्वामी उगनाकी मनुहार करते हैं ?’– गृहिणीके लिये यहसमस्या-सी बन गयी थी और वह अपने नौकरके इस व्यवहारसे पद-पदपर चिढ़ने लगी थी।
‘तबका गया तू अब आ रहा है, कब मैंने तुझे भेजा था वह लानेके लिये। बहुत सिर चढ़ गया है तू!– एक मोटा-सा ईंधनका चैला लेकर गृहस्वामिनी उगनापर टूट पड़ीं।
‘अरी, हाय री अधमे ! क्या कर रही है? मेरे स्वामी साक्षात् महादेवको चैलेसे मारेगी तू!’ -विद्यापतिने अपनी पत्नीको दौड़कर धक्का दे दिया। किंतु अब उगना तो अन्तर्हित हो चुका था ।
विद्यापति विक्षिप्त होकर न जाने कितने दिन पुकारते रहे
उगना रे मोर कतए गेला
कतए गेला सिव कीदहु भेला ॥
भाँग नहिं बटुआ रुसि बैसलाह ।
जोहि हेरि आनि देल, हँसि उठलाह ॥
जे मोर कहता उगना उदेस।
ताहि देबओं कर कँगना बेस ॥
नंदन बनमें भेटल महेस ।
गौरि मन हरषित मेटल कलेस ॥
विद्यापति भन उगना सों काज।
नहि हितकर मोर त्रिभुवन राज ॥
बाणेश्वर महादेवके समक्ष विद्यापति मधुर कण्ठसे कीर्तन करते रहते और आँखोंसे झर-झर अश्रु झरता रहता
कखन हरब दुख मोर।
हे भोलानाथ ।
दुखहि जनम भेल दुखहि गमाएब ।
सुख सपनहु नहि भेल, हे भोलानाथ ।
भन विद्यापति मोर भोलानाथ गति ।
देहु अभय वर मोहि, हे भोलानाथ ॥
आशुतोषको प्रसन्न होते कितनी देर लगती। एक दिन एक व्यक्ति आया। जितना वह सुन्दर था और जैसी उसकी मीठी बातें थीं- विद्यापति मन्त्रमुग्ध से उसकी ओर देखते रह गये। आखिर उसने विद्यापतिसे अपनेकोनौकर रख लेनेकी याचना की। विद्यापतिने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसका नाम था ‘उगना’। अब आगे उगना ही विद्यापतिकी समस्त सेवाएँ किया करता ।
‘उगना! भैया! पानी पिला सकोगे ? बड़ी प्यास लगी है।’-चलते-चलते विद्यापति थक गये थे। लंबी यात्रा थी । साथमें केवल उगना था।
उगना समीपकी वृक्षावली ओटमें गया और कुछ ही देर बाद हाथमें जलसे भरा लोटा लेकर लौट आया। विद्यापति जल पीने लगे, किंतु जलका स्वाद भी कहीं इतना मधुर होता है! यह तो निश्चय ही भागीरथीका जल है । – विद्यापति एकटक अपने सेवकको देख रहे थे।
‘उगना ! यह तो निस्संदेह गङ्गाजल है। कहाँ पाया तुमने ?’ – बार-बार विद्यापति पूछते और उत्तरमें उगनाकेवल इतना ही कह देता- ‘निकटसे ही लाया हूँ।’ विद्यापति गङ्गाजल एवं कूप-जलका भेद न कर सकें, यह सम्भव नहीं । उगनाका उत्तर उनका समाधान न कर सका। किंतु यह उगना भी वञ्चना करे – यह तो सोचनेकी बात ही नहीं। वे क्या करते, मौन हो गये। फिर तो सहसा उगनाके स्थानपर उनके आराध्यदेव भगवान् शंकरका श्रीविग्रह व्यक्त हो गया और विद्यापति उनके श्रीचरणोंमें लोटने लगे। उनकी जटासे वैसे ही सुरसरिकी धारा प्रसरित होकर आकाशमें विलीन होती जा रही थी और अभी उस लोटेमें जल उस पुनीत प्रवाहसे ही आया था।
‘विद्यापति ! तुम्हें छोड़कर मैं रह नहीं सकता। किंतु सावधान! इस रहस्यको किसीपर प्रकट न करना; अन्यथा ‘उगना’ को फिर नहीं देख पाओगे।’ आकाशमें ये शब्द गूँजने लगे और फिर उन देवाधिदेवके स्थानपर उगना हँसने लगा।
यात्रा से लौटे हुए अपने पतिका गृहिणीने स्वागत किया। उगनाने भी गृहस्वामिनीकी वन्दना की, किंतु अब विद्यापति दूसरे थे। एक क्षण भी उन्हें उगनाके बिना चैन नहीं। सेवाके क्रममें भी पर्याप्त अन्तर था । ‘उगना मेरे स्वामीकी सेवा करता है या मेरे स्वामी उगनाकी मनुहार करते हैं ?’- गृहिणीके लिये यहसमस्या-सी बन गयी थी और वह अपने नौकरके इस व्यवहारसे पद-पदपर चिढ़ने लगी थी।
‘तबका गया तू अब आ रहा है, कब मैंने तुझे भेजा था वह लानेके लिये। बहुत सिर चढ़ गया है तू!– एक मोटा-सा ईंधनका चैला लेकर गृहस्वामिनी उगनापर टूट पड़ीं।
‘अरी, हाय री अधमे ! क्या कर रही है? मेरे स्वामी साक्षात् महादेवको चैलेसे मारेगी तू!’ -विद्यापतिने अपनी पत्नीको दौड़कर धक्का दे दिया। किंतु अब उगना तो अन्तर्हित हो चुका था ।
विद्यापति विक्षिप्त होकर न जाने कितने दिन पुकारते रहे
उगना रे मोर कतए गेला
कतए गेला सिव कीदहु भेला ॥
भाँग नहिं बटुआ रुसि बैसलाह ।
जोहि हेरि आनि देल, हँसि उठलाह ॥
जे मोर कहता उगना उदेस।
ताहि देबओं कर कँगना बेस ॥
नंदन बनमें भेटल महेस ।
गौरि मन हरषित मेटल कलेस ॥
विद्यापति भन उगना सों काज।
नहि हितकर मोर त्रिभुवन राज ॥