विपत्तिका मित्र

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छः-सात वर्षकी बात है। दिल्लीमें एक टाँगेपर बैठा जा रहा था। टाँगा चलानेवाला अपने कार्यमें विशेष दक्ष प्रतीत नहीं होता था। बातचीत चल पड़ी। मैंने पूछा कि “आप कबसे यह काम करते हैं।’ उसने कहा- ‘अभी तीन-चार महीनेसे।’ इसी प्रसङ्गमें बात चीत बढ़ती गयी और मेरी जिज्ञासा भी। उसने अपने जीवनका जो वृत्तान्त सुनाया, वह संक्षेपतः इस प्रकार है

मैं पेशावर के पास होती मदनिका रहनेवाला हूँ। वहाँ मेरी आढ़तकी बड़ी दूकान थी। कपूरथलाके एक व्यापारी मेरे नगरमें माल लेने और बेचने प्रायः आतेरहते थे। वे जब आते, मुझे अपने नगरमें बसनेका निमन्त्रण दे जाते मैं भी कह देता, अच्छा कोशिश करूँगा। मेरी दूकानपर वे जितने दिन ठहरते, मैं उनकी यथाशक्ति पूरी सेवा करता, इतनेमें पाकिस्तान बन गया। सबके साथ मुझे भी वहाँसे निकलना पड़ा।

वहाँसे बहुत कष्टोंके बाद किसी प्रकार अमृतसर पहुँचा, अब कहीं रहने और काम-काज प्रारम्भ करनेका प्रश्न सामने आया। परिवारमें सब मिलाकर दस व्यक्ति थे। इसी समय मुझे कपूरथलेवाले मित्रका ध्यान आया। मैंने उनको पत्र लिखा। उसका तत्कालउत्तर आ गया, जिसमें मुझे परिवारसहित शीघ्र वहाँ पहुँचनेके लिये आग्रह किया गया था। मेरे मित्रने इस बातपर रोष भी प्रकट किया था कि ‘मैंने अपने भारत पहुँचनेकी सूचना इतनी देरसे क्यों दी !’ कुछ कारणोंसे मैं अमृतसरसे रवाना न हो सका। वे सज्जन तीन चार दिन बाद स्वयं वहीं आ गये और मुझे साथ चलनेके लिये उन्होंने बाध्य किया।

मैं परिवारसहित कपूरथला उन व्यापारी मित्रके पास पहुँच गया। उन्होंने मेरे वहाँ पहुँचते ही कह दिया ‘कम-से-कम छः मास आप मेरे पास सर्वथा निश्चिन्त होकर रहें, आपके सब व्ययका दायित्व मुझपर । अपने और बच्चोंके स्वास्थ्यका ध्यान करें। इसके बाद आपके भावी कार्यक्रमके सम्बन्धमें विचार किया जायगा।’ मैं किसी भी प्रकार उनपर आश्रित होकर नहीं रहना चाहता था। पर वे भी मुझे काम न करने देनेके लिये दृढनिश्चयी थे। किसी प्रकार छः मास कटे । मैंने कहा- ‘आपने मुझपर इतना उपकार किया है, इसका मैं कैसे बदला चुका सकता हूँ। आपकी आज्ञा का पालन हो गया। इसलिये अब आप मुझे छुट्टी दीजिये।’ इस प्रकार आज-कल करते उन्होंने एक महीना और निकाल दिया।

अन्तमें मैंने भी बहुत हठ किया। तब मेरे उन उपकारी मित्रने पूछा- ‘आप कहाँ जाना चाहते हैं ? यहीं कपूरथलामें रहें। मैं आपको दूकान खुलवा देता हूँ।’पर मैं अब, किसी प्रकार भी कपूरथलामें रहनेके लिये तैयार न था । बहुत खींचतानके बाद मैं दिल्ली जानेके लिये उनसे छुट्टी ले सका। उन्होंने चलते समय मेरे हाथमें तीन हजार रुपये नकद रख दिये और कहा ‘दिल्ली जाते ही आपको मकान नहीं मिलेगा, रोजगार ढूँढ़ना होगा, तबतक कैसे गुजारा करेंगे? ये रुपये काम आयेंगे। यदि फिर जरूरत हो तो निःसंकोच दिल्लीसे लिख देना, मैं और भेज दूँगा।’ मैं यह राशि लेनेको किसी प्रकार भी उद्यत नहीं था। फिर खींचतान हुई। मैंने कड़ा विरोध किया पर सब व्यर्थ

मैं दिल्ली पहुँचा। किसी प्रकार पगड़ी देनेपर एक छोटा-सा कमरा मिला, जिसमें हम दस प्राणी रहते हैं, पर दूकान नहीं मिल सकी। इसलिये, मैंने तीन-चार माससे, टाँगा चलानेका काम शुरू कर दिया। आजतक यह काम कभी नहीं किया था। पर मेहनत तो करनी ही है। इस समय उसकी आँखोंमें आँसू थे। उसने कहा—’बाबूजी! मैंने तो कपूरथलाके व्यापारी मित्रकी कुछ भी सेवा नहीं की थी, पर उसने मुझपर इतने उपकार किये हैं कि जिनका बदला मैं कई जन्मोंमें भी नहीं चुका सकूँगा।’

मैंने कहा- भाई ! थोड़ा-सा किया गया उपकार भी कभी व्यर्थ नहीं जाता है। आपने स्वयं इसका अनुभव कर लिया। आप भी अपने जीवनमें सेवा और पर कल्याणका व्रत लें।

छः-सात वर्षकी बात है। दिल्लीमें एक टाँगेपर बैठा जा रहा था। टाँगा चलानेवाला अपने कार्यमें विशेष दक्ष प्रतीत नहीं होता था। बातचीत चल पड़ी। मैंने पूछा कि “आप कबसे यह काम करते हैं।’ उसने कहा- ‘अभी तीन-चार महीनेसे।’ इसी प्रसङ्गमें बात चीत बढ़ती गयी और मेरी जिज्ञासा भी। उसने अपने जीवनका जो वृत्तान्त सुनाया, वह संक्षेपतः इस प्रकार है
मैं पेशावर के पास होती मदनिका रहनेवाला हूँ। वहाँ मेरी आढ़तकी बड़ी दूकान थी। कपूरथलाके एक व्यापारी मेरे नगरमें माल लेने और बेचने प्रायः आतेरहते थे। वे जब आते, मुझे अपने नगरमें बसनेका निमन्त्रण दे जाते मैं भी कह देता, अच्छा कोशिश करूँगा। मेरी दूकानपर वे जितने दिन ठहरते, मैं उनकी यथाशक्ति पूरी सेवा करता, इतनेमें पाकिस्तान बन गया। सबके साथ मुझे भी वहाँसे निकलना पड़ा।
वहाँसे बहुत कष्टोंके बाद किसी प्रकार अमृतसर पहुँचा, अब कहीं रहने और काम-काज प्रारम्भ करनेका प्रश्न सामने आया। परिवारमें सब मिलाकर दस व्यक्ति थे। इसी समय मुझे कपूरथलेवाले मित्रका ध्यान आया। मैंने उनको पत्र लिखा। उसका तत्कालउत्तर आ गया, जिसमें मुझे परिवारसहित शीघ्र वहाँ पहुँचनेके लिये आग्रह किया गया था। मेरे मित्रने इस बातपर रोष भी प्रकट किया था कि ‘मैंने अपने भारत पहुँचनेकी सूचना इतनी देरसे क्यों दी !’ कुछ कारणोंसे मैं अमृतसरसे रवाना न हो सका। वे सज्जन तीन चार दिन बाद स्वयं वहीं आ गये और मुझे साथ चलनेके लिये उन्होंने बाध्य किया।
मैं परिवारसहित कपूरथला उन व्यापारी मित्रके पास पहुँच गया। उन्होंने मेरे वहाँ पहुँचते ही कह दिया ‘कम-से-कम छः मास आप मेरे पास सर्वथा निश्चिन्त होकर रहें, आपके सब व्ययका दायित्व मुझपर । अपने और बच्चोंके स्वास्थ्यका ध्यान करें। इसके बाद आपके भावी कार्यक्रमके सम्बन्धमें विचार किया जायगा।’ मैं किसी भी प्रकार उनपर आश्रित होकर नहीं रहना चाहता था। पर वे भी मुझे काम न करने देनेके लिये दृढनिश्चयी थे। किसी प्रकार छः मास कटे । मैंने कहा- ‘आपने मुझपर इतना उपकार किया है, इसका मैं कैसे बदला चुका सकता हूँ। आपकी आज्ञा का पालन हो गया। इसलिये अब आप मुझे छुट्टी दीजिये।’ इस प्रकार आज-कल करते उन्होंने एक महीना और निकाल दिया।
अन्तमें मैंने भी बहुत हठ किया। तब मेरे उन उपकारी मित्रने पूछा- ‘आप कहाँ जाना चाहते हैं ? यहीं कपूरथलामें रहें। मैं आपको दूकान खुलवा देता हूँ।’पर मैं अब, किसी प्रकार भी कपूरथलामें रहनेके लिये तैयार न था । बहुत खींचतानके बाद मैं दिल्ली जानेके लिये उनसे छुट्टी ले सका। उन्होंने चलते समय मेरे हाथमें तीन हजार रुपये नकद रख दिये और कहा ‘दिल्ली जाते ही आपको मकान नहीं मिलेगा, रोजगार ढूँढ़ना होगा, तबतक कैसे गुजारा करेंगे? ये रुपये काम आयेंगे। यदि फिर जरूरत हो तो निःसंकोच दिल्लीसे लिख देना, मैं और भेज दूँगा।’ मैं यह राशि लेनेको किसी प्रकार भी उद्यत नहीं था। फिर खींचतान हुई। मैंने कड़ा विरोध किया पर सब व्यर्थ
मैं दिल्ली पहुँचा। किसी प्रकार पगड़ी देनेपर एक छोटा-सा कमरा मिला, जिसमें हम दस प्राणी रहते हैं, पर दूकान नहीं मिल सकी। इसलिये, मैंने तीन-चार माससे, टाँगा चलानेका काम शुरू कर दिया। आजतक यह काम कभी नहीं किया था। पर मेहनत तो करनी ही है। इस समय उसकी आँखोंमें आँसू थे। उसने कहा—’बाबूजी! मैंने तो कपूरथलाके व्यापारी मित्रकी कुछ भी सेवा नहीं की थी, पर उसने मुझपर इतने उपकार किये हैं कि जिनका बदला मैं कई जन्मोंमें भी नहीं चुका सकूँगा।’
मैंने कहा- भाई ! थोड़ा-सा किया गया उपकार भी कभी व्यर्थ नहीं जाता है। आपने स्वयं इसका अनुभव कर लिया। आप भी अपने जीवनमें सेवा और पर कल्याणका व्रत लें।

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