भगवान को रिझाने के लिए दिल का भाव आवश्यक है

एक नट था , मदारी , वो लोगों के मनोरंजन के लिए करतव दिखाया करता था और अपना जीविका चलाता था ।
एक दिन मंदिर में वो देखा कि कुछ लोग ( पंडित आदि के साथ ) भजन कीर्तन कर रहे हैं , वो भी वहां बैठ गया भजन कीर्तन में , लेकिन उसको न सुर का ज्ञान था और न लय का, वो शोहर में बेसुरा गाने लगा वहां , भैंस जैसी आवाज थी उसकी । कुछ लोगों ने उसको डांट दिया , ऐ चुप हो जा , हमें भजन कीर्तन में डिस्टर्ब मत कर तुम कोई पद मत दूहरा , तुम्हारा सूर लय गला ठीक नहीं ।

वो बेचारा सोंचा कि इनके पास जो कला है उससे ये लोग भगवान को रिझाते हैं , मैं भगवान को कैसे रिझाऊं ?
उसने सोंचा कि मुझे रस्सी पर चलने कि कला आती है , उसी से मैं भगवान का मनोरंजन करूंगा , अभी तक लोगों का किया है अब भगवान का करूंगा ।

सबके चले जाने पर वो मंदिर के अंदर गया , पट बंद कर लिया , विल्कूल एकांत साधना कि तरह और दोनों छोड़ पर दो खुंटा खड़ा करके उसके दोनों छोड़ पर रस्सी बांध दिया और उसपर चल कर भगवान को रिझाने का हर रोज प्रयास करने लगा ।
कुछ लोगों ने उसका यह नौटंकी देख लिया और पंडित को कंप्लेन किया कि यह मंदिर के अंदर अपने कला का प्रैक्टिस करता है इसको रोकिए ।

पंडित ने उसको बुला कर डांटा और मना कर दिया ।
वो बेचारा डर गया ।‌
अब दूसरे दिन वो बहुत दुखी था वो अपने घर में मायुस बैठा था ।

भगवान ने अपने भक्त के भावना को आहत देखकर बहुत दुःखी हुए और पंडित को स्वप्न में बहुत डांट पिलाई ।
पंडित सीधे उस नट के घर पर पंहुचा और पैरों में गिर परा , बोला कि धन्य है आप , इतने दिनों से हम। सब भजन कीर्तन करते हैं आज तक भगवान के दर्शन नहीं हुआ लेकिन आपके कारण भगवान ने हमें अपना दर्शन दिया , आप प्रत्येक रोज अपने कला से भगवान को रिझाइए ।
मुझे माफ़ कर दीजिए । हम आपके शरण में है ।
तो इस प्रकार कोई भी कला भगवान को रिझाने में सहायक है केवल संगीत नहीं ।
यह सब साधन मात्र है अगर साधन नहीं तो कोई फिक्र नहीं ।
श्री महाराज जी का तो सिद्धांत ही है ।
” साधन हीन दीन मैं राधे ,तुम करूणामई प्रेम अगाधे।”
तो जैसे आवे वैसे रूपध्यान हमें करना चाहिए। भाव आवश्यक है साधन नहीं । और साधन का अहंकार तो डूबाने वाला होता है । श्री राधे ।।:- श्री महाराज के प्रवचन से ।

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