भक्त परमेष्ठी दर्जी

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।। श्रीहरिः।।

आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व दिल्ली में परमेष्ठी नाम का काले रंग का एक कुबड़ा दर्जी रहता था। शरीर से कुरूप होने पर भी वह हृदय से भगवान का भक्त था। उसकी पत्नी का नाम था विमला। उसके एक पुत्र और दो कन्याएँ थीं।


उसे स्त्री पुत्रादि का कोई मोह नहीं था। भगवान नाम में उसकी अपार प्रीति थी। कपड़े सीते-सीते वह नाम जप किया करता था। भक्त होने के साथ परमेष्ठी अपने काम में पूरा निपुण था। सिलाई के बारीक काम के लिए उसकी ख्याति थी। बड़े-बड़े अमीर, नवाब उसीसे अपने वस्त्र सिलवाते थे। बादशाह को भी उसी के सिले वस्त्र पसंद आते थे।

एक बार बादशाह के सिंहासन के नीचे दो बढ़िया गलीचे उनके पैर रखने के लिए बिछाये गये। बादशाह को वे गलीचे पसंद नहीं आये। उन्होंने दो तकिये बनवाने का विचार किया। बहुमूल्य मखमल मँगाकर उस पर सोने के तारों के सहारे हीरे, माणिक, मोती जड़वाये गये। जड़ाऊ काम बादशाह को पसंद आया । परमेष्ठी को बुलवाकर बादशाह ने वह कपड़ा उन्हें दिया और उसके दो तकिए बनाने का आदेश दिया। परमेष्ठी वह रत्नजटित वस्त्र लेकर घर आ गये।

घर आकर परमेष्ठी ने उस वस्त्र के दो खोल बनाये। दोनों में इत्र से सुगन्धित रुई भरी। तकियों के ऊपर रत्नों के बने फूल-पत्ते जगमग करने लगे। इत्र की सुगन्ध से घर भर गया। ऐसे तकिये भला दर्जी अपने घर में कैसे रखे। वह उन्हें बादशाह के यहाँ ले जाने को उठ खड़ा हुआ ।
तकियों को उठाकर हाथ में लेते ही परमेष्ठी ने ध्यान से रत्नों की छटा देखी । उनके मन ने कहा–‘कितने सुन्दर हैंं ये तकिये? ये क्या एक सामान्य मनुष्य के योग्य हैं? इनके अधिकारी तो भगवान वासुदेव ही हैं।’

जैसे-जैसे इत्र की सुगन्ध नाक में पहुंचने लगी, वैसे-वैसे यह विचार और दृढ़ होने लगा।मन में द्वन्द्व चलने लगा–‘वह कारीगरी किस काम की, जो भगवान की सेवा में न लगे । परंतु मैं क्या करूँ? तकिए तो बादशाह के हैं।’
मन के असमंजस ने ऐसा रूप लिया कि परमेष्ठी को पता ही न चला कि वह कहाँ है, क्या कर रहा है । उस दिन जगन्नाथपुरी में रथयात्रा का महोत्सव था। परमेष्ठी एक बार जाकर रथयात्रा का महोत्सव देख आया था। आज भावावेश में जैसे रथयात्रा का वह प्रत्यक्ष दर्शन करने लगा । परमेष्ठी देख रहा है- — श्री जगन्नाथ जी रथ पर विराजमान हैं। सहस्त्रों नर नारी रस्सी पकड़कर रथ को खींच रहे हैं। कई पीछे से ठेल रहे हैं। कीर्तन हो रहा है , जयजयकार गूंज रहा है । सेवक गण एक के बाद एक वस्त्र विछाते जा रहे हैं ।श्री जगन्नाथ जी एक वस्त्र से दूसरे वस्त्र पर पधारते हैं। सहसा रथ के कठिन आघात से जगन्नाथ जी के नीचे विछाया हुआ वस्त्र फट गया। सेवक मन्दिर में दूसरा वस्त्र लेने दौड़े, पर उन्हें देर होने लगी। परमेष्ठी से यह दृश्य देखा नहीं गया। उन्होंने शीघ्रता से दो तकियों में से एक जगन्नाथ जी को अर्पण कर दिया। प्रभु ने उसे स्वीकार कर लिया। परमेष्ठी के आनन्द का पार नहीं रहा। वह आनन्द के मारे दोनों हाथ उठाकर नाचने लगा।

परमेष्ठी ने स्वप्न नहीं देखा था। सचमुच रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ स्वामी के नीचे का एक वस्त्र फट गया था और पुजारियों ने देखा कि किसी भक्त ने रथ पर एक बहुमूल्य रत्नजटित तकिया प्रभु को चढ़ा दिया है। यहाँ होश में आकर परमेष्ठी ने देखा कि एक तकिया गायब है । उसे बड़ा आनन्द हुआ। सर्वान्तरामी प्रभु ने उसके हृदय की बात जानकर एक तकिया स्वीकार कर लिया। अब उसे किसी का क्या भय।क्षुद्र बादशाह उसके प्राण ही तो ले सकता है । वह कहाँ मृत्यु से डरता है । उसके दयामय प्रभु ने उस पर इतनी कृपा की।वह तो आनन्द के मारे कीर्तन करता हुआ नाचने लगा।
बादशाह के सिपाही उसे बुलाने आये। एक तकिया लेकर वह बादशाह के पास पहुंचा । बादशाह तकिये की कारीगरी देखकर बहुत सन्तुष्ट हुआ। उसने दूसरे तकिये की बात पूछी। परमेष्ठी ने निर्भयता पूर्वक कहा– उसे तो नीलाचलनाथ श्री जगन्नाथ स्वामी ने स्वीकार कर लिया। पहले तो बादशाह ने परिहास समझा। वह बार बार पूछने लगा। जब दर्जी ने यही बात अनेक बार कही, तब बादशाह को क्रोध आ गया। उन्होंने परमेष्ठी को कारागार में डालने का आदेश दे दिया।
परमेष्ठी कारागार की अँधेरी कोठरी में पड़े-पड़े प्रभु का स्मरण कर रहे थे। सहसा हथकड़ी टूट गयी, तड़ाक-तड़ाक करके बेड़ियों के टुकड़े उड़ गये। भड़भड़ाकर बंदीगृह की कोठरी का द्वार खुल गया। परमेष्ठी के सामने एक अपूर्व ज्योति प्रकट हुई। दूसरे ही क्षण शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी प्रभु ने उन्हें दर्शन दिया। परमेष्ठी आनन्दमग्न होकर प्रभु के चरणों में लोटने लगे। प्रभु ने कहा–‘परमेष्ठी ! मेरे भक्त से अधिक बलवान संसार में और कोई नहीं है ।किसका साहस है जो मेरे भक्त को कष्ट दे। आ बेटा! मेरे पास आ।’
परमेष्ठी तो कृतार्थ हो गये। प्रभु ने अपने चरणों पर गिरते हुए उन्हें उठाया।उनके मस्तक पर अपना अभय कर रखा। उन्हें मुक्त करके वे अन्तर्धान हो गये।
उधर बादशाह ने स्वप्न में एक बड़ा भयंकर पुरुष देखा। जैसे साक्षात् महाकाल अपना कठोर दण्ड उठाकर उसे पीट रहे हों और गर्जन करके कहते हों—‘ तू परमेष्ठी को कैद करेगा? तू?’ बादशाह डर के मारे चीखकर जग गया। वह थर-थर कांप रहा था।उसका अंग-अंग दर्द कर रहा था।शरीर पर प्रहार के स्पष्ट चिन्ह थे।सवेरा होते ही उसने मन्त्रियों से स्वप्न की बात कही।सबको लेकर वह कैदखाने गया। वहाँ पहरेदार सोये पड़े थे। परमेष्ठी की हथकड़ी-बेड़ी टूटी हुयी थी। उनके शरीर से दिव्य तेज निकल रहा था। वे ध्यान में मग्न थे। ध्यान टूटने पर वे व्याकुल से होकर रोने लगे। बादशाह को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने परमेष्ठी से हाथ जोड़कर क्षमा मांगी। नाना प्रकार के वस्त्राभरणों से सज्जित करके हाथी पर बैठाकर गाजे-वाजे के साथ उन्हें शहर लाया। बहुत सा धन दिया उसने। चारों ओर भक्त परमेष्ठी का जय-जयकार होने लगा।
परमेष्ठी को यह मान प्रतिष्ठा बिल्कुल नहीं रुची। प्रतिष्ठा से बचने के लिए दिल्ली छोड़कर वे दूसरी जगह चले गये और वहीं रहकर पूरा जीवन उन्होंने भगवान के भजन पूजन में व्यतीत किया।

।। Srihari:.

About four hundred years ago, a hunchback black tailor named Parmeshthi lived in Delhi. Despite being ugly in body, he was a devotee of God at heart. His wife’s name was Vimla. He had one son and two daughters.
He had no attachment to women and children. He had immense love for the name of God. He used to chant the name while sewing clothes. Apart from being a devotee, Parmeshthi was completely proficient in his work. She was known for her fine tailoring work. Big rich, Nawab used to get their clothes stitched from him. The king also liked the clothes stitched by him.

Once, two fine rugs were spread under the king’s throne to keep his feet. The king did not like those rugs. He thought of making two pillows. Precious velvet was procured and diamonds, rubies and pearls were studded on it with the help of gold wires. The king liked the inlay work. After calling Parmeshthi, the king gave him that cloth and ordered two pillows to be made of it. Parmeshthi, he came home with a jewel-studded garment.

After coming home, Parmeshthi made two shells of that cloth. Both were filled with perfume-scented cotton. Flowers and leaves made of gems started shining on the pillows. The house was filled with the fragrance of perfume. How can a tailor keep such pillows in his house? He got up to take them to the king.
As soon as he picked up the pillows and took them in his hand, Parmeshthi carefully observed the color of the gems. His mind said – ‘How beautiful are these pillows? Is this what a normal human being is capable of? Its authority is Lord Vasudev only.

As the fragrance of the perfume started reaching the nose, this thought became more and more firm. A conflict started running in the mind – ‘What is the use of that workmanship, which is not used in the service of God. But what should I do? The pillows belong to the king.
The confusion of the mind took such a form that Parmeshthi did not know where he was, what he was doing. That day there was a Rath Yatra festival in Jagannathpuri. Parmeshthi once went to see the Rath Yatra festival. Today, in a fit of emotion, he started having a direct darshan of the Rath Yatra. Parmeshthi is watching – Shri Jagannath ji is sitting on the chariot. Thousands of men and women are pulling the chariot by holding the ropes. Many are pushing from behind. Kirtan is happening, hail is echoing. The servants are spreading one cloth after another. Shri Jagannath ji comes from one cloth to another. Suddenly the cloth spread under Jagannath ji was torn by the hard impact of the chariot. The servants ran to the temple to get another cloth, but they started getting late. This scene was not seen from Parmeshthi. He quickly offered one of the two pillows to Jagannath ji. The Lord accepted him. Parmeshthi’s joy could not be crossed. He raised both his hands in joy and started dancing.

परमेष्ठी ने स्वप्न नहीं देखा था। सचमुच रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ स्वामी के नीचे का एक वस्त्र फट गया था और पुजारियों ने देखा कि किसी भक्त ने रथ पर एक बहुमूल्य रत्नजटित तकिया प्रभु को चढ़ा दिया है। यहाँ होश में आकर परमेष्ठी ने देखा कि एक तकिया गायब है । उसे बड़ा आनन्द हुआ। सर्वान्तरामी प्रभु ने उसके हृदय की बात जानकर एक तकिया स्वीकार कर लिया। अब उसे किसी का क्या भय।क्षुद्र बादशाह उसके प्राण ही तो ले सकता है । वह कहाँ मृत्यु से डरता है । उसके दयामय प्रभु ने उस पर इतनी कृपा की।वह तो आनन्द के मारे कीर्तन करता हुआ नाचने लगा।
बादशाह के सिपाही उसे बुलाने आये। एक तकिया लेकर वह बादशाह के पास पहुंचा । बादशाह तकिये की कारीगरी देखकर बहुत सन्तुष्ट हुआ। उसने दूसरे तकिये की बात पूछी। परमेष्ठी ने निर्भयता पूर्वक कहा- उसे तो नीलाचलनाथ श्री जगन्नाथ स्वामी ने स्वीकार कर लिया। पहले तो बादशाह ने परिहास समझा। वह बार बार पूछने लगा। जब दर्जी ने यही बात अनेक बार कही, तब बादशाह को क्रोध आ गया। उन्होंने परमेष्ठी को कारागार में डालने का आदेश दे दिया।
परमेष्ठी कारागार की अँधेरी कोठरी में पड़े-पड़े प्रभु का स्मरण कर रहे थे। सहसा हथकड़ी टूट गयी, तड़ाक-तड़ाक करके बेड़ियों के टुकड़े उड़ गये। भड़भड़ाकर बंदीगृह की कोठरी का द्वार खुल गया। परमेष्ठी के सामने एक अपूर्व ज्योति प्रकट हुई। दूसरे ही क्षण शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी प्रभु ने उन्हें दर्शन दिया। परमेष्ठी आनन्दमग्न होकर प्रभु के चरणों में लोटने लगे। प्रभु ने कहा-‘परमेष्ठी ! मेरे भक्त से अधिक बलवान संसार में और कोई नहीं है ।किसका साहस है जो मेरे भक्त को कष्ट दे। आ बेटा! मेरे पास आ।’
परमेष्ठी तो कृतार्थ हो गये। प्रभु ने अपने चरणों पर गिरते हुए उन्हें उठाया।उनके मस्तक पर अपना अभय कर रखा। उन्हें मुक्त करके वे अन्तर्धान हो गये।
उधर बादशाह ने स्वप्न में एक बड़ा भयंकर पुरुष देखा। जैसे साक्षात् महाकाल अपना कठोर दण्ड उठाकर उसे पीट रहे हों और गर्जन करके कहते हों—‘ तू परमेष्ठी को कैद करेगा? तू?’ बादशाह डर के मारे चीखकर जग गया। वह थर-थर कांप रहा था।उसका अंग-अंग दर्द कर रहा था।शरीर पर प्रहार के स्पष्ट चिन्ह थे।सवेरा होते ही उसने मन्त्रियों से स्वप्न की बात कही।सबको लेकर वह कैदखाने गया। वहाँ पहरेदार सोये पड़े थे। परमेष्ठी की हथकड़ी-बेड़ी टूटी हुयी थी। उनके शरीर से दिव्य तेज निकल रहा था। वे ध्यान में मग्न थे। ध्यान टूटने पर वे व्याकुल से होकर रोने लगे। बादशाह को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने परमेष्ठी से हाथ जोड़कर क्षमा मांगी। नाना प्रकार के वस्त्राभरणों से सज्जित करके हाथी पर बैठाकर गाजे-वाजे के साथ उन्हें शहर लाया। बहुत सा धन दिया उसने। चारों ओर भक्त परमेष्ठी का जय-जयकार होने लगा।
परमेष्ठी को यह मान प्रतिष्ठा बिल्कुल नहीं रुची। प्रतिष्ठा से बचने के लिए दिल्ली छोड़कर वे दूसरी जगह चले गये और वहीं रहकर पूरा जीवन उन्होंने भगवान के भजन पूजन में व्यतीत किया।

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