भक्ता श्रीवारमुखीजी

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गणिका थीं श्रीवारमुखीजी। लोक और वेद-दोनोंसे गर्हित था उनका कर्म परंतु प्रभुकी कृप किसपर हो जाय, कब किसके किस जन्मका पुण्य उदय हो जाय यह पता नहीं होता।

श्रीवा भी यह नहीं जानती थीं कि ‘आज मेरे किस सौभाग्यका उदय हुआ है। एक वेश्याके द्वारपर साधु ऐसा न हो कि मेरा परिचय पाकर महात्मा लोग चले जायें।’

दक्षिण देशकी उस गणिकाने नगरसे लौटक देखा कि उसके द्वारके सम्मुख पीपलके पेड़के नीचेके चबूतरेपर वैष्णव सन्तोंने आसन कर रखा है।। जल रही है। छत्ता गाड़कर उसके नीचे ठाकुरजीका सिंहासन लगा दिया गया है। साधुओं कोई घिस रहा है, कोई पार्षद (पूजापात्र) मल रहा है और कोई तिलक कर रहा है। वेश्याने सोचा कि इनका आतिथ्य करनेयोग्य तो हूँ नहीं, मेरा अन्न भला साधु कैसे ग्रहण करेंगे!’ वह भीतर गयी।

एक चाँदी थाली में जितनी स्वर्ण मुद्राएँ आ सकीं, उसने लाकर ठाकुरजीके सामने थोड़ी दूरीपर रख दिया।
‘मैया! तू कौन है?’ एक साधुने पूछा। इतना द्रव्य श्रद्धासे अनजान स्त्रीका निवेदन करना कम -आश्चर्यजनक नहीं था।

‘आप और चाहे जो पूछें, परंतु मेरा परिचय न पूछें!’ उसने मुख नीचा करके प्रार्थना की। ‘साधुसे भयकी क्या बात है ?’ महात्माने आग्रह किया।

‘मैं महानीच हूँ। मेरे पापोंका कोई हिसाब नहीं। सम्भवतः मुझे देखकर नरकके जीव भी घृणा करो।। आप ही मेरा जीवन है। शरीरको बेचकर मेरी जीविका चलती है।’ रोते हुए उसने कहा। ‘ ले जा अपना थाल! साधु वेश्याओंका धन नहीं लिया करते!’ एक साधुने झिड़क दिया।

‘महाराज ! मेरी-जैसी महापापिनीसे नरक या नारकीय जीवतक घृणा कर सकते हैं, किंतु गंगा, गोदावरी बादि पुण्यतोया नदियाँ तो घृणा नहीं करतीं। मैं नित्य गोदामाताकी पवित्र धारामें डुबकी लगाती हूँ। उन्होंने भी मेरा तिरस्कार नहीं किया। सुना है कि साधु गंगा-गोदावरी आदि नदियोंसे भी अधिक पवित्र होते । सन्त तो सुरसरिको भी पवित्र कर देते हैं। आप यदि मुझसे घृणा करेंगे तो फिर कौन पतितोंका उद्धार रेगा! मेरा दुर्भाग्य!’ उसने अत्यन्त दुःखित होकर थाल उठा लिया।

‘मैया! श्रीरंगनाथके लिये मुकुट बनवा दे,’ मण्डलीमें जो सबसे वृद्ध थे, उन्होंने कहा। गणिकाको क्तिभरी वाणीने उन्हें द्रवित कर दिया था ।

‘जिसकी भेंट सन्त नहीं लेते, उसकी रंगनाथ तो क्या लेंगे! साधु तो भगवान्से भी अधिक दयालु होते वे तो उन सर्वेशसे भी अधिक पतितोंपर कृपा करते हैं। जिसका तिरस्कार साधुओंने ही कर दिया, उसके भगवान् से क्या आशा रही।’ वह रोती हुई जा रही थी ।

‘मैया! उपहार न लेना होता तो मुकुट बनानेका आदेश न देता ! वृद्ध साधुने स्पष्ट समझाया। वह द्रव्य साधुओंने स्वीकार कर लिया। तीन लाख रुपयोंसे वेश्याने एक सुन्दर रत्नजटित मुकुट बनवाया और

‘मैं अपवित्र हूँ, मेरा मन्दिरमें जाना उचित नहीं। आप मुकुट भगवान्‌को चढ़ा दें!’ भला, श्रीरंगनाथके पुजारीजी यह वेश्याका आग्रह कैसे मान लें। उन्हें तो स्वप्नमें भगवान्ने स्पष्ट आदेश दिया था कि वे उसी वेश्याके हाथसे मुकुट धारण करेंगे। विवश होकर वह मुकुट लेकर गयी।

दोनों हाथोंमें मुकुट उठाकर नृत्य करते हुए वह आगे बढ़ी। आज भगवान्के श्रृंगारमें मस्तकपर मुकुट नहीं था। सिंहासन ऊँचा था । मूर्तिके मस्तकतक वश्याका हाथ पहुंच नहीं सकता था।

उसने मुकुट उठाया। सबने देखा कि श्रीरंगनाथके श्रीविग्रहने मस्तक झुका दिया है। वेश्याने मुकुट उठाकर रख दिया। मूर्ति पूर्ववत् हो गयी। मन्दिरके प्रांगणमें ही, भगवान्की इस असीम कृपाका अनुभव करके उनके दर्शन करते हुए ही उसने शरीर छोड़ दिया।

भगवान्को भक्तवत्सलताकी इस घटनाका श्रीप्रियादासजीने अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है-

वेश्याको प्रसंग सुनौ अति रसरंग भस्यो भयो घर धन अहो ऐपै कौन काम कौ।
चले मग जात जन ठौर स्वच्छ आई मन छाई भूमि आसन सो लोभ नहीं दाम कौ॥
निकसी झमकि द्वार हंससे निहारि सब कौन भाग जागे भेद नहीं मेरे नाम कौ।


मुहरनि पात्र भरि लै महन्त आगे धरयो ढट्यो दृग नीर कही भोग करौ श्याम कौ॥ २५०॥
पूछी तुम कौन काके भौनमें जनम लियो ? कियो सुनि मौन महाचिन्ता चित्त धरी है।
‘खोलिकै निसंक कहौ संका जिनि मानौ मन’ कही ‘वारमुखी’ ऐपै पांय आय परी है ॥
भरो है भण्डार धन करो अंगीकार अजू करिये विचार जो पै तो पै यह मरी है।


एक है उपाय हाथ रंगनाथजू को अहौ कीजिये मुकुट जामें जाति मति हरी है ॥। २५१ ॥
विप्र हू न छूए जाको रंगनाथ कैसे लेत ? देत हम हाथ तो कौ रहें इह कीजियै ।


कियोई बनाय सब घर कौ लगाय धन बनि ठनि चली थार मधि धरि लीजिये ॥
सन्त आज्ञा पाइकै निसंक गई मन्दिरमें फिरी यौं ससंक धिक् तिया धर्म भीजियै । बोले आप याकों ल्याय आप पहिराय जाय, दियौ पहिराय नयौ सीस मति रीझियै ॥ २५२ ॥

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