“शर्तों से परे होता है प्रेम”

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राधे राधे राधे राधे राधे राधे जय श्री कृष्णा एक दिन एक सन्त के घर रात चोर घुसे। घर में कुछ भी न था। सिर्फ एक कंबल था, जो सन्त ओढ़े लेटा हुआ था। सर्द रात, सन्त रोने लगा, क्योंकि घर में चोर आएं और चुराने को कुछ नहीं है, इस पीड़ा से रोने लगा। उसकी सिसकियां सुन कर चोरों ने पूछा कि भई क्यों रोते हो? सन्त बोला कि आप आए थे - जीवन में पहली दफा,

यह सौभाग्य तुमने दिया! मुझ साधु को भी यह मौका दिया! लोग साधु सन्त के यहां चोरी करने नहीं जाते, राजाओं के यहां जाते हैं। तुम चोरी करने क्या आए, तुमने मुझे राजा बना दिया। ऐसा सौभाग्य! लेकिन फिर मेरी आंखें आंसुओ से भर गई हैं, सिसकियां निकल गईं, क्योंकि घर में कुछ है नहीं। तुम अगर जरा दो दिन पहले खबर कर देते तो मैं इंतजाम करके रखता | दो—चार दिन का समय होता तो कुछ न कुछ मांग—तूंग कर इकट्ठा कर लेता। अभी तो यह कंबल भर है मेरे पास, यह तुम ले जाओ। और देखो इनकार मत करना। इनकार करोगे तो मेरे हृदय को बड़ी चोट पहुंचेगी। चोर घबरा गए, उनकी कुछ समझ में नहीं आया। ऐसा आदमी उन्हें कभी मिला नहीं था। चोरी तो जिंदगी भर की थी, मगर ऐसे आदमी से पहली बार मिलना हुआ था।

भीड़-भाड़ बहुत है, आदमी कहांँ ?
शक्लें हैं आदमी की, आदमी कहांँ ? पहली बार उनकी आंखों में शर्म आई, और पहली बार किसी के सामने नतमस्तक हुए। मना करके इसे क्या दुख देना, कंबल तो ले लिया। लेना भी मुश्किल! क्योंकि इस के पास कुछ और है भी नहीं, कंबल लिया तो पता चला कि संत तो नंगा है। कंबल ही ओढ़े हुए था, वही एकमात्र वस्त्र था— वही ओढ़नी, वही बिछौना। लेकिन सन्त ने कहा | तुम मेरी फिकर मत करो, मुझे नंगे रहने की आदत है। फिर तुम आए, सर्द रात, कौन घर से निकलता है। कुत्ते भी दुबके पड़े हैं। तुम चुपचाप ले जाओ और दुबारा जब आओ मुझे खबर कर देना। चोर तो ऐसे घबरा गए और एकदम निकल कर झोपड़ी से बाहर हो गए।

जब बाहर हो रहे थे तब वह सन्त चिल्लाया कि सुनो, कम से कम दरवाजा बंद करो और मुझे धन्यवाद दो। आदमी अजीब है, चोरों ने सोचा। कुछ ऐसी कड़कदार उसकी आवाज थी कि उन्होंने उसे धन्यवाद दिया, दरवाजा बंद किया और भागे।

सन्त खिड़की पर खड़े होकर दूर जाते उन चोरों को देखता रहा।
कोई व्यक्ति नहीं है ईश्वर जैसा, लेकिन सभी व्यक्तियों के भीतर जो धड़क रहा है, जो प्राणों का मंदिर बनाए हुए विराजमान है, जो श्वासें ले रहा है, वही तो ईश्वर है।

कुछ समय बाद वो चोर पकड़े गए। अदालत में मुकदमा चला, वह कंबल भी पकड़ा गया। और वह कंबल तो जाना—माना कंबल था। वह उस प्रसिद्ध संत का कंबल जो था। जज तत्‍क्षण पहचान गया कि यह तो उस सन्त का कंबल है। तो तुमने उस सन्त के यहां से भी चोरी की है ?

सन्त को बुलाया गया। और जज ने कहा कि अगर सन्त जी ने कह दिया कि यह कंबल मेरा है और तुमने चुराया है,
तो फिर हमें और किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। उस आदमी का एक वक्तव्य, हजार आदमियों के वक्तव्यों से बड़ा है। फिर जितनी सख्त सजा मैं तुम्हें दे सकता हूं दूंगा।

चोर तो घबरा रहे थे, काँप रहे थे
जब सन्त अदालत में आया।
और सन्त ने आकर जज से कहा कि नहीं, ये लोग चोर नहीं हैं, ये बड़े भले लोग हैं। मैंने कंबल भेंट किया था और इन्होंने मुझे धन्यवाद दिया था। और जब धन्यवाद दे दिया, बात खत्म हो गई। मैंने कंबल दिया, इन्होंने धन्यवाद दिया। इतना ही नहीं,

ये इतने भले लोग हैं कि जब बाहर निकले तो दरवाजा भी बंद कर गए थे।
जज ने तो चोरों को छोड़ दिया, क्योंकि सन्त ने कहा. इन्हें मत सताओ, ये प्यारे लोग हैं, अच्छे लोग हैं, भले लोग हैं। चोर सन्त के पैरों पर गिर पड़े और उन्होंने कहा हमें दीक्षित करो।

वे संन्यस्त हुए। और सन्त बाद में खूब हंसा। और उसने कहा कि तुम संन्यास में प्रवेश कर सको इसलिए तो कंबल भेंट दिया था। इसे तुम पचा थोड़े ही सकते थे। इस कंबल में मेरी सारी प्रार्थनाएं बुनी थी।

झीनी—झीनी बीनी रे चदरिया
उस सन्त ने कहा प्रार्थनाओं से बुना था इसे। इसी को ओढ़ कर ध्यान किया था। इसमें मेरी समाधि का रंग था, गंध थी। तुम इससे बच नहीं सकते थे। यह मुझे पक्का भरोसा था, कंबल ले ही आएगा, तुमको उस दिन चोर की तरह आए थे आज शिष्य की तरह आए।
मुझे भरोसा था। क्योंकि बुरा कोई आदमी है ही नहीं ।

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