क्षणभरका सत्सङ्ग कलुषित जीवनको भी परमोज्वल कर देता

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उलटा नाम जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना ॥

बहुत प्राचीन बात है, सङ्गदोषसे एक ब्राह्मण क्रूर डाकू बन गया था। जन्मसे ही वह अशिक्षित था। अपने परिवारके पालन-पोषणके लिये उसने बड़ा घोर मार्ग अपनाया। घोर वनसे जानेवाले एक मार्गके समीप उसका अड्डा था। जो भी यात्री उधरसे निकलता, उसे वह मार डालता बिना यह सोचे कि इस हत्यासे उसे लाभ कितना होगा। मृत व्यक्तिके पास जो कुछ मिलता, उसे लेकर वह शवको कहीं ठिकाने लगा देता । उसने इतने व्यक्ति मारे कि उनमें जो द्विजाति थे, उनके यज्ञोपवीत ही साढ़े सात बैल गाड़ी एकत्र हो गये।

वह मार्ग यात्रियोंके लिये मृत्यु-द्वार बन गया था। पथिकोंकी यह विपत्ति देवर्षि नारदसे देखी नहीं गयी। वे स्वयं उसी मार्गसे चल पड़े। सदाकी भाँति शस्त्र उठाये डाकू उनपर भी झपटा। देवर्षिको भला, भय क्या। उन्होंने कहा- ‘भाई! तुम व्यर्थ क्यों क्रोध करते हो ? शस्त्र उठानेसे क्या लाभ? मैंने तो तुम्हारा कुछ बिगाड़ा नहीं है। तुम चाहते क्या हो ?’

‘मैं चाहता हूँ तेरे प्राण, तेरी यह तुमड़ी और वस्त्र तथा तेरे पास कुछ और निकले तो वह भी।’ डाकू गरज उठा। ‘निरन्तर जीव-हत्याका यह पाप किये बिना भी तो तुम वनके फल-कन्दसे पेट भर सकते हो!’ देवर्षिका तेज और उनके स्वरमें भरी दया डाकूको स्तम्भित किये दे रहे थे।

‘किंतु मेरे माता-पिता, स्त्री-पुत्रका पेट कौन भरेगा। तू ?” डाकू अभी क्रूर व्यंग ही कर रहा था।

‘भाई! तुम जिनके लिये नित्य यह पाप करते हो, उनमेंसे कोई तुम्हारे पापका फल भोगनेमें भाग नहीं लेगा! अपने पापका फल तुम्हें अकेले ही भोगना । होगा।’ नारदजीने बड़ी मृदुतासे कहा ।

‘यह कैसे हो सकता है?’ डाकू विचलित हो उठा। था। ‘जो मेरे पापसे कमाये धनका सुख भोगते हैं, वे । मेरे पापके फलमें भी भाग तो लेंगे ही।’ बहुत भोले हो, भाई! पापके फलमें कोई भाग नहीं लेगा। तुम्हें मेरी बातका विश्वास न हो तो घरजाकर उन लोगोंसे पूछ लो।’ देवर्षिने बात पूरी कर दी। ‘बाबाजी! तू मुझे मूर्ख बनाना चाहता है। मैं घर पूछने जाऊँ और तू यहाँसे खिसकता बने।’ डाकूने फिर शस्त्र सम्हाला।

‘तुम मुझे इस पेड़के साथ भलीभाँति बाँध दो।’ चुपचाप नारदजी स्वयं एक पेड़से लगकर खड़े हो गये।

अब डाकूको उनकी बात सच्ची लगी। उसने उन्हें | पेड़के साथ वनकी लताओंसे भलीभाँति बाँध दिया और स्वयं शीघ्रतापूर्वक घर पहुँचा। घर जाकर उसने पितासे पूछा- ‘पिताजी! आप तो जानते ही हैं कि मैं यात्रियोंकी हत्या करके उनके साथकी सामग्री लाता हूँ और उसीसे परिवारका भरण-पोषण करता हूँ। मैं जो नित्य यह पाप करता हूँ, उसके फलमें आपका भी तो भाग है न ?’

तनिक खाँसकर पिताने उसकी ओर देखा और कहा- ‘बेटा! हमने तुम्हारा पालन-पोषण किया, तुम्हें छोटेसे बड़ा किया और अब तुम समर्थ हो गये। हमारी वृद्धावस्था आ गयी। तुम्हारा कर्तव्य है हमारा भरण पोषण करना। तुम कैसे धन लाते हो, इससे हमें क्या तुम्हारे पाप-पुण्यमें भला हमारा भाग क्यों होने लगा।

पहली बार डाकू चौंका। वह माताके पास गया; किंतु माताने भी उसे वही उत्तर दिया जो पिताने दिया था। उसने पत्नीसे पूछा- तो पत्नीने कहा- ‘स्वामी! मेरा कर्तव्य है आपकी सेवा करना, आपके गुरुजनों तथा परिवारकी सेवा करना। वह अपना कर्तव्य में पालन करती हूँ। आपका कर्तव्य है मेरी रक्षा करना और मेरा पोषण करना, वह आप करते हैं। इसके लिये आप कैसे धन लाते हैं सो आप जानें। आपके उस पापसे मेरा क्या सम्बन्ध मैं उसमें क्यों भाग लूँगी।’

डाकू निराश हो गया, फिर भी उसने अपने बालक पुत्रसे अन्तमें पूछा। बालकने और स्पष्ट उत्तर दिया ‘मैं छोटा हूँ, असमर्थ हूँ; अतः आप मेरा भरण-पोषण करते हैं। मैं समर्थ हो जाऊँगा, तब आप वृद्ध और असमर्थ हो जायेंगे। उस समय मैं आपका भरण-पोषण करूँगा और अवश्य करूँगा। यह तो परस्पर सहायताकी बात है। आपके पापको आप जानें मैं उसमें कोईभाग लेना नहीं चाहता, न लूँगा।’ डाकूके नेत्रोंके आगे अन्धकार छा गया। जिनके लिये वह इतने पाप कर चुका, वे कोई उस पापका दारुण फल भोगने में उसके साथ नहीं रहना चाहते! पश्चात्तापसे जलने लगा उसका हृदय दौड़ा वह वनकी और वहाँ पहुँचकर देवर्षिके बन्धनको लताएँ उसने तोड़ फेंक और क्रन्दन करता उनके चरणोंपर गिर पड़ा।

“तुम राम नामका जप करो।’ देवर्षिने प्रायश्चित्त बतलाया। किंतु हत्या निष्ठुर हृदय, पाप-कलुषित वाणी यह दिव्य नाम सीधा होनेपर भी उच्चारण करनेमें समर्थ नहीं हुई। देवर्षि हारना नहीं जानते; वे जिसे मिल जायें वह भगवान्‌के चरणोंसे दूर बना रहे, यह शक्य नहीं। उन्होंने कहा- ‘चिन्ता नहीं, तुम ‘मरा मरा ही जपो ।’

डाकू वहीं बैठ गया। उसे पता नहीं कि उसके उपदेष्टा कब चले गये। उसकी वाणी लग गयी जपमें “मरा मरा मरा मरा मरा दिन, सप्ताह, महीने औरवर्ष बीतते चले गये; किंतु डाकूको कुछ पता नहीं था। उसके शरीरमें दीमक लग गये, दीमकोंकी पूरी बाँबी – वल्मीक बन गयी उसके ऊपर।’

डाकूके तपने सृष्टिकर्ताको आश्चर्यमें डाल दिया। वे हंसवाहन स्वयं पधारे वहाँ और अपने कमण्डलुके अमृत- जलसे उन्होंने उस तपस्वीपर छींटे दिये। उन जल-सीकरोंके प्रभावसे उस दीमकोंके वल्मीकसे जो पुरुष निकल खड़ा हुआ, वह अब पूरा बदल चुका था। उसका रूप, रंग, शरीर और हृदय सब दिव्य हो चुका था।

संसार ठीक नहीं जानता कि डाकूका नाम क्या था; कोई-कोई उसे रत्नाकर कहते हैं। किंतु वह जो तपस्वी उठा, वल्मीकसे निकलनेके कारण उसे वाल्मीकि कहा गया। वह आदिकवि, भगवान् श्रीरामके निर्मल यशका प्रथम गायक- विश्व उसकी वन्दना करके आज भी कृतार्थ होता है। रहा होगा वह कभी अज्ञातनामा क्रूर डाकू; किंतु एक क्षणके सत्सङ्गने उसे महत्तम | जो बना दिया।

सु0 सिं0

उलटा नाम जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना ॥
बहुत प्राचीन बात है, सङ्गदोषसे एक ब्राह्मण क्रूर डाकू बन गया था। जन्मसे ही वह अशिक्षित था। अपने परिवारके पालन-पोषणके लिये उसने बड़ा घोर मार्ग अपनाया। घोर वनसे जानेवाले एक मार्गके समीप उसका अड्डा था। जो भी यात्री उधरसे निकलता, उसे वह मार डालता बिना यह सोचे कि इस हत्यासे उसे लाभ कितना होगा। मृत व्यक्तिके पास जो कुछ मिलता, उसे लेकर वह शवको कहीं ठिकाने लगा देता । उसने इतने व्यक्ति मारे कि उनमें जो द्विजाति थे, उनके यज्ञोपवीत ही साढ़े सात बैल गाड़ी एकत्र हो गये।
वह मार्ग यात्रियोंके लिये मृत्यु-द्वार बन गया था। पथिकोंकी यह विपत्ति देवर्षि नारदसे देखी नहीं गयी। वे स्वयं उसी मार्गसे चल पड़े। सदाकी भाँति शस्त्र उठाये डाकू उनपर भी झपटा। देवर्षिको भला, भय क्या। उन्होंने कहा- ‘भाई! तुम व्यर्थ क्यों क्रोध करते हो ? शस्त्र उठानेसे क्या लाभ? मैंने तो तुम्हारा कुछ बिगाड़ा नहीं है। तुम चाहते क्या हो ?’
‘मैं चाहता हूँ तेरे प्राण, तेरी यह तुमड़ी और वस्त्र तथा तेरे पास कुछ और निकले तो वह भी।’ डाकू गरज उठा। ‘निरन्तर जीव-हत्याका यह पाप किये बिना भी तो तुम वनके फल-कन्दसे पेट भर सकते हो!’ देवर्षिका तेज और उनके स्वरमें भरी दया डाकूको स्तम्भित किये दे रहे थे।
‘किंतु मेरे माता-पिता, स्त्री-पुत्रका पेट कौन भरेगा। तू ?” डाकू अभी क्रूर व्यंग ही कर रहा था।
‘भाई! तुम जिनके लिये नित्य यह पाप करते हो, उनमेंसे कोई तुम्हारे पापका फल भोगनेमें भाग नहीं लेगा! अपने पापका फल तुम्हें अकेले ही भोगना । होगा।’ नारदजीने बड़ी मृदुतासे कहा ।
‘यह कैसे हो सकता है?’ डाकू विचलित हो उठा। था। ‘जो मेरे पापसे कमाये धनका सुख भोगते हैं, वे । मेरे पापके फलमें भी भाग तो लेंगे ही।’ बहुत भोले हो, भाई! पापके फलमें कोई भाग नहीं लेगा। तुम्हें मेरी बातका विश्वास न हो तो घरजाकर उन लोगोंसे पूछ लो।’ देवर्षिने बात पूरी कर दी। ‘बाबाजी! तू मुझे मूर्ख बनाना चाहता है। मैं घर पूछने जाऊँ और तू यहाँसे खिसकता बने।’ डाकूने फिर शस्त्र सम्हाला।
‘तुम मुझे इस पेड़के साथ भलीभाँति बाँध दो।’ चुपचाप नारदजी स्वयं एक पेड़से लगकर खड़े हो गये।
अब डाकूको उनकी बात सच्ची लगी। उसने उन्हें | पेड़के साथ वनकी लताओंसे भलीभाँति बाँध दिया और स्वयं शीघ्रतापूर्वक घर पहुँचा। घर जाकर उसने पितासे पूछा- ‘पिताजी! आप तो जानते ही हैं कि मैं यात्रियोंकी हत्या करके उनके साथकी सामग्री लाता हूँ और उसीसे परिवारका भरण-पोषण करता हूँ। मैं जो नित्य यह पाप करता हूँ, उसके फलमें आपका भी तो भाग है न ?’
तनिक खाँसकर पिताने उसकी ओर देखा और कहा- ‘बेटा! हमने तुम्हारा पालन-पोषण किया, तुम्हें छोटेसे बड़ा किया और अब तुम समर्थ हो गये। हमारी वृद्धावस्था आ गयी। तुम्हारा कर्तव्य है हमारा भरण पोषण करना। तुम कैसे धन लाते हो, इससे हमें क्या तुम्हारे पाप-पुण्यमें भला हमारा भाग क्यों होने लगा।
पहली बार डाकू चौंका। वह माताके पास गया; किंतु माताने भी उसे वही उत्तर दिया जो पिताने दिया था। उसने पत्नीसे पूछा- तो पत्नीने कहा- ‘स्वामी! मेरा कर्तव्य है आपकी सेवा करना, आपके गुरुजनों तथा परिवारकी सेवा करना। वह अपना कर्तव्य में पालन करती हूँ। आपका कर्तव्य है मेरी रक्षा करना और मेरा पोषण करना, वह आप करते हैं। इसके लिये आप कैसे धन लाते हैं सो आप जानें। आपके उस पापसे मेरा क्या सम्बन्ध मैं उसमें क्यों भाग लूँगी।’
डाकू निराश हो गया, फिर भी उसने अपने बालक पुत्रसे अन्तमें पूछा। बालकने और स्पष्ट उत्तर दिया ‘मैं छोटा हूँ, असमर्थ हूँ; अतः आप मेरा भरण-पोषण करते हैं। मैं समर्थ हो जाऊँगा, तब आप वृद्ध और असमर्थ हो जायेंगे। उस समय मैं आपका भरण-पोषण करूँगा और अवश्य करूँगा। यह तो परस्पर सहायताकी बात है। आपके पापको आप जानें मैं उसमें कोईभाग लेना नहीं चाहता, न लूँगा।’ डाकूके नेत्रोंके आगे अन्धकार छा गया। जिनके लिये वह इतने पाप कर चुका, वे कोई उस पापका दारुण फल भोगने में उसके साथ नहीं रहना चाहते! पश्चात्तापसे जलने लगा उसका हृदय दौड़ा वह वनकी और वहाँ पहुँचकर देवर्षिके बन्धनको लताएँ उसने तोड़ फेंक और क्रन्दन करता उनके चरणोंपर गिर पड़ा।
“तुम राम नामका जप करो।’ देवर्षिने प्रायश्चित्त बतलाया। किंतु हत्या निष्ठुर हृदय, पाप-कलुषित वाणी यह दिव्य नाम सीधा होनेपर भी उच्चारण करनेमें समर्थ नहीं हुई। देवर्षि हारना नहीं जानते; वे जिसे मिल जायें वह भगवान्‌के चरणोंसे दूर बना रहे, यह शक्य नहीं। उन्होंने कहा- ‘चिन्ता नहीं, तुम ‘मरा मरा ही जपो ।’
डाकू वहीं बैठ गया। उसे पता नहीं कि उसके उपदेष्टा कब चले गये। उसकी वाणी लग गयी जपमें “मरा मरा मरा मरा मरा दिन, सप्ताह, महीने औरवर्ष बीतते चले गये; किंतु डाकूको कुछ पता नहीं था। उसके शरीरमें दीमक लग गये, दीमकोंकी पूरी बाँबी – वल्मीक बन गयी उसके ऊपर।’
डाकूके तपने सृष्टिकर्ताको आश्चर्यमें डाल दिया। वे हंसवाहन स्वयं पधारे वहाँ और अपने कमण्डलुके अमृत- जलसे उन्होंने उस तपस्वीपर छींटे दिये। उन जल-सीकरोंके प्रभावसे उस दीमकोंके वल्मीकसे जो पुरुष निकल खड़ा हुआ, वह अब पूरा बदल चुका था। उसका रूप, रंग, शरीर और हृदय सब दिव्य हो चुका था।
संसार ठीक नहीं जानता कि डाकूका नाम क्या था; कोई-कोई उसे रत्नाकर कहते हैं। किंतु वह जो तपस्वी उठा, वल्मीकसे निकलनेके कारण उसे वाल्मीकि कहा गया। वह आदिकवि, भगवान् श्रीरामके निर्मल यशका प्रथम गायक- विश्व उसकी वन्दना करके आज भी कृतार्थ होता है। रहा होगा वह कभी अज्ञातनामा क्रूर डाकू; किंतु एक क्षणके सत्सङ्गने उसे महत्तम | जो बना दिया।
सु0 सिं0

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