श्रीराधा-माधव’ निकुंज लीला कथा…

श्रीराधा-माधव’ जी के साथ…!

प्रेमवैचित्य का बड़ा सुदंर और प्रत्यक्ष द्रश्य इस लीला में है, प्रेमवैचित्य अर्थात “मिलन और “विरह” एक साथ बड़ी अटपटी बात लगती है.
निकुंज की इस लीला से इसे हम समझ सकते है.
एक समय श्री यमुनाजी के तट पर श्रीराधा-माधव विहार कर रहे है.
वृंदा देवी कर्ण-भूषण के योग्य (कान में पहनने योग्य) दो कमल श्रीमाधव को लाकर देती है.
श्रीकृष्ण सहर्ष उनको लेकर श्रीराधा के कानो में पहनाने लगते है, इतने में ही देखते है कि कमल में एक भ्रमर (भौरा)बैठा है.
भ्रमर उड़ा, उसने कमल को तो छोड़ दिया और श्रीराधा के मुख को कमल समझकर उसकी ओर चला, श्री राधा ने श्री हस्त के द्वारा उसको हटाना चाहा, भ्रमर राधारानी जी के श्री करतल को एक कमल समझकर उसकी ओर उड़ा।
भ्रमर बड़ा ही ढीठ था जा नहीं रहा है था इससे डरकर श्री राधा अपनी ओढनी का आँचल फटकारने लगी.
मधुमंगल ने जब ये देखा तो तुरंत छड़ी मारकर भ्रमर को बहुत दूर हटा दिया और लौटकर कहा-“मधुसूदन (भ्रमर) चला गया”.
इतना सुनते ही ‘मधुसूदन’ शब्द से भगवान श्री कृष्ण समझकर श्रीराधा जी हाय! हाय! मधुसूदन कहाँ चले गए’ पुकारकर रोने लगी.
“यदिह सहसा ममत्या क्षीद्वने वनजेक्षण:”
“अकस्मात कमलनयन श्रीकृष्ण इस वन में मुझको त्यागकर क्यों चले गए?”
यो कहकर वे आर्तनाद करने लगी.
कृष्ण पास ही बैठे थे क्योकि वे ही तो फूल लाकर पहना रहे थे.
जब कृष्ण ने अपनी प्रियतमा के इस मधुरतम प्रेम वैचित्तय जनित विरह को देखा तो सब को चुप हो जाने के लिए कहा और स्वयं मधुर हास्य करने लगे.
ये प्रेम वैचित्तय है जहाँ श्याम सुदंर पास में ही है फिर भी श्यामा जू विरह में डूबी हुई है।
मिलन और विरह का अद्भुत और विलक्षण द्रश्य है, इसी तरह का एक उदाहरण और भी है.
कृष्ण विरह की असीम वेदना से पीड़ित श्रीराधा भयानक सर्पविष से विषमय हुए एक सरोवर में प्राण त्याग के लिए कूद पड़ती है, इतने मे ही श्री कृष्ण दौड़ आते है और पीछे से दोनों भुजाओ के द्वारा श्रीराधा का कंठ धारण कर लेते है.
श्रीराधा, कृष्ण की दोनों भुजाओ को कालसर्प समझती है और मन ही मन कहती है – कि कैसा सौभाग्य है कि में दो सर्पो के द्वारा पकड़ ली गई हूँ, ये अभी मुझे डस लेगे और डसते ही इस विरह दग्ध जीवन का अंत हो जायेगा.
‘विधाता बड़ा ही अनुकूल है’ जो मेरी मन चाही मृत्यु को अभी तुरंत ही बुला देगा’.
सर्प डस नहीं रहे ये देखकर और स्पर्श सुख का अनुभव करके श्रीराधा मन ही मन कहती है ‘उपयुक्त समय पर अपकार करने वाली वस्तुये भी प्रिय हो जाती है’ सर्प डस तो नहीं रहे है, उल्टा स्पर्श सुख दे रहे है’.
श्रीकृष्ण राधा के मणिबंधन में स्मन्तकमणि बाँध देते है, मणि की ज्योति को देखकर राधा कहती है बड़ा ही आश्चर्य है कि मणि विभूषित मस्तक काल सर्प भी मुझे डसने में देर कर रहा है.
हाय ! कृष्ण रहित इस जीवन का कब सदा के लिए अंत होगा.?
श्रीकृष्ण के ह्रदय से चिपटी हुई राधा इस प्रकार विरह-वेदना से छटपटाती हुई, मृत्यु की बाट देख रही है.
“मिलन और विरह” का बड़ा मनोरम द्रश्य है.



श्रीराधा-माधव’ जी के साथ…! ‘ प्रेमवैचित्य का बड़ा सुदंर और प्रत्यक्ष द्रश्य इस लीला में है, प्रेमवैचित्य अर्थात “मिलन और “विरह” एक साथ बड़ी अटपटी बात लगती है. निकुंज की इस लीला से इसे हम समझ सकते है. एक समय श्री यमुनाजी के तट पर श्रीराधा-माधव विहार कर रहे है. वृंदा देवी कर्ण-भूषण के योग्य (कान में पहनने योग्य) दो कमल श्रीमाधव को लाकर देती है. श्रीकृष्ण सहर्ष उनको लेकर श्रीराधा के कानो में पहनाने लगते है, इतने में ही देखते है कि कमल में एक भ्रमर (भौरा)बैठा है. भ्रमर उड़ा, उसने कमल को तो छोड़ दिया और श्रीराधा के मुख को कमल समझकर उसकी ओर चला, श्री राधा ने श्री हस्त के द्वारा उसको हटाना चाहा, भ्रमर राधारानी जी के श्री करतल को एक कमल समझकर उसकी ओर उड़ा। भ्रमर बड़ा ही ढीठ था जा नहीं रहा है था इससे डरकर श्री राधा अपनी ओढनी का आँचल फटकारने लगी. मधुमंगल ने जब ये देखा तो तुरंत छड़ी मारकर भ्रमर को बहुत दूर हटा दिया और लौटकर कहा-“मधुसूदन (भ्रमर) चला गया”. इतना सुनते ही ‘मधुसूदन’ शब्द से भगवान श्री कृष्ण समझकर श्रीराधा जी हाय! हाय! मधुसूदन कहाँ चले गए’ पुकारकर रोने लगी. “यदिह सहसा ममत्या क्षीद्वने वनजेक्षण:” “अकस्मात कमलनयन श्रीकृष्ण इस वन में मुझको त्यागकर क्यों चले गए?” यो कहकर वे आर्तनाद करने लगी. कृष्ण पास ही बैठे थे क्योकि वे ही तो फूल लाकर पहना रहे थे. जब कृष्ण ने अपनी प्रियतमा के इस मधुरतम प्रेम वैचित्तय जनित विरह को देखा तो सब को चुप हो जाने के लिए कहा और स्वयं मधुर हास्य करने लगे. ये प्रेम वैचित्तय है जहाँ श्याम सुदंर पास में ही है फिर भी श्यामा जू विरह में डूबी हुई है। मिलन और विरह का अद्भुत और विलक्षण द्रश्य है, इसी तरह का एक उदाहरण और भी है. कृष्ण विरह की असीम वेदना से पीड़ित श्रीराधा भयानक सर्पविष से विषमय हुए एक सरोवर में प्राण त्याग के लिए कूद पड़ती है, इतने मे ही श्री कृष्ण दौड़ आते है और पीछे से दोनों भुजाओ के द्वारा श्रीराधा का कंठ धारण कर लेते है. श्रीराधा, कृष्ण की दोनों भुजाओ को कालसर्प समझती है और मन ही मन कहती है – कि कैसा सौभाग्य है कि में दो सर्पो के द्वारा पकड़ ली गई हूँ, ये अभी मुझे डस लेगे और डसते ही इस विरह दग्ध जीवन का अंत हो जायेगा. ‘विधाता बड़ा ही अनुकूल है’ जो मेरी मन चाही मृत्यु को अभी तुरंत ही बुला देगा’. सर्प डस नहीं रहे ये देखकर और स्पर्श सुख का अनुभव करके श्रीराधा मन ही मन कहती है ‘उपयुक्त समय पर अपकार करने वाली वस्तुये भी प्रिय हो जाती है’ सर्प डस तो नहीं रहे है, उल्टा स्पर्श सुख दे रहे है’. श्रीकृष्ण राधा के मणिबंधन में स्मन्तकमणि बाँध देते है, मणि की ज्योति को देखकर राधा कहती है बड़ा ही आश्चर्य है कि मणि विभूषित मस्तक काल सर्प भी मुझे डसने में देर कर रहा है. हाय ! कृष्ण रहित इस जीवन का कब सदा के लिए अंत होगा.? श्रीकृष्ण के ह्रदय से चिपटी हुई राधा इस प्रकार विरह-वेदना से छटपटाती हुई, मृत्यु की बाट देख रही है. “मिलन और विरह” का बड़ा मनोरम द्रश्य है.

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *