विद्वता अथवा मानवता

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एक बहुत बड़ा मंदिर था। उसमें हजारों यात्री दर्शन करने आते थे। सहसा मंदिर का प्रबंधक प्रधान पुजारी मर गया। मंदिर के महंत को दूसरे पुजारी की आवश्यकता हुई और उन्होंने घोषणा करा दी कि जो कल सवेरे पहले पहर आकर यहां पूजा संबंधी जांच में ठीक सिद्ध होगा, उसे पुजारी रखा जाएगा।

बहुत से विद्वान सवेरे पहुंचने के लिए चल पड़े। मंदिर पहाड़ी पर था। एक ही रास्ता था। उस पर भी कांटे और कंकड़-पत्थर थे। विद्वानों की भीड़ चली जा रही थी मंदिर की ओर। किसी प्रकार कांटे और कंकड़ों से बचते हुए लोग जा रहे थे।

सब विद्वान पहुंच गए। महंत ने सबको आदरपूर्वक बैठाया। सबको भगवान का प्रसाद मिला। सबसे अलग-अलग कुछ प्रश्र और मंत्र पूछे गए। अंत में परीक्षा पूरी हो गई। जब दोपहर हो गई और सब लोग उठने लगे तो एक नौजवान वहां आया। उसके कपड़े फटे थे। वह पसीने से भीग गया था और बहुत गरीब जान पड़ता था।

महंत ने कहा- ‘‘तुम बहुत देर से आए।’’

वह बोला- ‘‘मैं जानता हूं। मैं केवल भगवान का दर्शन करके लौट जाऊंगा।’’

महंत उसकी दशा देखकर दयालु हो रहे थे। बोले- ‘‘तुम जल्दी क्यों नहीं आए?’’

उसने उत्तर दिया- ‘‘घर से बहुत जल्दी चला था। मंदिर के मार्ग में बहुत कांटे थे और पत्थर भी थे। बेचारे यात्रियों को उनसे कष्ट होता। उन्हें हटाने में देर हो गई।’’

महंत ने पूछा- ‘‘अच्छा, तुम्हें पूजा करना आता है?’’

उसने कहा- ‘‘भगवान को स्नान कराके चंदन-फूल चढ़ा देना, धूप-दीप जला देना तथा भोग सामने रखकर पर्दा गिरा देना और शंख बजाना तो जानता हूं।’’

महंत ने पूछा- ‘‘और मंत्र?’’

वह उदास होकर बोला- ‘‘भगवान से नहाने-खाने को कहने के लिए मंत्र भी होते हैं, यह मैं नहीं जानता।’’

अन्य सब विद्वान हंसने लगे कि यह मूर्ख भी पुजारी बनने आया है। महंत ने एक क्षण सोचा और कहा- ‘‘पुजारी तो तुम बन गए। अब मंत्र सीख लेना, मैं सिखा दूंगा। मुझसे भगवान ने स्वप्न में कहा है कि मुझे मनुष्य चाहिए।’’

‘‘हम लोग मनुष्य नहीं हैं?’’ दूसरे आमंत्रितों ने पूछा।

वे लोग महंत पर नाराज हो रहे थे। इतने पढ़े-लिखे विद्वानों के रहते महंत एक ऐसे आदमी को पुजारी बना दे जो मंत्र भी न जानता हो, यह विद्वानों को अपमान की बात जान पड़ती थी।

सोचने की बात है कि हम में से कौन मनुष्य है?

महंत ने विद्वानों की ओर देखा और कहा- ‘‘अपने स्वार्थ की बात तो पशु भी जानते हैं। बहुत से पशु बहुत चतुर भी होते हैं लेकिन सचमुच मनुष्य तो वही है जो दूसरों को सुख पहुंचाने का ध्यान रखता है, जो दूसरों को सुख पहुंचाने के लिए अपने स्वार्थ और सुख को छोड़ सकता है।’’

विद्वानों के सिर नीचे झुक गए। उन लोगों को बड़ी लज्जा आई। वे धीरे-धीरे उठे और मंदिर में भगवान को और महंत जी को नमस्कार करके उस पर्वत से नीचे उतरने लगे।

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव

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