माँ क्या चाहती है!

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माँ क्या चाहती है!

एक दम्पती दीवालीकी खरीदारी करनेको हड़बड़ी में थे। पतिने पत्नीसे जल्दी करनेको कहा और कमरेसे बाहर निकल गया, तभी बाहर लॉनमें बैठी ‘माँ’ पर उसकी नजर पड़ी।
कुछ सोचते हुए पति वापस कमरेमें आया।”
‘शालू। तुमने माँसे भी पूछा कि उनको दीवालीपर क्या चाहिये ?’
शालिनी बोली, ‘नहीं पूछा। अब उनको इस
उम्रमेंक्या चाहिये होगा, दो वक्तकी रोटी और दो जोड़ीकपड़े, इसमें पूछनेवाली क्या बात है ?’
‘यह बात नहीं है शालू” माँ पहली बार दीवालीपर हमारे घरमें रुकी हुई हैं, वरना तो हर बार गाँवमें ही रहती हैं तो औपचारिकताके लिये ही पूछ लेती।’
‘अरे, इतना ही माँपर प्यार उमड़ रहा है तो खुद क्यों नहीं पूछ लेते’, झल्लाकर चीखी थी शालू और कन्धेपर हैंडबैग लटकाते हुए तेजीसे बाहर निकल गयो।
सूरज माँके पास जाकर बोला, ‘माँ! हम लोग दीवालीकी खरीदारीके लिये बाजार जा रहे हैं, आपको कुछ चाहिये तो..’
माँ बीचमें ही बोल पड़ी, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिये बेटा” ।’
‘सोच लो माँ! अगर कुछ चाहिये तो बता दीजिये”।’
सूरजके बहुत जोर देनेपर माँ बोली, ‘ठीक है, तुम रुको, मैं लिखकर देती हूँ, तुम्हें और बहूको बहुत खरीदारी है, कहीं भूल ना जाओ’ कहकर, सूरजकी माँ अपने कमरेमें चली गयी, कुछ देर बाद बाहर आयी और लिस्ट सूरजको थमा दी।
सूरज ड्राइविंग सीटपर बैठते हुए बोला, ‘देखा शालू, माँको भी कुछ चाहिये था, पर बोल नहीं रही थीं, मेरे जिद करनेपर लिस्ट बना कर दी है, इंसान जबतक जिन्दा रहता है, रोटी और कपड़ेके अलावा भी उसे बहुत कुछ चाहिये होता है।’
‘अच्छा बाबा ! ठीक है, पर पहले मैं अपनी जरूरतका सारा सामान लूँगी, बादमें आप अपनी माँकी लिस्ट देखते रहना।’
पूरी खरीदारी करनेके बाद शालिनी बोली, ‘अब मैं बहुत थक गयी हूँ, मैं कारमें ए0सी0 चालू करके बैठती हूँ, आप माँजीका सामान देख लो।’
‘अरे शालू, साथ चलते हैं अच्छा देखता हूँ माँने
इस दीवालीपर क्या मँगाया है’, कहकर माँकी लिखी पर्ची जेवसे निकालता है, बाप रे इतनी लम्बी लिस्ट, पता नहीं क्या-क्या मँगाया होगा, जरूर अपने गाँववाले छोटे बेटेके परिवार के लिये बहुत सारे सामान मँगाये होंगे।’
‘और बनो श्रवणकुमार’, कहते हुए शालिनी गुस्सेसे सूरजकी ओर देखने लगी, पर ये क्या सूरजकी आँखों में आँसू और लिस्ट पकड़े हुए हाथ सूखे पत्तेकी तरह हिल रहे थे पूरा शरीर काँप रहा था।
शालिनी बहुत घबरा गयी, ‘क्या हुआ, ऐसा क्या माँग लिया है तुम्हारी माँने ?’ कहकर सूरजके हाथसे पर्ची झपट ली।
हैरान थी शालिनी भी कि इतनी बड़ी पर्चीमें बसचन्द शब्द ही लिखे थे।
पर्ची में लिखा था।
‘बेटा सूरज! मुझे दीवालीपर तो क्या किसी भी अवसरपर कुछ नहीं चाहिये, फिर भी तुम जिद कर रहे हो तो, और तुम्हारे शहरकी किसी दुकानमें अगर मिल जाय तो फुर्सतके कुछ ‘पल’ मेरे लिये लेते आना” ढलती साँझ हुई अब मैं, सूरज ! मुझे गहराते अँधियारेसे डर लगने लगा है, बहुत डर लगता है पल-पल अपनी तरफ बढ़ रही मौतको देखकर। जानती हूँ कि टाला
नहीं जा सकता, शास्वत सत्य है, पर अकेलेपन से बहुत घबराहट होती है सूरज ! तो जबतक तुम्हारे घरपर हूँ, कुछ पल बैठकर मेरे पास कुछ देरके लिये ही सही, बाँट लिया कर मेरे बुढ़ापेका अकेलापन बिन दीप जलाये ही रौशन हो जायगी मेरे जीवनकी साँझ । कितने साल हो गये बेटा! तुझे स्पर्श नहीं किया, एक बार फिरसे आ मेरी गोदमें सर रख और मैं ममताभरी हथेली से सहलाऊँ तेरे सरको, एक बार फिरसे इतराये मेरा हृदय मेरे अपनोंको करीब, बहुत करीब पाकर और मुसकराकर मिलूँ मौतके गले, क्या पता अगली दीवालीतक रहूँ ना रहूँ।
पर्चीकी आखिरी लाइन पढ़ते-पढ़ते शालिनी फफक फफककर रो पड़ी।
ऐसी ही होती है माँ।
हम लोग अपने घरके उन विशाल हृदयवाले लोगों, जिनको हम बूढ़े और बुढ़ियाकी श्रेणीमें रखते हैं, वे हमारे जीवनके कल्पतरु हैं। उनका यथोचित सम्मान, आदर और देखभाल करें, यकीन मानिये, हमारे भी बूढ़े होनेके दिन नजदीक ही हैं उसकी तैयारी आजसे कर लें। इसमें कोई शक नहीं, हमारे अच्छे-बुरे कृत्य देर सबेर हमारे ही पास लौटकर आने हैं!!

माँ क्या चाहती है!
एक दम्पती दीवालीकी खरीदारी करनेको हड़बड़ी में थे। पतिने पत्नीसे जल्दी करनेको कहा और कमरेसे बाहर निकल गया, तभी बाहर लॉनमें बैठी ‘माँ’ पर उसकी नजर पड़ी।
कुछ सोचते हुए पति वापस कमरेमें आया।”
‘शालू। तुमने माँसे भी पूछा कि उनको दीवालीपर क्या चाहिये ?’
शालिनी बोली, ‘नहीं पूछा। अब उनको इस
उम्रमेंक्या चाहिये होगा, दो वक्तकी रोटी और दो जोड़ीकपड़े, इसमें पूछनेवाली क्या बात है ?’
‘यह बात नहीं है शालू” माँ पहली बार दीवालीपर हमारे घरमें रुकी हुई हैं, वरना तो हर बार गाँवमें ही रहती हैं तो औपचारिकताके लिये ही पूछ लेती।’
‘अरे, इतना ही माँपर प्यार उमड़ रहा है तो खुद क्यों नहीं पूछ लेते’, झल्लाकर चीखी थी शालू और कन्धेपर हैंडबैग लटकाते हुए तेजीसे बाहर निकल गयो।
सूरज माँके पास जाकर बोला, ‘माँ! हम लोग दीवालीकी खरीदारीके लिये बाजार जा रहे हैं, आपको कुछ चाहिये तो..’
माँ बीचमें ही बोल पड़ी, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिये बेटा” ।’
‘सोच लो माँ! अगर कुछ चाहिये तो बता दीजिये”।’
सूरजके बहुत जोर देनेपर माँ बोली, ‘ठीक है, तुम रुको, मैं लिखकर देती हूँ, तुम्हें और बहूको बहुत खरीदारी है, कहीं भूल ना जाओ’ कहकर, सूरजकी माँ अपने कमरेमें चली गयी, कुछ देर बाद बाहर आयी और लिस्ट सूरजको थमा दी।
सूरज ड्राइविंग सीटपर बैठते हुए बोला, ‘देखा शालू, माँको भी कुछ चाहिये था, पर बोल नहीं रही थीं, मेरे जिद करनेपर लिस्ट बना कर दी है, इंसान जबतक जिन्दा रहता है, रोटी और कपड़ेके अलावा भी उसे बहुत कुछ चाहिये होता है।’
‘अच्छा बाबा ! ठीक है, पर पहले मैं अपनी जरूरतका सारा सामान लूँगी, बादमें आप अपनी माँकी लिस्ट देखते रहना।’
पूरी खरीदारी करनेके बाद शालिनी बोली, ‘अब मैं बहुत थक गयी हूँ, मैं कारमें ए0सी0 चालू करके बैठती हूँ, आप माँजीका सामान देख लो।’
‘अरे शालू, साथ चलते हैं अच्छा देखता हूँ माँने
इस दीवालीपर क्या मँगाया है’, कहकर माँकी लिखी पर्ची जेवसे निकालता है, बाप रे इतनी लम्बी लिस्ट, पता नहीं क्या-क्या मँगाया होगा, जरूर अपने गाँववाले छोटे बेटेके परिवार के लिये बहुत सारे सामान मँगाये होंगे।’
‘और बनो श्रवणकुमार’, कहते हुए शालिनी गुस्सेसे सूरजकी ओर देखने लगी, पर ये क्या सूरजकी आँखों में आँसू और लिस्ट पकड़े हुए हाथ सूखे पत्तेकी तरह हिल रहे थे पूरा शरीर काँप रहा था।
शालिनी बहुत घबरा गयी, ‘क्या हुआ, ऐसा क्या माँग लिया है तुम्हारी माँने ?’ कहकर सूरजके हाथसे पर्ची झपट ली।
हैरान थी शालिनी भी कि इतनी बड़ी पर्चीमें बसचन्द शब्द ही लिखे थे।
पर्ची में लिखा था।
‘बेटा सूरज! मुझे दीवालीपर तो क्या किसी भी अवसरपर कुछ नहीं चाहिये, फिर भी तुम जिद कर रहे हो तो, और तुम्हारे शहरकी किसी दुकानमें अगर मिल जाय तो फुर्सतके कुछ ‘पल’ मेरे लिये लेते आना” ढलती साँझ हुई अब मैं, सूरज ! मुझे गहराते अँधियारेसे डर लगने लगा है, बहुत डर लगता है पल-पल अपनी तरफ बढ़ रही मौतको देखकर। जानती हूँ कि टाला
नहीं जा सकता, शास्वत सत्य है, पर अकेलेपन से बहुत घबराहट होती है सूरज ! तो जबतक तुम्हारे घरपर हूँ, कुछ पल बैठकर मेरे पास कुछ देरके लिये ही सही, बाँट लिया कर मेरे बुढ़ापेका अकेलापन बिन दीप जलाये ही रौशन हो जायगी मेरे जीवनकी साँझ । कितने साल हो गये बेटा! तुझे स्पर्श नहीं किया, एक बार फिरसे आ मेरी गोदमें सर रख और मैं ममताभरी हथेली से सहलाऊँ तेरे सरको, एक बार फिरसे इतराये मेरा हृदय मेरे अपनोंको करीब, बहुत करीब पाकर और मुसकराकर मिलूँ मौतके गले, क्या पता अगली दीवालीतक रहूँ ना रहूँ।
पर्चीकी आखिरी लाइन पढ़ते-पढ़ते शालिनी फफक फफककर रो पड़ी।
ऐसी ही होती है माँ।
हम लोग अपने घरके उन विशाल हृदयवाले लोगों, जिनको हम बूढ़े और बुढ़ियाकी श्रेणीमें रखते हैं, वे हमारे जीवनके कल्पतरु हैं। उनका यथोचित सम्मान, आदर और देखभाल करें, यकीन मानिये, हमारे भी बूढ़े होनेके दिन नजदीक ही हैं उसकी तैयारी आजसे कर लें। इसमें कोई शक नहीं, हमारे अच्छे-बुरे कृत्य देर सबेर हमारे ही पास लौटकर आने हैं!!

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