भारतीय धार्मिक साहित्य के अमर ग्रंथ (सूरसागर) के रचयिता श्री सूरदास जी का जन्म दिल्ली के सन्निकट सीही ग्राम में विक्रम सम्वत् 1535 की वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ था। आज 28 अप्रैल, मंगलवार का दिन सूरदास जयंती के रुप में मनाया जाएगा। इनकी प्रतिभा अत्यंत प्रखर थी। बचपन से ही ये काव्य और संगीत में अत्यंत निपुण थे। चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार ये सारस्वत ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम रामदास था।
पुष्टि-सम्प्रदायाचार्य महाप्रभु वल्लभाचार्य विक्रम सम्वत् 1560 में अपनी ब्रज यात्रा के अवसर पर मथुरा में निवास कर रहे थे। वहीं सूरदास जी ने उनसे दीक्षा प्राप्त की। आचार्य के इष्ट देव श्रीनाथ जी के प्रति इनकी अपूर्व श्रद्धा भक्ति थी। आचार्य की कृपा से ये श्रीनाथ जी के प्रधान कीर्तनकार नियुक्त हुए। प्रतिदिन श्रीनाथ जी के दर्शन करके उन्हें नए-नए पद सुनाने में सूरदास जी को बड़ा सुख मिलता था। श्री राधा कृष्ण के अनन्य अनुरागी श्री सूरदास जी बड़े ही प्रेमी और त्यागी भक्त थे। इनकी मानस-पूजा सिद्ध थी। श्री कृष्ण-लीलाओं का सुंदर और सरस वर्णन करने में ये अद्वितीय थे। अपने गुरु देव की आज्ञा से इन्होंने श्रीमद् भागवत की कथा का पदों में प्रणयन किया। इनके द्वारा रचित सूरसागर में श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध की कथा का अत्यंत सरस तथा मार्मिक चित्रण है। उसमें सवा लाख पद बताए जाते हैं यद्यपि इस समय उतने पद नहीं मिलते हैं।
एक बार श्री सूरदास जी एक कुएं में गिर गए और छ: दिनों तक उसमें पड़े रहे। सातवें दिन भगवान श्री कृष्ण ने प्रकट होकर इन्हें दृष्टि प्रदान की। इन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के रूप-माधुर्य का छककर पान किया।
इन्होंने भगवान श्री कृष्ण से यह वर मांगा कि ‘‘मैंने जिन नेत्रों से आपका दर्शन किया उनसे संसार के किसी अन्य व्यक्ति और वस्तु का दर्शन न करूं।’’
इसलिए ये कुएं से निकलने के बाद पहले की तरह अंधे हो गए। कहते हैं इनके साथ बराबर एक लेखक रहा करता था और वह इनके मुंह से निकलने वाले भजन साथ-साथ लिखता जाता था। कई अवसरों पर लेखक के अभाव में भगवान श्री कृष्ण स्वयं इनके लेखक का काम करते थे।
एक बार संगीत-सम्राट तानसेन बादशाह अकबर के सामने सूरदास का एक अत्यंत सरस और भक्तिपूर्ण पद गा रहे थे। बादशाह पद की सरसता पर मुग्ध हो गए और उन्होंने सूरदास से स्वयं मिलने की इच्छा प्रकट की। वह तानसेन के साथ सूरदास जी से मिलने गए। उनके अनुनय-विनय से प्रसन्न होकर सूरदास जी ने एक पद गाया जिसका अभिप्राय था कि ‘‘हे मन! तुम माधव से प्रीति करो। संसार की नश्वरता में क्या रखा है।’’ बादशाह उनकी अनुपम भक्ति से अत्यंत प्रभावित हुए।
श्री सूरदास जी की उपासना सख्य भाव की थी। यहां तक कि यह उद्धव के अवतार कहे जाते हैं। विक्रम सम्वत् 1620 के लगभग गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सामने परसोली ग्राम में वह श्री राधा-कृष्ण की अखंड रास में सदा के लिए लीन हो गए। इनके पद बड़े ही अनूठे हैं।
उनमें डूबने से आत्मा को वास्तविक सुख-शांति और तृप्ति मिलती है। शृंगार और वात्सल्य का जैसा वर्णन श्री सूरदास जी की रचनाओं में मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
सूरदास की कृष्ण भक्ति के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं. एक कथा के मुताबिक, एक बार सूरदास कृष्ण की भक्ति में इतने डूब गए थे कि वे एक कुंए जा गिरे, जिसके बाद भगवान कृष्ण ने खुद उनकी जान बचाई और उनके अंतःकरण में दर्शन भी दिए. कहा तो यहां तक जाता है कि जब कृष्ण ने सूरदास की जान बचाई तो उनकी नेत्र ज्योति लौटा दी थी. इस तरह सूरदास ने इस संसार में सबसे पहले अपने आराध्य, प्रिय कृष्ण को ही देखा था.कहते हैं कृष्ण ने सूरदास की भक्ति से प्रसन्न होकर जब उनसे वरदान मांगने को कहा, तो सूरदास ने कहा कि मुझे सब कुछ मिल चुका है, आप फिर से मुझे अंधा कर दें. वह कृष्ण के अलावा अन्य किसी को देखना नहीं चाहते थे.
महाकवि सूरदास के भक्तिमय गीत हर किसी को मोहित करते हैं. उनकी पद-रचना और गान-विद्या की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी. साहित्यिक हलकों में इस बात का जिक्र किया जाता है कि अकबर के नौ रत्नों में से एक संगीतकार तानसेन ने सम्राट अकबर और महाकवि सूरदास की मथुरा में मुलाकात भी करवाई थी.सूरदास की रचनाओं में कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति का वर्णन मिलता है. इन रचनाओं में वात्सल्य रस, शांत रस, और श्रंगार रस शामिल है. सूरदास ने अपनी कल्पना के माध्यम से कृष्ण के अदभुत बाल्य स्वरूप, उनके सुंदर रुप, उनकी दिव्यता वर्णन किया है. इसके अलावा सूरदास ने उनकी लीलाओं का भी वर्णन किया है.सूरदास की रचनाओं में इतनी सजीवता है, जैसे लगता है उन्होंने समूची कृष्ण लीला अपनी आंखों से देखी हो.
सूरदास जी की गुरु भक्ति
अंतिम समय…
आखिर सूर के जीवन की शाम ढल आई। सूर गोवर्धन से नीचे उतरकर घाटी मे आ गए और आखिरी साँसे लेने लगे। उधर श्री वल्लभाचार्य जी के सुपुत्र गोस्वामी विटठलनाथ जी ने अपने सभी गुरू-भाइयो और शिष्यो के बीच डुगडुगी बजवा दी – “भगवद मार्ग का जहाज अब जाना चाहता है। जिसने आखिरी बार दर्शन करना है, कर लो।”
समाचार मिलते ही जनसमूह सूर की कुटिया तक उमड़ पडा। जिसने अपने कंठ की वीणा को झनका-झनका कर प्रभु-मिलन के गीत सुनाए, आज उसी से बिछुडने की बेला थी। भक्त-ह्र्दय भावुक हो उठे थे। बहुत संभालने पर भी सैकडो आंखो से रुलाइयाँ फूट रही थी। इसी बीच गुरूभाई चतुर्भुजदास जी ने सूर से एक प्रश्न किया –
“देव, एक जिज्ञासा है। शमन करे।”
सूरदास जी: कहो भाई।
चतुर्भुजदास जी: देव, आप जीवन भर कृष्ण-माधुरी छलकाते रहे। कृष्ण प्रेम मे पद रचे, कृष्ण-धुन मे ही मंजीरे खनकाए। कृष्ण-कृष्ण करते-करते आप कृष्णमय हो गए। परन्तु…
सूरदास जी: परन्तु क्या, चतुर्भुज..?
चतुर्भुजदास जी: परन्तु आपने अपने और हम सबके गुरुदेव श्री वल्लभाचार्य जी के विषय मे तो कुछ कहा ही नही। गुरू-महिमा मे तो पद ही नही रचे।
यह सुनकर सूर सरसीली सी आवाज मे बोले: अलग पद तो मै तब रचता, जब मै गुरुवर और कृष्ण मे कोई भेद मानता। मेरी दृष्टि मे तो स्वयं कृष्ण ही मुझे कृष्ण से मिलाने “वल्लभ” बनकर आए थे।
एसा कहते ही सूर ने आखिरी सांस भरी और जीवन का आखिरी पद गुना। उनकी आंखे वल्लभ-मूर्ति के चरणो मे गडी थी और वे कह रहे थे।
भरोसो द्रढ इन चरनन केरौ, श्री वल्लभ नखचन्द्र छटा बिनु- सब जग मांझ अन्धेरो।
साधन और नही या कलि मे जासो होत निबेरौ।
सूर कहा कहै द्विविध आंधरौ बिना मोल के चेरौ।।
मुझे केवल एक आस, एक विश्वास, एक द्रढ भरोसा रहा-और वह इन(गुरू) चरणो का ही रहा। श्री वल्लभ न आते, तो सूर सूर न होता। उनके श्री नखो की चाँदनी छटा के बिना मेरा सारा संसार घोर अंधेरे मे समाया रहता।
मेरे भाइयो, इस कलीकाल मे पूर्ण गुरू के बिना कोई साधन, कोई चारा नही, जिसके द्वारा जीवन-नौका पार लग सके।
सूर आज अंतिम घडी मे कहता है कि, मेरे जीवन का बाहरी और भीतरी दोनो तरह का अंधेरा मेरे गुरू वल्लभ ने ही हरा। वरना मेरी क्या बिसात थी। मै तो उनका बिना मोल का चेरा भर रहा।