श्री द्वारिकाधीश भाग – 6

जरासन्ध कह रहा था- ‘फिर भी न शोक करता हूँ, न हर्षित हूँ।अब इस बार हम सब वीरों के यूथप एकत्र थे। सब सदल थे। सबने सम्पूर्ण शक्ति लगा दी, किन्तु हम हार गये। श्रीकृष्ण के द्वारा पालित, अल्पसाधन वाले यादवों से हार गये और शत्रु विजयी हो गये क्योंकि काल हमारे विपरीत तथा उनके अनुकूल था। हम विजयी होंगे- विजयी होकर रहेंगे किन्तु जब काल हमारे अनुकूल होगा। तुम धैर्य धारण करो। मैं इसी मास तुम्हारा विवाह करूँगा।’

जरासन्ध ने केवल धैर्य ही नहीं दिया, वहीं उसने मित्र नरेशों में-से एक की कन्या का वरदान शिशुपाल के लिए ले लिया। ‘महामनस्वी रुक्मी का क्या हुआ?’ कठिनाई से शिशुपाल ने कहा। रुक्मी उसका मित्र है, सहायक है। उसी के स्नेह के कारण श्रीकृष्ण का विरोधी हुआ।

‘वे प्रतिज्ञा कर गये हैं कि विजयी हुए बिना मैं कुण्डिनपुर नहीं लौटूँगा।

‘जरासन्ध ने दक्षिणात्य नरेशों को तत्काल भेज दिया। उन लोगों का एक समूह पहिले ही राजकुमार रुक्मी के पीछे चल पड़ा था। श्रीकृष्ण ने राजकन्या का हरण कर लिया।यह समाचार जब रुक्मी को मिला, वह जरासन्ध के समीप ही था। वह निश्चिन्त था- ‘सब राजाओं की सन्नद्धता का उपहास करता था। उसे लगता ही नहीं था कि उसके रहते यादव ऐसा दुस्साहस करेंगे। कन्या-हरण सुनते ही वह क्रोध से काँपने लगा। उसने सब राजाओं के सम्मुख प्रतिज्ञा की- ‘मैं अपने इस धनुष को छूकर शपथ लेता हूँ कि कृष्ण को युद्ध में मारकर अपनी बहिन को लौटा लाऊँगा, तभी इस नगर में आऊँगा, अन्यथा कुण्डिनपुर में मुख नहीं दिखाऊँगा।’ एक अक्षौहिणी सेना रुक्मी के साथ थी। वह साथ चली भी किन्तु वह सेना तो यादव वीरों ने घेरकर समाप्त कर दी। रुक्मी ने सारथी से कहा था- ‘इन छुद्र यदुवंशियों के दल को छोड़कर रथ बढ़ाओ। शीघ्र कृष्ण के पास चलो। उस दुर्मति गोपकुमार का घमण्ड आज मैं अपने बाणों से चूर्ण कर दूँगा। उसका इतना साहस कि मेरी बहिन को बलात उठा ले चला वह।’

‘रुक! एक क्षण रुक!’ गरुड़ध्वज रथ दीखते ही रुक्मी पूरे बल से चिल्लाया- ‘मेरी बहिन को लेकर तू कहाँ जा रहा है। यदि जीवित रहना चाहता है तो इस बच्ची को तुरन्त रथ से उतार दे, नहीं मैं अभी अपने तीक्ष्ण बाणों से मार दूँगा।’

नर्मदा तट तक गरुड़ध्वज पहुँचा था कि रुक्मी का रथ पीछा करता आ गया था। रुक्मी ने किसी को साथ नहीं लिया था। उसे पता भी नहीं था कि उसके पीछे दक्षिण के नरेश आ रहे हैं। उसने अपना विशाल धनुष चढ़ाया और शर-वर्षा प्रारम्भ कर दी। श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर अपना शारंग धनुष उठा लिया।रुक्मी के बाण काट फेंके उन्होंने। उसके रथ के अश्व, उसका सारथी मारा गया। रुक्मी को गर्व था- उसका रथ दिव्य है, उसके अश्व मरेंगे नहीं। उसका धनुष कट नहीं सकता; किन्तु जब चतुर्भुज शांरगधन्वा के कर से बाण छूटे- कोई दिव्यता टिकती है? अश्व-चारों अश्व और सारथी मारा गया। धनुष कट गया शारंग के एक बाण से। रुक्मी ने नहीं देखा कि उसकी सहायता के लिये बढ़े आ रहे दक्षिणात्य शूर नरेशों में से अंशुमान का वक्ष बाण लगने से विदीर्ण हो गया। उसके शेष सहायक पलक मारते श्रीकृष्ण की बाण वर्षा में या तो मरे पड़े थे या आहत हो चुके थे। जो दो-चार बचे, पीछे भागकर बचे थे और उनमें आगे बढ़ने का साहस नहीं रहा था।

रुक्मी ने दूसरा धनुष उठाया और दिव्यास्त्र प्रयोग करने लगा। व्यर्थ था उसका प्रयास। आग्नेयास्त्र पार्जन्यास्त्र से शान्त हो गया। ऐसे ही चार छः दिव्यास्त्रों का श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया और फिर रुक्मी का धनुष काट दिया। रुक्मी के रथ में धनुष बहुत क्यों रहते? वह तो अपने धनुष को अछेद्य मानता था। धनुष दोनों कट गये। परिघ, पट्टिश, शूल, भल्ल, गदा- जो भी आयुध रुक्मी ने उठाया, श्रीकृष्ण के बाणों ने उनके प्रयोग से पूर्व ही टुकड़े कर दिये। अन्त में तलवार लेकर रुक्मी अपने रथ से कूदा और पैदल दौड़ा।

श्रीकृष्णचन्द्र ने बाणों से उसकी तलवार, ढाल, कवच, शिरस्त्राण के टुकड़े उड़ा दिये और अपना नंदक खड़्ग लेकर रथ से कूद पड़े क्रोध में भरे हुए। कर दिये। रुक्मिणी चकित भीत देख रही थीं यह युद्ध। कुछ पल- केवल कुछ क्षण ही तो लगे थे कि उनका भाई कवचहीन, शस्त्रहीन हो गया था और उसे श्रीकृष्ण ने झपटकर गिरा दिया था जैसे कोई महासिंह किसी सिंह-शावक को दबा ले। बड़ी शीघ्रता से रुक्मिणी रथ से उतरीं और आतुरतापूर्वक चलीं। उनके लिये इतनी त्वरा से दौड़ने का प्रथम अवसर था जीवन में।

‘योगेश्वरेश्वर! अप्रमेय पराक्रम! देवदेवेश! जगन्नाथ! मेरे महाबाहु स्वामी!’ रुक्मिणी ने झपटकर चरण पकड़ लिये और चीत्कार कर उठीं- ‘ये मेरे अग्रज हैं। आपको इनका वध नहीं करना चाहिये।’

श्रीकृष्णचन्द्र ने देखा कि रुक्मिणी का शरीर भय से काँप रहा है। भय और शोक से कण्ठ से ध्वनि स्पष्ट नहीं निकल रही है। मुख सूख गया है। कण्ठ की रत्नमाला बिखर गयी है आतुरता के कारण टूटकर। दया आ गयी। उठा हुआ दक्षिण कर नीचे आ गया। पटुके से कसकर बाँध दिये रुक्मी के कर और उसे लाकर रथ के ऊपर रखकर ध्वज-दण्ड में बाँध दिया। उसके मस्तक के, श्मश्रुके केश काट दिये खड़्ग से। तलवार से कटे अस्त-व्यस्त केश- कुरूप हो गया रुक्मी का मुख। ‘रुक्मिणी चुपचाप रथ में आकर बैठ गयीं। उनके मुख से स्वर भी नहीं निकल रहा था- ‘इतना क्रोध इनका!’
(क्रमश:)

🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

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Shri Dwarkadhish

Part – 6

Jarasandh was saying – ‘Still I am neither sad nor happy. Now this time all of us were gathered in the group of heroes. All were Sadal. Everyone tried their best, but we lost. Courtesy by Shri Krishna, the Yadavas of meager means were defeated and the enemies were victorious because time was against us and in their favor. We will be victorious – we will remain victorious but when the time is in our favor. you have patience I will marry you this month.’

Jarasandh not only gave patience, but he also took the boon of the daughter of one of the friendly kings for Shishupala. ‘What happened to Mahamanasvi Rukmi?’ Shishupala said with difficulty. Rukmi is his friend, his helper. Due to his affection, he became an opponent of Shri Krishna.

‘He has vowed that he will not return to Kundinpur without being victorious.

Jarasandh immediately sent the southern kings. A group of those people had already followed Prince Rukmi. Shri Krishna abducted the princess. When Rukmi got this news, she was near Jarasandha. He was relaxed – ‘ used to make fun of the engagement of all the kings. He did not think that Yadav would do such audacity in his presence. He started trembling with anger as soon as he heard about Kanya-Haran. He vowed in front of all the kings – ‘I take an oath by touching this bow of mine that I will kill Krishna in battle and bring back my sister, only then I will come to this city, otherwise I will not show my face in Kundinpur.’ An Akshauhini army was with Rukmi. She also went along, but that army was surrounded and destroyed by the Yadav heroes. Rukmi had told the charioteer – ‘ Leave the group of these Chudra Yaduvanshis and move the chariot. Quickly go to Krishna. Today I will crush the pride of that Durmati Gopkumar with my arrows. He had so much courage that he took my sister by force.’

‘Stop! Wait a moment!’ As soon as Garudhwaj chariot was seen, Rukmi shouted with full force – ‘Where are you going with my sister. If you want to live, then get this girl off the chariot immediately, otherwise I will kill you with my sharp arrows.’

Garudhwaj had reached the banks of Narmada that Rukmi’s chariot had come in pursuit. Rukmi had not taken anyone along. He didn’t even know that the kings of the south were following him. He offered his huge bow and started raining. Shrikrishna Chandra laughed and raised his sharp bow. He cut off Rukmi’s arrow. The horses of his chariot, his charioteer were killed. Rukmi was proud – her chariot is divine, her horses will not die. His bow cannot be cut; But when the arrows are released from the bow of the four-armed Sharangdhanva – does any divinity remain? All four horses and the charioteer were killed. The bow was cut by a single arrow from the Sharanga. Rukmi did not see that Anshuman’s chest was pierced by an arrow from among the brave kings of the south who came forward to help him. The rest of his assistants were either lying dead or injured in the rain of Krishna’s arrows while blinking. Those two or four who survived, survived by running back and did not have the courage to move forward.

Rukmi picked up the second bow and started using the celestial weapon. His effort was in vain. Firearms became pacified by Parjanyastra. Similarly, Shri Krishna answered four of the six celestial weapons and then cut Rukmi’s bow. Why would there be a lot of bows in Rukmi’s chariot? He considered his bow invulnerable. Both the bows were cut. Parigh, Pattish, Shool, Bhalla, Gada – whatever weapon Rukmi picked up, Sri Krishna’s arrows cut them into pieces even before they were used. At last, Rukmi jumped from her chariot with a sword and ran on foot.

Shrikrishna Chandra tore his sword, shield, armour, headgear to pieces with his arrows and took his Nandak khadga and jumped from the chariot full of anger. Did it Rukmini was watching this war with astonishment. It took a few moments – only a few moments – that his brother had become armorless, weaponless and Shri Krishna had thrown him down like a great lion suppressing a lion-cub. Rukmini got down from the chariot very quickly and walked impatiently. It was the first time in life for him to run so fast.

‘ Yogeshwareshwar! Amazing might! Devdevesh! Jagannath! My great-armed lord!’ Rukmini grabbed his feet and woke up crying out – ‘He is my elder. You should not kill them.’

Sri Krishnachandra saw that Rukmini’s body was trembling with fear. Due to fear and grief, the sound is not coming out clearly from the throat. Mouth is dry. The jewel of the throat has been scattered by breaking due to eagerness. Mercy has come. Raised south tax came down. Tied Rukmi’s tax tightly with a belt and brought it on top of the chariot and tied it to the flagpole. Shamshru’s hair was cut from his head with a sword. Messy hair cut with the sword – Rukmi’s face became ugly. Rukmini quietly sat in the chariot. Even the sound was not coming out of his mouth – ‘So much anger of his!’
(respectively)

🚩Jai Shri Radhe Krishna🚩

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