ॐ आध्यात्मिक दर्शन ॐ
ॐ मैं और ज्ञाता ॐ
ॐ इस मैं की खोज ॐ
ज्ञाता:- पुनः पूछता है।हे मैं तुम कौन हो।
मैं:- हे ज्ञाता जी,जो अपने आप को पहचान लेता है।वह भगवान मैं ही तो हूं।
ज्ञाता:- सुनो तुम भगवान कैसे हो सकते हो। भगवान का सार भाव सुनो, भ= भूमि, ग= गगन,व=वायु, अ= अग्नि , न = नीर अर्थात जल।
मैं:- यह तो बहुवचन मयि व्याख्या है। पांचों तत्वों से मैं नहीं हूं, ये मेरे से हैं। मैं ही भगवान हूं।
ज्ञाता:- और सुनो भगवन् को अनेक ऋषि-मुनियों ने पृथक-पृथक रूप से परिभाषित किया है। जिसमें एक भाव और सुनो । भग+ वान = है भगवान यहां,भग अर्थात योनि जो हमारे पुर्वजों ने 84 लाख बताई गई हैं।जिनका विस्तार पुर्वक श्रीमद्भागवत महापुराण में वेद व्यास जी द्वारा वर्णन किया गया है। योनि= शरीर । संसार में चौरासी प्रकार के शरीर हैं।
वान:- धारण करने वाला। जैसे गाड़ीवान , रथवान, धनवान इत्यादि।भाव:- गाड़ी और रथ को चलाने वाला । गाड़ीवान और रथवान।
इसी प्रकार वान का तात्पर्य शरीर को धारण करने वाला या चलाने वाला। शुद्ध अर्थ भग, शरीर और वान, धारण करने वाला।
और सुनो भगवते :- भग+ वते = भगवते। भग= शरीर। वते= समान,तरह, प्रकार आदि। शरीर में शरीर की तरह। वास=बसने वाले।
शरीर में शरीर की तरह बसने वाले ,तो जब यह शरीर में बसने वाला देह को त्याग देता है तो यह देह ( शरीर) गिर जाता है अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
हे मैं तुम बताओ क्या तुमने ही शरीर को धारण किया हुआ है। यदि न तो तुम भगवान कैसे हुएं। क्योंकि इन दोनों के संयोग से ही तो जीवन है। भग+वान=भगवान
विचार कीजिए भगवान कैसे हुएं
धन्यवाद जी
श्रीराधे जय श्री राधे राधे जी
ॐ इस मैं की खोज ॐ
- Tags: ॐ मैं खोज, ऋषि-मुनियों, ज्ञाता, मृत्यु, रूप परिभाषित
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