मीरा चरित भाग-15

‘संसारमें और भी तो बहुत कुछ स्पृहणीय है बेटी ! फिर इसी ओर तुम्हारी रुचि क्यों हुई? तुम्हारी आयुके बालक खिलौनों और खेलमें रमे रहते हैं। तुम यह सब छोड़कर इस कठिन राहकी ओर क्यों मुड़ गयी?’

‘इसलिये, कि महाराज ! सबका कहना है-मानव देह सहज नहीं मिलती और उसे जानने-पानेका योग इसी देहसे बन पाता है। और जब श्रेष्ठको पा सकते हैं तो हल्की वस्तुसे क्यों स्वयंको बहलाया जाय? मुझे लेना-देना पूरा ही अच्छा लगता है, थोड़ा-थोड़ा मनको नहीं भाता। जिसे पाने और जाननेके बाद कुछ भी पाना-जानना बाकी नहीं रहता, उसीके लिये प्रयत्न करना उचित जान पड़ा।’

‘सुना है कि किसी संतसे तुम्हें भगवद्विग्रह प्राप्त हुआ है और तुम उसकी पूजा-अर्चना करती हो, सो क्या समझकर?’

‘संतजीने कहा था कि यह मूर्ति प्रतीक है और जो सर्वत्र हैं वह इसमें भी हैं। पूजा मुझे अच्छी लगती है। शास्त्रोंमें सुने वर्णनके आधारपर मैं कल्पना करती हूँ कि वह कैसा है। बाबोसाका कहना है कि यह कल्पना संसार-पाशसे छुड़ा देती है। जगत की कल्पना जगत से बाँधती है और इनकी कल्पना इनसे बाँधती है। मुझे तो वह रूप, जिसकी कल्पना मैं करती हूँ, अच्छा लगता है। मैं मूलतः उसे जानना-समझना चाहती हूँ। मेड़ता के रनिवास में स्त्रियोंको कहते सुना है कि’किसने देखा है भगवान को? मरनेके बाद क्या होता है, सो किसने जाना? कौन आकर कहता है कि यह हुआ कि वह हुआ। संसारमें रहकर खा-पीकर मौज कर
लो, बादकी कौन जाने ! कल्पनाके भगवान् या स्वर्गके पीछे संसारकी आँखों देखी मस्ती क्यों खोयें?’ इन्हीं बातोंने जिज्ञासा जगा दी है महाराज! कि वह क्या है? कैसा है? है भी, या नहीं? है तो उसे पानेके उपाय? आदि-आदि….।’

योगी श्रीनिवृत्तिनाथजीने दूदाजीको बताया कि वे पुष्कर जा रहे हैं। डाकोरसे लौटकर आने तक यदि पुष्कर रहे तो मेड़ता आकर अवश्य मीराको योगकी शिक्षा देंगे। इसकी बुद्धि और धारणा शक्ति अलौकिक है। किसी भी गुरुको इसे शिक्षा देते हुए प्रसन्नता होगी..!!

संगीत और योग की शिक्षा…..

मेड़ता लौटकर दूदाजीने अपने कामदार को कुछ सवारोंके साथ पुष्कर भेजा कि योगी श्रीनिवृत्तिनाथजी वहाँ हों तो उन्हें ससम्मान मेड़ता ले आयें। इसी बीच व्रज के एक प्रसिद्ध संत श्रीबिहारीदासजी अपने दो शिष्योंके साथ घूमते हुए मेड़ता पधारे। दूदाजीकी प्रार्थना स्वीकार करके वे कुछ दिनोंके लिये वहाँ ठहर गये। मार्गशीर्षकी पूर्णिमाको श्रीचारभुजानाथके मन्दिरमें भजनोंका आयोजन किया गया। राजपरिवार और अन्य महिलाओं के लिये झरोखों में बैठनेकी व्यवस्था थी।

सभा मण्डपमें एक ओर प्रजागण और दूसरी ओर राजपुरुषोंके साथ राव दूदाजी बैठे। दूदाजीके एक ओर मीरा दूसरी ओर जयमल उनसे सटकर बैठे थे। संत बड़े भजनानन्दी और संगीत शास्त्रके आचार्य थे। वाद्य सस्वर होनेपर उन्होंने गाना आरम्भ किया। मृदंग और तानपूरेपर सधे स्वर और भावपूर्ण बोलों ने भक्त हृदयों को बाँध लिया। मीरा ध्यान देकर सुन रही थी। तानपूरेके चारों तार झंकृत होकर स्वर लहरियाँ विकीर्ण कर रहे थे। मृदंगपर पड़ती थाप जैसे हृदय को धक्-से कर देती। सारा वातावरण संगीतमें डूब गया था। राव दूदाजीके पास बैठी मीरा सोच रही थी-
‘ये संत कैसे डूबकर गा रहे हैं जैसे भजन के बोल इनके बंद नेत्रों के सामने प्रत्यक्ष रूपसे घटित हो रहे हों! कैसा मीठा और गहरा स्वर है इनका! वाणी जैसे नाभिकूपसे उठ रही हो। कभी मैं भी ऐसा गा सकूँगी?’

वह एकाग्र तन्द्रावस्थावत् बैठी सुनती रही। दूदाजीकी आँखोंसे आँसू झर रहे थे। अन्य श्रोता भी मुग्ध थे। आधी रात बीतनेपर संतने तानपूरा भूमिपर रखा। चारों ओर नीरव शांति थी। सभीके मन अभी भजनके प्रभावसे बँधे थे। सर्वप्रथम मीरा ने ही मौन भंग किया—
‘बाबोसा! ये क्या नारदजी हैं? यह वीणा है?’ उसने तानपूरेकी ओर संकेत किया। ‘जोशीजी महाराज ने बताया था कि नारदजी वीणा और करताल बजाकर भजन करते हैं।’

‘पहले महाराजजी के श्रीचरणों में प्रणाम करो बेटी! फिर प्रश्न पूछो।’ दूदाजीने कहा तो मीराके साथ जयमलने भी उठकर संतको प्रणाम किया। मुस्कराकर उन्होंने दोनों हाथ बालकोंके सिर पर रखे। जयमल तो जाकर फिरसे अपने बाबोसाकी गोदमें सोनेका उपक्रम करने लगे, किन्तु मीराने यथा स्थान बैठकर अपने प्रश्नका उत्तर पानेके लिये महाराजजी की ओर देखा।

उसकी वह शांत, सरल और सुन्दर मुखाकृति, मधुर स्वर और प्रश्न पूछती-सी स्वच्छ-निर्मल दृष्टि, संत कुछ क्षण मुग्ध-से देखते रह गये, फिर धीमें स्वरमें बोले- “मैं तो प्रभुका तुच्छ दासानुदास हूँ बेटी!”

संत राजमहलमें ही ठहरे थे। रात्रिके चतुर्थ प्रहरके पूर्व ही उनकी नींद उचट गयी। शय्या त्यागकर वे कक्ष के बाहर आये। प्रातः पूर्वके शीतल मंद समीरकी लहरोंपर बहती कच्चे कंठकी गीत-ध्वनि उनके कर्णोंमें सुधा-सिंचन करने लगी। आश्चर्य से वे एकाएक जड़ हो गये। वे मन-ही-मन सोच रहे थे- “यह…. यह भजन जो मैंने रात्रिको मन्दिरमें गाया था, उसी स्वर-तालमें इतने मधुर स्वरमें कौन गा रहा है?”

दूदाजी भी संतके कक्षका द्वार खुलनेसे और उनकी पदचाप सुनकर जाग गये। वे उठकर बाहर आये। प्रणाम करने पर महात्माजी ने उनसे मन की बात कही। उन्होंने भी ध्यान देकर सुना। स्वर रनिवासकी ओरसे आ रहा था। वे पहचान गये। ‘यह तो मीराका स्वर है’– उन्होंने कहा।

‘कैसी विलक्षण स्मृति?’ संतके मुखसे निकला- ‘ऐसी अद्भुत प्रतिभा प्रभुकी महती कृपाके बिना नहीं मिला करती। देखिये न, कहीं भी स्वर-भंग नहीं हो रहा है और न ही बोल छूटे हैं। केवल एक बार सुनकर इतना सीख लेना…।’

दूदाजीसे मीराकी प्रतिभा, संतसे गिरधर गोपालकी प्राप्ति और डाकोरके पथमें योगीसे वार्ता आदि बातें जानकर संत बहुत प्रभावित हुए। प्रातः जब मीरा दूदाजीके साथ प्रणाम करने आयी तो उन्होंने स्वत: उसकी संगीत शिक्षाका भार वहन करनेकी इच्छा प्रकट की। मीरा प्रसन्न हो उठी। योग्य शिष्य पाकर गुरुको भी उतनी ही प्रसन्नता होती है, जितनी सुयोग्य पुत्र पाकर पिताको। सुयोग्य शिष्य के सम्मुख गुरु क्रमश: अपनी विद्याके समस्त द्वार एक-एक करके खोल देते हैं। उसे अपने समान ही नहीं, अपनेसे भी अधिक विद्या सम्पन्न पाकर उन्हें अपनी सफलताका बोध होता है। मीराकी असाधारण शक्ति देखकर वे चकित व प्रसन्न थे।

जब श्रीनिवृत्तिनाथ जी महाराज मेड़ता पधारे तो दूदाजीके हर्षकी सीमा न रही। प्रभुकी असीम अनुकम्पा के बिना भला ऐसे संतोंका सांनिध्य मिलता है? हर्ष विह्वल दूदाजीने परातके पानीके साथ नेत्र-जलसे महात्माके चरण पखारे, उनकी पूजा की, खान-पान और आवासकी उपयुक्त व्यवस्था राजमहलमें ही की।
क्रमशः

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