मीरा चरित भाग-33

दूदाजी लेट गये—’आपके रूपमें आज भगवान् पधारे हैं महाराज! यों तो सदा ही संतों को भगवत्स्वरूप समझकर जैसी बन पड़ी, सेवा की है, किन्तु आज महाप्रयाण के समय आपने पधारकर मेरा मरण भी सुधार दिया।’ उनके बंद नेत्रों की कोरों से आँसू निकलकर सिरहाने को भिगोने लगे।

‘ऐसी बात क्यों फरमाते हैं दाता हुकम!’- रायसल ने भरे गले से कहा।

‘जो निश्चित है, उसकी ओर से आँख नहीं मूँदना बेटा! यदि प्राण रहें भी तो यह जर्जर देह इन्हें धारण करनेकी क्षमता कितने दिन जुटा पायेगी? फिर फूली हुई फुलवारी-सा यह मेरा परिवार, कर्तव्यपरायण पुत्र, अपने अलौकिक गुणों से भविष्य में सारे देश को आलोकित करनेवाली विदुषी और भक्तिपरायणा पौत्री मीरा तथा अभिमन्यु-सा होनहार वीर पौत्र जयमल-ऐसे भरे-पूरे परिवारको छोड़कर जाना मेरा परम सौभाग्य है पुत्र! मनको मलिन मत करो। चारभुजानाथकी छत्रछाया और अपना कर्तव्य, केवल यही स्मरण रखो।’
पुत्रके प्रति इतना कहकर उन्होंने पुकारा—’मीरा!’
‘हुकम बाबोसा!’
‘जाते समय भजन तो सुना दे बेटा!’
‘जैसी आज्ञा बाबोसा!’ उसने तानपूरा उठाया, उँगलियाँ फेरकर स्वर साधा और आलाप ले गाने लगी-

प्रभु तेरे नाम लुभाणी हो।
नाम लेत तिरता सुण्या जैसे पाहन पाणी हो।
सुकृत कोई ना कियो बहु करम कमाणी हो।
गणिका कीर पढ़ावती बैकुण्ठ बसाणी हो
अरध नाम कुंजर लियो वाँकी विपत घटाणी हो।
गरुड़ छाँड़ी हरि धाइया, पसु जूण मिटाणी हो।
अजामिल से ऊधरे जमत्रास हराणी हो।
पुत्र हेतु पदवी दयी जग सारे जाणी हो।
नाम महातम गुरु दियो सोई वेद बखाणी हो।
मीरा दासी रावरी अपनी कर जाणी हो।

पद पूरा हुआ, पर भैरवी की मधुर रागिनी ने सबके मनों को बाँध लिया। मधुर संगीत और भावमय पद श्रवण करके श्रीचैतन्यदास अपने को रोक नहीं पाये – ‘धन्य, धन्य मीरा ! आज तुम्हारे दर्शन करके मेरे नेत्र धन्य हो गये। तुम्हारा अलौकिक प्रेम, संतों पर श्रद्धा, भक्ति की लगन, चराचर को मोहित करने वाला मधुर कंठ, प्रेम रस में छके ये नेत्र-इन सबको देखकर ऐसा लगता है मानो, तुम कोई व्रजगोपिका हो। वे जन भाग्यशाली होंगे, जो तुम्हारी इस भक्ति-प्रेम की वर्षा में भीगकर आनन्द लूटेंगे। राजन्! धन्य हैं आप और आपका यह वंश, जिसमें यह नारी-रत्न प्रकट हुआ।’
मीरा ने सिर नीचाकर इस असहनीय प्रशंसा को सुना और संत के चुप होने पर प्रणाम करते हुए धीरे से कहा—’कोई अपने से कुछ नहीं होता भगवन्!…’ उसने वाक्य अधूरा छोड़कर उनकी ओर देखा।

दूदाजी ने संत के लिये आहार व्यवस्था का संकेत किया। केवल कुछ फल दूध लेकर श्रीचैतन्यदास जी चलने को प्रस्तुत हुए। राजपुरोहितजी और वीरमदेवजी का आग्रह भी उन्हें रोक नहीं सका।

दूदाजी की आँख लगी देख पुरोहितजी को छोड़कर और सब उठ गये। मीरा भी अपने कक्ष में आ गयी, पर उसके मन में रह-रह करके एक नाम बार-बार गूँज रहा था—’श्रीकृष्ण चैतन्य….! न जाने तुम कौन हो….? तुम्हारे प्रभु-प्रेम ने मुझे तुम्हारी दासी बना दिया है। न जाने इस जन्म में तुम्हारे दर्शन होंगे भी या नहीं, किन्तु इस अल्पज्ञा मीरा पर कृपापूर्ण वरद हस्त बनाये रखना! जहाँ हो, वही से आशीर्वाद दो ! कभी तुम्हारे प्रेममय चरणों की धूलि सिर पर चढ़ाकर यह शुष्कहृदया एकाध प्रेम-सीकर पा धन्य हो जाय!’
अपने गिरधर गोपाल की सांध्य आरती-भोग करके मीरा दूदाजी के पास चली गयी। इस बीच उसकी माँ और राज परिवार की स्त्रियाँ पुरोहितानीजी को साथ ले उससे दूदाजी का स्वास्थ्य समाचार जानने आयी थीं। बहुत कुछ तो उसके उदास मुख ने ही कह दिया, बाकी उसने कहा–’बुढ़ापा देहका सबसे बड़ा रोग है भाभा हुकम! अब बाबोसा की देह जर्जर हो गयी है। यह गली हुई देह छूट जाने में उनका लाभ है। हम तो अपने स्वार्थ को रोते हैं कि उनके रहनेसे हमें उत्तरदायित्व का बोझ नहीं महसूस होता।’
‘कैसी लड़की है यह?’–कइयों ने मन में कहा—’कैसी सरलता से अपने सबसे प्रिय बाबोसा के लिये मरण-कामना कर गयी।’

मीरा ने देखा कि दूदाजी का अंतर्मन चैतन्य था, किन्तु देह की शिथिलता बढ़ती जा रही थी। ‘बाबोसा! मैं भजन गाऊँ?’–उसने पूछा। दूदाजीने आँखे खोलकर उसकी ओर देखा। संकेत समझकर मीरा गाने लगी-

मैं तो तेरी शरण पड़ी रे रामा ज्यूँ जाणे त्यूँ तार।
अड़सठ तीरथ भ्रमि भ्रमि आयो मन नहीं मानी हार।
या जग में कोई नहीं अपणा सुणियो श्रवण मुरार।
मीरा दासी राम भरोसे जम का फेरा निवार।

धीरे-धीरे उनकी चेतना लुप्त होने लगी। नेत्र अधखुले ही रहने लगे। मीरा ने अपनी दासियों को बुला लिया। उनके साथ वह धीमें स्वर में कीर्तन करने लगी-

जय चतुर्भुजनाथ दयाल । जय सुन्दर गिरधर गोपाल।

ब्राह्म मुहूर्त में दूदाजी की वाणी में कुछ चेतना जागी। पुरोहितजी ने गंगाजल मिश्रित चरणामृत मुख में दिया। उनके मुख से अस्फुट स्वर निकले–“कितना सुन्दर… भजन… हो… रहा…. है…. फूल… बरस… रहे…. हैं…. प्रभु…. पधार…. र…. हे…. हैं …. जय…. ज… य… चार भु….जा…नाथ की….ज…य….ज…य

मीरा के भक्ति संस्कारों को पोषण देनेवाले, मेड़ता राज्य के संस्थापक, मेड़तिया शाखा के पूर्वज, परम वैष्णव भक्त, वीरशिरोमणि राव दूदा जी पचहत्तर वर्ष की आयु में यह भव छोड़कर गोलोक सिधारे।
क्रमशः

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