मीरा चरित भाग- 54

‘आपकी चालाकी नहीं चलेगी सरकार, झूला रुकने से पूर्व ही कूद पड़तें हैं आप, इसलिए चढ़ते झूले पर ही नाम लीजिए, नहीं तो…..’
‘नहीं नहीं ले रहा हूँ। जरा पास आईये नहीं तो फिर कहेगें सुना नहीं।’
‘ सो सब नहीं वहीं से बोलिये आप’
‘ अब आप भी बुढ़ापे में क्या बचपना करवाते हैं’
‘ यह तो हम सब कह रहे हैं कि आप भी बुढ़ापे में क्या बालकों जैसे नखरे दिखा रहे हैं’
‘अच्छी बात है- सोलंकियाँ री धीयड़ी कुँवरबाई नाम। बस अब तो?’
साँगा झूले से कूद गये।स्त्रियों के झुण्ड ने महारानी को घेर लिया और उनसे नाम लिखवाकर ही छोड़ा।महाराणा की दूसरी पत्नियाँ भी झूले पर चढ़ी और उनसे भी नाम लिखवाये गये।

अब बारी आई भोजराज की- ‘पधारो बावजी’ दादाओं काकाओं और भाईयों ने उन्हें पुकारा किंतु पिता के सामने भोजराज पत्नी के साथ झूले पर पाँव रखने में लजा रहे थे।महाराणा उनके संकोच का अनुमान करके महल में जा झरोखे की जाली से अपने प्रिय पुत्र एवं पुत्रवधु को झूलते देखने लगे।स्त्रियाँ गा रहीं थीं-

हिंदो घाल्यो रेशम डोर, घाल्यो अम्बुवा री डार।
घणा रे हितालु हिंदे चढ़या।
केसरिया म्हाँरा सिसौदया रो पेंच
घणा रे हौंसिला हिंदे चढ़या।
आयी आया सावणियाँ री तीज
हिंदो घाल्यो बाग में म्हाँका राज।
देओ चित्तौड़ा म्हाँने सीख म्हाँरी सहेल्याँ जोवे बाट।

झूला धीमा पड़ते ही रतनसिंह ने डोर सहित भोजराज को बाँहों में भर लिया- ‘ मैनें आपको इसलिए मार नहीं लगाई बावजी हुकुम कि आप दाजीराज की तरह पुकार कर नाम नहीं ले सकते थे।अब यदि आपने विलम्ब किया तो मैं उतरने नहीं दूँगा। शीघ्र ही बता दीजिए भाभीसा का नाम।’
“मेड़तिया घर री थाती मीराँ आभ रो फूल (आकाश का फूल अर्थात ऐसा पुष्प जो स्वयं में दिव्य और सुन्दर तो हो पर अप्राप्य हो।)बस अब तो ?” रत्नसिंह ‘आभा रो फूल’ पर विचार ही करते रह गये और भोजराज उतर गये। मीरा को स्त्रियों ने घेरकर पति का नाम पूछा तो उसने हुलसकर बताया –

‘राजा है नंदरायजी जाँको गोकुल गाँम।
जमना तट रो बास है गिरधर प्यारो नाम।’

‘यह क्या कहा आपने ? हम तो कुँवरसा का नाम पूछ रही हैं।’
‘इनका नाम तो भोजराज है।बस, अब मैं जाऊँ?’ मीरा अपने महल में चली आई। वे गुनगुना रही थी-
‘हिडोंरो पड़यो कदम की डाल,
म्हाँने झोटा दे नंदलाल॥’
वे आकर अपने प्राणाधार के सम्मुख बैठ गयीं।जैसे ही तानपूरे के लिए हाथ बढ़ाया, कहीं पपीहा बोल उठा।हृदय में जैसे दामिनि लहरा गई हो-

पपीहरा काहे मचावत शोर।
पिया पिया बोले जिया जरावत मोर॥
अंबवा की डार कोयलिया बोले रहि रहि बोले मोर।
नदी किनारे सारस बोल्यो मैं जाणी पिया मोर॥
मेहा बरसे बिजली चमके बादल की घनघोर।
मीरा के प्रभु वेग दरस दो मोहन चित्त के चोर॥

भजन पूरा करके मीरा ने जैसे ही आँखें उघाड़ी, वह हर्ष से बावली हो उठी।सम्मुख चौकी पर श्यामसुन्दर बैठे उसकी ओर देखते हुये मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। मीरा की पलकें स्थिर हो गईं। कुछ क्षण के लिए देह भी जड़ हो गई। फिर हाथ बढ़ा कर चरण पर रखा यह जानने के लिए कि कहीं यह स्वप्न तो नहीं ? उसके हाथ पर एक अरूण करतल आ गया। वह स्पर्श … वह स्पर्श …. वह स्पर्श….. वह भूल गई जगत।पिंडलियों तक चरणों को बाँहों में बाँध कर उसने घुटनों पर सिर रख दिया।गोविंद की उँगलियाँ उसके केशों में घूमने लगीं।
‘बाईसा हुकुम’- मंगला ने एकदम प्रवेश करते हुए कहा और स्वामिनी को अटपटी अवस्था में देख वह ठिठक गई। मीरा ने पलकें उठाकर उसकी ओर देखा- ‘मंगला ! आज प्रभु पधारे हैं। जीमण (भोजन) की तैयारी कर।मिथुला से कह कि यहीं पलँग बिछा दे। चौसर भी यहीं ले आ। आज मैं यहीं सोऊँगीं।तू महाराज कुमार को निवेदन कर आ।’

मीरा की हर्ष-विह्वल दशा देखकर मंगला प्रसन्न भी हुई और चकित भी। वह शीघ्रता से संदेश प्रसारित करने लगी। घड़ी भर में तो मेड़तणीजी के महल में गाने-बजाने की धूम मच गई। चौक में दासियाँ नाच रहीं थीं। भोजराज को थोड़ा आश्चर्य हुआ।
‘आज बाईसा हुकुम मंदिर में ही पौढ़ेगीं’- मंगला ने हाथ जोड़कर विनम्रता निवेदन किया।
‘क्यो’
‘प्रभु पधारे हैं।’ कहकर मंगला चुप हो गई।
भोजराज गिरधर गोपाल के कक्ष की ओर मुड़ गये। वहाँ जाकर देखी मीरा की प्रेम-हर्ष-विह्वल दशा, वह जैसे बार बार किसी को चूम रही हो, आँखों मे हर्ष के आँसू, रोम रोम पुलकित, होठों पर हँसी खिली पड़ती थी।बीच बीच में वाष्परूद्ध कंठ से टूटे शब्द उच्चारित होते – ‘बड़ी कृपा की….. बड़ी… कृपा…जुग … बीत …. गये… आँखें ……पथरा… गईं… थीं…. अब … न जाना ….. अ…. ब… न’

भोजराज आश्चर्य से देख रहे थे कि मीरा के हाथ किसी की देह पर घूम रहें हैं।एकाएक ‘ऊँ…ऊँ.. ‘ कह कर हँस पड़ी और लगा जैसे लाज से मुँह छिपा रही है।
‘यह क्या है? क्या हो रहा है यह? कौन है यहाँ? मुझे क्यों नहीं दिखाई देता?’ भोजराज सोच रहे थे। मीरा की दृष्टि उनपर पड़ी- ‘पधारिये महाराजकुमार ! देखिए, मेरे स्वामी पधारे हैं।आईये इनसे मिलिये। ये है द्वारिकाधीश, मेरे पति।’

और श्री भोजराज का परिचय देते हुये उनसे कहा- ‘ये हैं चित्तौड़गढ़ के महाराजकुमार, भोजराज, मेरे सखा।’
फिर भोजराज से पूछ बैठी- ‘कहिये कैसे लगे आपको मेरे धणी।’
‘मुझे तो कोई दिखाई नहीं दे रहा।क्या आप सच फरमा रहीं हैं।’ भोजराज ने पूछा।
मीरा खिलखिला कर हँस पड़ी- ‘सुन रहे हैं प्रियतम, महाराजकुमार क्या फरमा रहे हैं।’
फिर भोजराज से कहा- ‘आप पधारे।ये फरमा रहे हैं कि आपको अभी दर्शन होने में समय है।’
भोजराज असमंजस में कुछ क्षण खड़े रहे फिर अपने शयनकक्ष में चले गये। मीरा गाने लगी –

आज तो राठौड़ीजी महलाँ रंग छायो।
आज तो मेड़तणीजी के महलाँ रंग छायो।
कोटिक भानु हुवौ प्रकाश जाणे के गिरधर आयो।
सुर नर मुनिजन ध्यान धरत हैं वेद पुराणन गायो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर घर बैठयौं पिय पायो।

दासियों ने उसे श्रंगार कक्ष में चलने को कहा किंतु वह अपने मोहन को आँखो से ओट करने को तैयार नहीं थी।उन लोगों ने श्रंगार सामग्री वहीं लाकर उसे सजाया, तब श्यामसुन्दर का हाथ पकड़ कर वह उठ खड़ी हुई- ‘झूले पर पधारेगें आप? आज तीज है।’
दासियों और चाकरों ने दौड़ कर चौक के झूले की श्रृंखलाओं में हिंडोला जोड़ा।
क्रमशः

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *