मीरा चरित भाग- 63

किसी को अप्रसन्न भी करना नहीं चाहती…. किंतु….. ‘ – निःश्वास छोड़ कर उन्होंने बात पूरी की- ‘अपने चाहने से ही सबकुछ नहीं हो जाता।भगवान तुम्हें सामर्थ्य दे, सुखी रखे।’
मीरा ने दासी को पुकारा- ‘मेरे आभूषणों की पेटी ले आ और चम्पा से कहनाकि मिष्ठान्न लेकर आये।बीनणी का मुँह मीठा कराये’
चित्तौड़ से आये पड़ला के सभी आभूषण उन्होंने देवराणी को पहना दिये।एक बहुत सुंदर और मूल्यवान पोशाक चाँदी के थाल में रख कर उन्हें दी और अपने हाथ से जलपान करा उन्हें विदा किया।

उसी समय रतनसिंह के साथ छोटे देवर विक्रमादित्य आये।
‘भाभीसा हुकुम, देखिये तो आज मेरे साथ कौन आया है’- रतनसिंह ने प्रसन्न होते हुये कहा।
‘ओ हो हो आज तो सचमुच ही दूज का चन्द्रमा उदय हुआ है’- मीरा ने खड़ी होते हुये हँसकर कहा- ‘धन्य भाग मेरे, कैसे पधार गये लालजीसा?’
‘शस्त्राभ्यास करके लौट रहे थे कि मैनें साथ चलने को कहा’ – रतनसिंह ने कहा।मीरा ने विक्रमादित्य के गालों पर हाथ फेरकर उन्हें रतनसिंह के समीप बिठा दिया।
‘बाई हुकुम नाराज तो नहीं होगीं आज बीनणी भी आई थी’
‘क्यों नाराज़ क्यों होगी? आपके पास आना अपराध है क्या? मुझे तो आपकी बातें और स्वभाव बहुत अच्छा लगता है, इसलिए आता ही रहता हूँ।भाई नहीं आते हैं सो आज इन्हें भी ले आया हूँ।आये बिना कैसे जानेगें कि आप कैसी हैं?’
चम्पा जलपान की सामग्री रख गई था।अपने हाथ से छोटे देवर को खलाती हुई बोली- ‘अरोगो लालजीसा ! इस राजपरिवार में अपनी भौजाई को ‘औगणो’ ही समझ लीजिए। भली-बुरी जैसी भी हूँ, आप सभी निभा रहे हैं।’
‘ऐसा क्यों फरमाती हैं आप?’- रत्नसिंह ने खाते हुये कहा- ‘सौभाग्य है हमारा कि हम आपके बालक हैं। लोग तीर्थों और भक्तों के दर्शन के लिए दूर दूर तक भटकते फिरते हैं। हमें तो विधाता ने घर बैठे ही तीर्थ सुलभ कराये है। मेरा तो हाथ जोड़ कर यही निवेदन है कि जो आपको न समझ पाये और जो भला बुरा कुछ कह भी दे, तो उन्हें नासमझ मानकर आप उनपर कृपा रखें।’
‘यह क्या फरमाते हैं आप ? किसपर नाराज होऊँ लालजीसा ! अपने ही दाँतों से जीभ कट जाये तो क्या हम दाँतों को तोड़ देते हैं ? सृष्टि के सभी जन मेरे प्रभु के सिरजाये हुये ही तो हैं। इनमें से किसको बुरा कहूँ ?’
‘एक बात पूँछू भाभीसा हुकम
‘फरमाओ’
‘उस दिन आपने बावजी हुकुम को अर्ज किया कि समस्त दृश्य जगत ईश्वर से ही बना है, वही दृश्य और द्रष्टा है, फिर आप गिरधर गोपाल की मूर्ति के प्रति इतनी समर्पित क्यूँ हैं ? मुझमे, बावजी हुकुम और विरोधियों में भी उतना ही भगवान है जितना उस मूर्ति में, फिर उसका आग्रह क्यों और दूसरों की इतनी उपेक्षा क्यों? संतों के साथ का उछाह क्यों, और दूसरों के साथ अलगाव का भाव क्यों ?’
‘आखिर मेवाड़ के राजकुवंर मतिहीन कैसे होंगे?’- मीरा हँस दी, ‘बहुत सुन्दर प्रश्न पूछा है आपने लालजीसा।इस सम्पूर्ण देह की रग-रग में आप हैं।देह आपकी और आप इसके हैं।इसका कोई भी अंग आपसे अछूता नहीं है।इतने पर भी आप सभी अंगों और इन्द्रियों से एक सा व्यवहार नहीं करते। ऐसा क्यों भला? आपको कभी अनुभव हुआ कि पैरों से मुँह जैसा व्यवहार न करके उनकी उपेक्षा कर रहे हैं ? गीता में भी भगवान ने समदर्शन का आदेश उपदेश दिया है, समवर्तन का नहीं। चाहने पर भी हम वैसा नहीं कर सकते।यह अनहोनी है।’
‘फिर भगवान ने बुरे लोगों को और बुरे व्यवहार को क्यों बनाया? सभी भले होते तो संसार कितना सुंदर होता।कितनी शांति और सुख होता यहाँ?’- रतनसिंह ने पूछा।
‘यह जगत सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों के विकार का परिणाम है।जहाँ एक भी घट अथवा बढ़ जाता है, वहीं अनहोनापन आ जाता है।सृष्टि के संचालक को इनका संतुलन बनाये रखना पड़ता है, अन्यथा भी गुण के बढ़ने घटने अथवा नष्ट होने से संसार स्थिर या नष्ट हो जायेगा।गुण और दोष दोनों एक दूसरे के आधार हैं।बुराई के बिना भलाई अपनी पहचान खो देगी।रावण से ही राम की महत्ता सिद्ध हुई।परिवर्तन संघर्ष का नाम ही संसार है।पत्थर और शमशान की शांति किस काम की? शांति तो मन की भली होती है, बाहर की अशांति भी मन से ही निकल कर आती है।’
‘यह तो फिर समस्या हो गई भाभीसा, शास्त्र, संत सभी तो अच्छाई की स्थापना में लगे रहते हैं।उनका कहना है बुराई मिटाने को स्वयं भगवान अवतार धारण करते हैं।इसके अतिरिक्त ‘अच्छे बनो’ का घोष ही तो सर्वत्र गूँज रहा है।यदि सृष्टि के लिए बुराई भी उतनी ही आवश्यक है जितनी भलाई तो फिर इन सब बातों में सार क्या है?’

‘आवश्यक तो दोनों हैं लाललजीसा, और मनुष्य भी बुराई अथवा भलाई दोनों में से किसी एक को धारण करके मुक्ति का अधिकारी बन सकता है, किंतु भलाई अथवा अच्छाई उसका सहज स्वभाव है, अत: सहज ही निभ भी जाती है।बुराई तो मनुष्य बहुत बड़े कारण अथवा संगति से ही धारण करने को बाध्य होता है, फिर उसे धारण को ठेठ कर निभा लेना साधारण जन के बस की बात नहीं हो सकती।अत: कलुष को अपना कर बढ़ने वालों को पहले अपनी शक्ति अवश्य तोल लेनी चाहिए।हिरणयकशिपु, रावण, कंस आदि ने तो बुराई पर ही कमर बाँधी और मुक्ति ही नहीं, उसके स्वामी को भी पा लिया। मेरी अपनी समझ से तो अपने सहज स्वभावानुसार चलना ही श्रेष्ठ है। ज्ञान, भक्ति और कर्म सरल साधन है। इन्हें अपनाने वाला इस जन्म में नहीं तो अन्य किसी जन्म में अपना लक्ष्य पा ही लेगा। जैसे छोटा बालक उठता-गिरता-पड़ता अंत में दौड़ना सीख ही जाता है, वैसे ही मनुष्य सत् के मार्ग पर चलकर प्रभु को पा ही लेता है।इन दोनों के अतिरिक्त रहे बीच वाले, सो ये ही भगवान पदमसम्भव के विशेष कृपापात्र हैं।इन्हीं से संसार आबाद है।ये सदा बीच में ही रहना पसंद करते हैं।एक बार इधर उधर देखते हैं और दूसरे ही क्षण अपने धंधे में लग जाते हैं।अब रही भगवान के अवतार धारण करने की बात सो इनके अनेक कारण, अनेक बहाने हैं।न ये पाप या पापियों को मिटाने के लिए पधारते हैं और न धर्म की स्थापना के लिए।ये तो इनके आनुषंगिक खेल है।
क्रमशः

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