मन मीरा होता तो श्याम को रिझा लेता

कैसे कहूं सखी, मन मीरा होता तो

श्याम को रिझा लेता

उन्हे नयनो में समा लेता,

ह्रदय राग सुना देता पर ये तो निर्द्वन्द भटकता है, ना कोई अंकुश समझता है। या तो दे दो दर्शन सांवरे, नहीं तो दर बदर भटकता है पर मीरा भाव ना समझता है, ना मीरा सा बनता है फिर कैसे कहूं सखीनआता है

अब तो एक ही रटना लगाता है, किसी और भुलावे में ना अपने कर्मों की पत्री ना बांचता है, अपने कर्मों का ना हिसाब लगाता है

मन मीरा होता तो,श्याम को रिझा लेता जन्म जन्म की भरी है गागर, पापों का बनी है सागर उस पर ना ध्यान देता है फिर कैसे कहूं सखी मन मीरा होता तो,श्याम को रिझा लेता

बस श्याम मिलन को तरसता है,दीदार की हसरत रखता है। ये कैसे भरम में जी रहा है

जाने कहां से सुन लिया है, अवगुणी को भी वो तार देते हैं पापी के पाप भी हर लेते हैं,और अपने समान कर लेते हैं। वहां ना कोई भेदभाव होता है, बस जिसने सर्वस्व समर्पण किया होता है

उन्हें ही प्रभु प्रेम मे डुबाते है

बता तो सखी,

अब कैसे ना कहूं, मन मीरा होता तो, श्याम को रिझा लेता

जय श्री राधे

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