सर्वत्र आनन्द का अनुभव करें
( पोस्ट 4 )

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|| श्री हरि: ||

गत पोस्ट से आगे…………
सगुण के विषय में दूसरी बात कही जाती है | हम लोगों को यहाँ से उठने पर समझना चाहिये, वे साक्षात भगवान् ही हमारे साथ क्रीडा कर रहे हैं | जैसे रामरूप में प्रकट होकर भाइयों के साथ क्रीडा की थी, कृष्ण रूप में ग्वालबालों के साथ की थी, वैसे ही हमारे साथ-साथ क्रीडा कर रहे हैं | रमण कहो, क्रीडा कहो एक ही बात है |

जैसे अत्यन्त प्रिय मित्र के साथ खेलते हैं, हँस-हँसकर बोलते हैं | वैसे ही उन्ही के साथ चलें | सोते हैं तो पास-पास में सोते हैं, हँसते हैं तो हँसते है | सारी क्रिया में एक-दूसरे की नकल करते हैं | उनकी वाणी बड़ी आनन्ददायक है | सुनकर शरीर में कम्प होता है, हृदयरूपी सागर में भगवान् के भाव की लहरें उठती है | नेत्रों से मानसिक रूप से देख रहे हैं, बड़ा ही मधुर रूप है | मानो नेत्रों द्वारा रसास्वाद कर रहा हूँ | उस रूप को देख-देखकर, सुन्दर नेत्र, गाल देखकर, उनकी मंद-मंद मुस्कान देखकर बड़ा ही अमृतमय रसास्वाद मिलता है | मानो नेत्रों द्वारा अमृत का ही पान कर रहा हूँ | स्पर्श करता हूँ तो देखता हूँ कैसा दिव्य स्पर्श है | स्पर्श के द्वारा अमृत का आस्वाद ले रहा हूँ | दिव्य गन्ध स्वाभाविक ही हमारी नासिका के भीतर जा रही है | वे भगवान् हमे देख रहे हैं | अपनी प्रेममयी दृष्टि के द्वारा प्रेम से भिगो रहे हैं | उस आनन्द से हम पूर्ण हो रहे हैं | भगवान् जिसको कृपा दृष्टि से देखते हैं, फिर उसे चिन्ता, भय, शोक कहाँ ?


प्रेम की दृष्टि से देखते हुए हमे प्रेम से पूर्ण कर रहे हैं | ऐसे प्रभु को हर समय देखता रहे | चन्द्रमा जैसे प्रकाश डालकर शीतल करता है, वैसे ही भगवान् प्रेमरस बरसाते हैं | सारे रोम-रोम, मन, बुध्दि सब भगवान् के प्रेम से परिपूर्ण हो गये | जैसे कोई जादू करके अपने वशीभूत करता हो | प्रेम की रस्सी से ऐसा बाँध लिया की हम उसे छोड़ ही नहीं सकते | बस हमारी यह अवस्था सदा ही बनी रहे | हमे कोई आवश्यकता नहीं | सदा प्रेमरस पीते रहे |-
शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित जयदयाल गोयन्दका की पुस्तक भगवान् कैसे मिलें ? (१६३१) से

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