
कान्हा तेरी वंसी मन तरसाए
कान्हा तेरी वंसी मन तरसाए | कण कण ज्ञान का अमृत बरसे, तन मन सरसाये | ज्योति दीप मन होय

कान्हा तेरी वंसी मन तरसाए | कण कण ज्ञान का अमृत बरसे, तन मन सरसाये | ज्योति दीप मन होय

नाचे कृष्ण मुरारी, आनंद रस बरसे रे | नाचे दुनिया सारी, आनंद रस बरसे रे || नटखट नटखट हैं नंदनागर,

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है गृहस्थ जीवन में भी भक्त मेरी भक्ति कर सकता है। गृहस्थ में रहते हुए माता,

बैठे नजदीक तू सँवारे के तार से तार जुगने लगेगा,देख नजरो से नजरे मिला के तुमसे बाते ये करने लगेगा,बैठे

उड़ीसा में बैंगन बेचनेवाले की एक बालिका थी | दुनिया की दृष्टि से उसमें कोई अच्छाई नहीं थी | न

जो शान्त भाव से उपासना करते हैं, उनके लिये केवल श्रीकृष्ण का ऐश्वर्यमय रूप प्रकाशित होकर रह जाता है। उन्हें

हे कृष्ण…. तेरे बिना जिंदगी मेरीअधूरी तो नहींहां यह ज़िन्दगी मेरीऐसे पूरी भी नहींकहने को ज़िन्दगी मेंकोई गम तो नहींबिन

मैंने नहीं, तुमने मुझे चुना था।तब से ही , जागती आंखों सेतुम्हारे सान्निध्य काख़ाब मैंने बुना था। मुझे यकीं था,

एक बार की बात है**महाभारत के युद्ध के बाद**भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन द्वारिका गये* *पर इस बार रथ अर्जुन

*श्रीकृष्ण के जितने ही समीप हम पहुँचते हैं उतनी ही श्रेष्ठताएँ हमारे अन्तःकरण में बढ़ती हैं। उसी अनुपात से