कबीर मन पंछी भया
कबीर मन पंछी भया भावे तो उड़ जाय, जो जैसी संगती करें वो वैसा ही फल पाय, कबीर तन पंछी
कबीर मन पंछी भया भावे तो उड़ जाय, जो जैसी संगती करें वो वैसा ही फल पाय, कबीर तन पंछी
चंद दिन की है ये बहारे चंद दिन के है ये मेले, आये याहा अकेले जाना भी है अकेले, फिर
सारी उमर गवां लयी तूं जिंदड़िये कुछ ना जहान विचो खट्टियाँ क्यों करें तू माया माया, माया है दो पल
मन लागो यार फ़कीरी में, माला कहे है काठ की तू क्यों फेरे मोहे, मन का मनका फेर दे सो
जय वृहस्पति देवा, ऊँ जय वृहस्पति देवा । छिन छिन भोग लगाऊँ, कदली फल मेवा ॥ ऊँ जय वृहस्पति देवा,
बन्दे चल सोच समझ के क्यों ये जनम गवाय, बार बार ये नर्तन चोला तुझे न मिलने पाय ॥ बचपन
फसी भवर में थी मेरी नैया। रचा है सृष्टि को जिस प्रभु ने, रचा है सृष्टि को जिस प्रभु ने,
तू कर बंदगी और भजन धीरे धीरे । मिलेगी प्रभु की शरण धीरे धीरे । दमन इन्द्रियों का तू करता
तूने कमाया है जो याहा तेरे मोक्ष में वो रंग लाएगा बाँध के गठरी कर्मो की साथ याहा से जाएगा
नर कपट खटाई त्याग करा कर काम भलाई के, तेरा होजा गा कल्याण भजन कर ले रघुराई के, भले करम