स्थितप्रज्ञता
सन् 1916 की 23 जुलाईको लोकमान्य तिलककी 60 वीं वर्षगाँठ थी। दो वर्ष पूर्व ही वे माँडलेमें छ: वर्षकी सजा
सन् 1916 की 23 जुलाईको लोकमान्य तिलककी 60 वीं वर्षगाँठ थी। दो वर्ष पूर्व ही वे माँडलेमें छ: वर्षकी सजा
प्रेमकी कीमत ‘दो सौ बावन वैष्णवोंकी वार्ता’ में भक्तशिरोमणि श्रीजमनादासजीके जीवनका एक मनोरम प्रसंग आता है। जमनादासजी एकबार ठाकुरजीके लिये
एक महात्मा रातों जगकर प्रभुका स्मरण किया करते थे। एक बार उनके एक मित्रने उनसे पूछा-‘आप यदि बीच-बीचमें सो लिया
एक विद्वान् पुरुष ग्रन्थरचना करनेमें लगे थे। एक निर्धन विद्यार्थीकी सहायता करनेकी इच्छासे उन्होंने उसे अपना लेखक बना रखा था।
बहुत पहलेकी बात है कोई नरोत्तम नामका ब्राह्मण था। उसके घरमें माँ-बाप थे। तथापि वह उनकी परिचर्या न कर तीर्थयात्राके
हुगलीके सरकारी वकील स्वर्गीय शशिभूषण वन्द्योपाध्याय एक दिन वैशाखके महीनेमें दोपहरकी कड़कती लूमें एक किरायेकी गाड़ीमें बैठकर एक प्रतिष्ठित व्यक्तिके
घर-घर दीप जले (श्रीमती ऊषाजी अग्रवाल ) एक आदमी भीख माँग रहा था। वह कम-से कम सौ घरोंके आगे चक्कर
ईश्वर और जीवका भेद एक महात्माने एक जिज्ञासुसे कहा कि हमको प्यास लगी है, यह तूंबा ले जा और यहाँसे
सत्यकी जय होती है ‘यह तरबूज कैसा है लड़के? -एक ग्राहकने पूछा। ‘यह तरबूज भीतरसे सड़ा है, श्रीमान् !’ ग्राहक
दक्षिणके पैठण नगरमें गोदावरी-स्नानके मार्गमें ही एक सराय पड़ती थी। उस सरायमें एक पठान रहता था। मार्गसे स्नान करके लौटते